पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१९८

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पद ७१३ औरंग होय ! ग्रौपनिषद'- वि० [] उपनिषद् साधी । उपनिषद् में बताया अौपशामिक-वि० [न०] १ शतिकारक । शातिदायक । २ उपशम ३१ [ॐ०] । । अर्थात् शाति सववी (को॰) । निद’ -7ज्ञा पुं० १ परब्रह्म । २ पनि पद् का अनुरण यौ०--पञ्चभिक भन= जैन संप्रदाय में वह भाव जो अनुदयरने जा इयक्ति । पनपद् का अनुयायी [को०] । प्राप्त कमों के ज्ञात न होने पर उत्पन्न है, जैसे,---गुंदा पानी निदिक--वि० [३०] १ उपनिषद् सुवघी या उपनि पद के रीठी डानने से साफ हो जाता है। 7मान । ३० -वैदिक साहित्य से औपनि पदिक साहित्य की अपश्लेपिक (प्राचार)--सज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में अधिकरण विपत्राएँ निम्न निदिष्ट हैं । --म० दरिया (५०), पृ० ५६ । कारक के अलाँन तीन अाधारो में से वह अाधार जिसके किसी २ उपनिषद् के अध्यापन में गुजर बसर करनेवाला ।। अश हो से दूसरी वस्तु का लगाव हो । जैसे,—वह चटाई पर पनिषदि कर्म-नुज्ञा पुं० [२] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार वैठा है। वह वदलोई में पकाता है । यहाँ चटाई भीर वे हमें 3 गनु का नाश करनेवाले कहे गए हैं। शत्रु नाशक वटलोई अपश्लपिक आवार हैं। औपसगिर्क–वि० पुं० [१०] १ उपसर्ग सवधी । २ उपसर्ग के रूप ग्रोपनी -- ज्ञा जी० [हिं० ओप} ३० ‘प्रोपनी'। में होनेवाला (को०) । ३ छत से उत्पन्न होनेवाने । रोग पन्त क-वि० [सं०] १ उन्याम विषयक 1 उपन्यास साधी । अादि (को०)। ४ दु ख ग्रादि का सामना करने में समर्थ । २ उपन्य7 में वर्णन करने योग्य । ३ अद्भुत । विलक्षण । औपसगिक-सज्ञा पुं० एक प्रकार का निपात ।। | ? उपन्यान ही बातों के समान । पास्यक-सज्ञा पुं० [स] व्यभिचार अादि के आधार पर जीविका पन्यासिक-- सज्ञा पुं० [सं०] उपन्यास लिखनेवाला । उपन्यास | चलानेवाला व्यक्ति [को॰] । न उ । जैसे, शरत 75 गला के प्रसिद्ध ग्रन्यासिक हैं। विशT --इन अर्थ में इन शब्द का प्रयोग बहुत हाल में बंगालियो ग्रौपस्थिका–नज्ञा स्त्री० [सं०] रो । गणिका । वैश्य (को॰] । को देश होने लगा है। ग्रौपस्थ्य-सज्ञा पुं० [सं०] मैथुन । समग । सहवाम (०)। प्रोपपत्तिक---वि० [स०]१ उपपति संवधी । २. युक्ति या तर्क द्वारा पहारिक'--वि० [सं०] १ उपहार उवधी या उपहार के काम में गिद्ध होने जाना । तर्कसाध्य । युक्तिसगत । ३ सैद्धांतिक । । आने वाला [को॰] ।। प्रोपगतिक शरीर संज्ञा पुं० [मु०] देवलोक और नरक के जीव पहारिक--संज्ञा पुं० भेंट । उपहार [को॰] । | | नैननिरु वा सहन शरीर । लिगशरीर। | श्रीपाधिक--वि०[स] १ उपाधि साधी । २ विशिष्ट स्थितियों में अपम्प उता पुं० [ग] उपमों का भाव । समता । बराबरी। होनेवाला । विशेष घर्म ३ सञ्च। ३ उपाधिजन्य । ४ (न्याय ०) विशेप परिस्यिति या कार्य को करण भूत पयिक)---वि० [सं०] १ न्याय के योग्य । २ ठीक । उपयुक्त। परिस्यिति [को०] । ३ प्रपा ३ द्वारा प्राप्त । श्रौपायनिक-वि० [सं०] १ उपायन या उपहार स्वधा । २ उपहार पयिक- गुजर पु० १ माधन । ढग । तरीका । उपाय [को०] । या नजराने में प्राप्त । ३ उपहार में दिया जानेवाला (को०] । झोपयोगिक--वि० [न०] उपयोग या प्रयोग में ग्रानेवाला । उपयोग मान-सज्ञा पु० [३०] १ वह वैदिक अग्नेि जो उपासना के नापी ०} । लिये हो । गुह्याग्न् ि । २ कृत्य जो पासुन अग्नि के पास मौतररानि--वि• [न०] राजप्रतिनिधि ३ सबधित [को०] । किया जाय । ३. पितरों को देय पिड (को॰] । परिप्ट7--- 7 पु० [३०] वाल्मायन कामसूत्र में वर्णित रति औपासन-.-वि० [सं०] १ गार्हपत्य अग्निववधी 1 २ अर्चन या पूजा शि का एक प्रकार को०] । पन--- ३०] [वि० प्रा० अपला, आपली] १ उपत्र या | सबंधी । ३ पावन । पवित्र (०१ ।। पन्धर न२i।। २ अन्तर निमित । पत्थर का ना हुप्रा ।। अपेंद्र-पिं० [सं० पेन्द्र उपेंद्र या विष्णु बबईः [को॰] । |ौम'--सज्ञा स्त्री० [१० अवम] अवम तिथि । वह तिथि जिसकी 2 पर से प्राप्त होनेवा (फर ग्रादि) [को०)। पवन्त-,If l० [सं०] उपसि । फा का (०] । हानि हुई हो। उ०---गनती गनवे ते रहे छत ह अछत सौरपत्र, प्रविन समान । अनि अप ये तिथि श्रम ले परे रहो तन प्रान । –राज्ञा पुं॰[1०1१ उपवान के उपयुक्त भोजन। ---विहारी (शब्द॰) । २ न{धे । 977 -f५० (7०] १ उपय! हात्र में दिया जानेवाजा (धन धोम-वि० १ उमा नबधी। २. युन का बना हुआ। [को०] । भ६)।३. उपम में किया जानेवारी (३० । गौमक, श्रमिक---वि० [म ०] सुन का बना हुआ । सन का ]ि । प '-fi० [७] सवारी करने योग्य । सुपारी के काम में मान--सा पु० [सं०] नई का घेत । मन का खेत पूर्णा | पापः ॥ {२} ! अमि० ग्र०, पृ० २८६ ।। मीरा-17 ० 1. राजा की मुरारी का हावी । २ रजा की ग्रोरग---सपा पुं० [फा०] १ र नसिहानुन । २ बुद्धिमानी । ई भी उपरो, वैसे, रद, घरव मादि (२) । यौं--पौरगञ्जय=(१) राज्यसिहासन को शोभा । (२) शाक। | तुल्यती ।।