पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१९७

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ग्रौदालक' ७११ औपनिवेशिक अहिालक'.- संज्ञा पुं० [सं० उद्दालक] १ दीमक और विलनी ग्रादि अनि, मौनी -संज्ञा स्त्री० [सं० अवनि] ६० 'अवनि' । उ० वांवी के कार्ड के बिल में निकली हुआ चेप या मछु । मृग की मानौ चचल छौनी । पावन करति फिरत छवि प्रौन। २. एक तीर्थ का नाम । --नद० ग्र०, पृ० १२० ।। प्रौद्दान्नक'--वि० उद्दालक के वश का । यौ०--ौनिप= दे० अवनिप । अनिवाल = पृथिवीपुत्र मुगल । उ०-- औद्धत्य --सुज्ञा पुं॰ [स०] १ उग्रता । अक्खड़पन् । उजडड्पन । २. जावक सुरग में न, इगुर के रंग में न, इद्रवधू अग में न, रंग अविनीतता । ऋशालीनता । धृष्टता । ढिगई। निपाल मैं गग०, पृ० २४ । औद्भिज्ज–वि० [सं०] घरती चे उत्पन्न या प्राप्त [को०] । अन्नत्य-सच्चा पुं० [सं०] १. उन्नति । उत्थान । २ उच्चता। औदभज्ज-सज्ञा पु० द्वारा नमक ]ि । | ऊँचाई [चे ।। भिद'--वि० [सं०] १ (कुएं से) निकलनेवाला । बरती के औप--संज्ञा पुं० [हिं० ग्रोप] दे॰ 'झोप' । उ०-- अग बर्म चमं सु अदर से छूटने या व्यक्त होनेवाला । २. विजयी [को॰] । । कीन । सिर टोप आप सु दीन --० रातो, पृ० १२३ ।। औदुभिद- सुज्ञा पु० १. प्रपात या करने का जल । २ पहाडी श्रौपकार्य-संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० श्रौपकार्या] निवास । डेरा। नमुक । बारा नमक (० ।। | पड़ाव । खेमा (को॰] । औद्योगिक-वि० [सं०] उद्योग सवघी ! पक्रमिक--वि० [स०] उपक्रम सवधी । प्रारभिक [को०)। द्वाहिक–वि० [सं०] १. विवाह सवधी । २ विवाह का । विवाह पक्रमिक निर्जरा-सा जी० [सं०] अर्हत या जैन दर्शन में दो | में प्राप्त । निर्जरी में से एक । वह निर्जरा या कर्मक्षय जिममे तपोबल' अट्टाहिक-संज्ञा पुं० १ विवाह में ससुराल से मिली दृश्रा धन द्वारा कर्म का उदय कराकर नाश किया जाय । | जिसका वटवारा नहीं होता । २ विवाह में स्त्री को भेंट या प्रौपग्रतिक, औपग्रहिक-सच्चा पुं० [सं०] १ ग्रहण । उपग । . उपहार स्वरूप मिला धन । | ग्रहणग्रस्त सूर्य या चंद्रमा कि०] ।। अौध --सुज्ञा पुं० [म० अवध] पुं० 'अवघ' । उ०--संग सुनामिन औपचारिक–वि० [सं०] १ उपचार सवधी । २ जो केवल कहने भाइ भलो, दिन ६ जनु कध हुते पहुनाई ।—तुलसी ग्रं०, सुनने के लिये हो । बोलचाल का। जो वास्तविक न हो। पृ० १६१।। जैसे,—यदि देह से आत्मा अभिन्न हुआ तो 'मेरा देह', इस औध'.--सृज्ञा सो० [सं० अवधि] दे० 'अवधि' । उ०—औध प्रकार की प्रतीति किस प्रकार हो सकती है। इसके उत्तर मे अनल तन तिनको मदर चहु दिसि ठाठ ठयो -कवीर ग्र २, यही कहना है कि 'राहु का शिर' इत्यादि प्रतीति की नाई पृ० २६४ । ‘मेरा देह', इस प्रकार औपचारिक प्रतीति हो जाती है। औद्यमोहरा–मज्ञा पु०० उद्ध+हि० मोहड़ा]सिर उठाकर चलने- औपटा –वि० [हिं०][वि० सी० पटी] दे॰ 'अटपटी । उ०-- | वाचा हाय। घिस-वि० [सं०] [वि० डी० श्रीधसी] थन या स्तन से संबंध रखने हाय कछु प्रौपटी उदेग अागि जागि, जाति, जब मन लागि जात | वाला, जैसे, दूध [को०] । काहू निरमोही सो –रत्नाकर, मा० २, पृ० ३१ । औघस्य-सुज्ञा पुं० [सं०] दुध । दुध [क] । औपदेशिक-वि० [सं०] १ उपदेश संवधी । २ उपदेश या शिक्षा ग्रीवान -सज्ञा पुं० [सं० अवधान, हि० अवधान, अउधान गर्ने । द्वारा जीविका चलानेवाला । ३ उपदेश द्वारा कमाया या प्राप्त अउधान । उ०—ले कन्यी ऋषि घई सिधये । भृगुकुल । | (धन) [को०] ।। कुल हरि प्रधानहि अाये ।--कवीर सा०, पृ० ३२ ।। पद्धविक-वि० [सं०] १ उपद्रव सवधी । २ रोगादि के लदाणी ग्राधि--सुज्ञा स्त्री॰ [१० अवधि] ६० 'अवधि' । उ०-~-प्रावन के दिन से सवध रखने वाला [को॰] । तीस कहे गति औधि की ठीक तपो परतौं ।--गंग०, पृ० ४६ अपघम्य-संज्ञा पु० [सं०] धर्मविरोधी विचार या मत किये। शौचूत - सधा पुं० [म० अवधूत] दे॰ 'अवधूत' । १० --करता है । औपधिक'–वि० [सं०] १ धोखा देनेवाला । धोखेबाज । छनी। । सो करेगा, दादू तावी भूत। कौतिगहारा ह्व रह्या अणकरता । २ धोखा देकर किया जानेवाला (कार्य)। शोबूत ।-दादू०, पृ० ४५७ ।। प्रौपधिक-संज्ञा पु० घोखा देकर धन लेनेवीला पुरुप। ठग । अौन -सज्ञा स्त्री० [सं० अवनि] दे॰ 'अवनि'। उ०—अरु साधुन औपनिचिक-वि० [सं०] १ उपनिधि या धरोहर सवधी । २ शुक्र| कै दुम्म कौन । जिनके नहि ममता मति अौन 1-नद० नीति के अनुसार विश्वास पर किसी के यहाँ रखा हुअा (धन)। ग्र०,१० २२२। औपनिवेशिक संज्ञा पुं० [सं०] उपनिवेश में रहनेवाला व्यक्ति । श्रीनापौना-वि० [सं० ऊन (कम) + हिं० पीना ( भाग)] प्राधा वह जो उपनिवेश में रहता है । जैसे,—दक्षिण अफ्रिका के तोहा । थोडा बहुत । अधूरा । भारतीय औपनिवेशिक । अौनापना—क्रि० वि० कमती वठती पर । औपनिवेशिक-वि० उपनिबेश का। उपनिवेश सवयी । जैसे,— महा-नौनेपने करना= कमतो व ती दाम पर बेच डालना )। औपनिवेशिक शासन । औपनिवेशिक सचिव । शौरनिवेशिख जितना मिले उतने पर बेच डालना । स्वराज्य आदि ।