पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१९५

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छानों 656 ड़िा छाना –० स० [सु० अछादन] अच्छादित करना । छ। हिरना विझेऊ सिंह ते झर बुरी बलाय । कारवडे झीना जाना। फैनना। उ०—छत्रे अकाल एम ग्रौछायो । वेणु प्रायौ। परयो मिहा चले पाय ।-गिरिधर (शब्द०)। किरि वरण व वेलि०, ८० १४४। । ग्रौटन--संज्ञा स्त्री० [स० प्रवर्तन प्रा० आउटट्टन, विट्टन] १ ग्रौछार–संज्ञा पु० [देश०] ग्रोहार ! झूज़। हाथी अादि की पीठ उवाले । ताव। २ ताप। गर्मी । इ०--कनक पान कित पर डाला जानेवाला अावरण या पट जो नीचे तक फूलता जोवन कीन्हा । औटन कठिन विरह वह दीन्हा ।----जायसी रहता है । उ०—जक जराव औछार मडि, मुरराज द्विपन (शब्द॰) । ३. तवाक काटने की छु । ४. अटिने का भाव सोनात पडि --पृ० रा०, १८।८३ ।। या क्रिया । ५. अौटने की वस्तु। छाहा--सज्ञा पुं॰ [सं० उत्साह, प्रा० उच्छाह] दे॰ 'उछाह' ।। ० घ्या' । अटिना-क्रि० स० [सं० प्रवर्तन, प्रा० आउद्देन, प्रवद्र्टन] १ दूध उ०—भावसिघ वैवल का माडण सवाई। छह सी लागे या किसी और पतली चीज को अचि पर चढ़ाकर धीरे धीरे | चाकू चाहे की लड़ाई 1--रा० ८०, पृ० १२२ । चलानी और गाढा करना। उ०--ौट्यो दूध कपूर मिनायो औज-खुज्ञा सी० [अ० शौज] दे॰ 'ओ'।। प्यावत कनक कटोरे। पीवत देखि रोहिणी यशुमति डारत अज-सज्ञा स्त्री॰ [न० प्रोज] ऊँचाई। उत्कर्ष । बुनदी । अ०-- हैं तृन तोरे---सूर (शब्द॰) । २. पानी, दूर्व या और किमी सअादत का जिसे औज है अशियाँ, निझा देख अँधारा पतली चीज को झाँच पर गरम करना । खो जाना। उजाला तमाम 1–दक्खिनी॰, पृ० १४५ विशेप--इत शब्द का प्रयोग केवल तर? पदार्थों के लिये आजक -झि० वि० [हिं० प्रौझक दे० 'ग्रौचक' ।। होता है । अौजकमाल-सुना पु० [अ०] गीत में एक मुकीम (फारसी-राग) । ३.५व्यर्थं घूमना । इधर उधर हैरान होना। | का पुन्न । अटना-क्रि० अ० १ किसी तरल वस्तु का अच या गरम खानई–वि० [सं० अव या अप+जड] उजड्ड । अनाड़ी। उ०--- | फर गाढ होना । २. खौलना। काल सचाना, नर चिड़ा औजड हो औचित ।---कवीर 5, ग्रटनी--संज्ञा सी० [हिं० अौटना] कलछी या चम्मच जिमने आंच ॥ (शब्द॰) । पर चढ़े हुए दूध या और किसी तरल पदार्थ को हिलाते या औजस--सज्ञा पु० [सं०] सोना । तैजस | स्वर्ण (को०)। चलाते हैं। शौजसिक'---वि० [सं०] अजयुक्त । ग्रोजस्वी । उत्साही (को०] । श्रौटपाई -वि० सी० [हिं० टिपाय] शरारती । नटखट । उ०—अंजिसिक-सज्ञा पुं० वीर पुरुप । प्रोजस्वी व्यक्ति । चहुटि जगाई अघराति टपाई प्रानि ।-धनानद, पृ० २०६। शौजस्य–वि० [वं०] उत्साहवर्धक । वेलवर्धक । ताकतवर । शक्ति अटपाय--संज्ञा पु० [हिं० अौठपाय] दे॰ 'औठपाय' । । | वढानेवाला [को०] । औटाना—क्रि० स० [हिं० प्रोटना की प्रे० रूप] दूध या किसी और जिस्म-संज्ञा पुं० १ ज का भाव । ३. बल । शक्ति। ३. पतली चीज को ग्रांच पर चढ़ाकर धीरे धीरे हिलाना और उत्साह ]ि । गाढ़ा करना । वौलाना। उ०—(क) लखि द्विज धर्म तेल अौजार-सज्ञा पु० [अ० वजर को बहु व प्रौजार] वे यत्र जिनसे औटायो । बरत कराह माँझ डरवायो ।--विश्राम (शब्द०)। वैज्ञानिक, इजिनियर, छात्र, लोहार, वढई अदि अपना काम (ख) पय टावत महूँ इक काना। कृढे रंगपति विभव करते है । हथियार । राछ । विशाला ।—रघुराज (शब्द०)। जूद -सृज्ञा पु० [अ० बुजूद] वन । शरीर । जिस्म । देह ।। श्रौटी--संज्ञा स्त्री० [हिं० औदना] वह पुष्टई जो गाय को व्याने पर । उ०—दादू मालिक कह्या अरवाह सौं, अरवाह कह्या ौजूद ।। दी जाती है। २. पानी मिलाकर पकाया हुआ ऊब का रेल । औजूद अालम वो कह्या हुकम खवर मौजूद ।-दादू०, पृ० ४२०।। आठपाय-संज्ञा पुं० [देश०] उत्पात ! शरारत। नटखट । उ०-- अज्ज्विल्य–संज्ञा पुं० [सं०] उजलापन | उज्वलता [को०] । अनगने यौठपाय रोवरे गर्ने न जाहि बेऊ अाहि तमुकि करैया अझक --क्रि० वि० [हिं०] दे॰ 'चक' । अति मान की । तुम जोई सोई कहो, वेऊ जोई साई सुने, तुम श्रौझ१- क्रि० वि० [सं० अध+हि० झड़ी] लगाठार । निरतर ।। जीन पातरे वे पाती हैं कान की । केशव (शब्द०)। ३०-होय वेअकलि तन की सुधि जाई । अझड भरमै राहि औड-सुज्ञा पुं० [सं० कुण्ड= गड्ढा] ६० 'दृ' । न पाई ।—प्राण, पृ० १५६ । | औङ–वि० [सं०] ग्राई । तर 1 गीला [को॰] । मुहा०—भिड़े मारना या लग्ना==वार पर वार करना। डन -सज्ञा पु० [हिं० प्रोडना] दे॰ 'थोड़न' । उ०-पग उभारि | वडाधड़ चांटे लगाना । दले रारि तारि कड्ढन दुज्जन वै । श्रौडन यह धपि घापि भ्रत सोझड-संज्ञा पुं॰ [दश०1१ सयाना । वृद्ध गुण । २ उजाड़ । चालुक्कन वै ।--पृ० ०, १२॥३३२। औडव-वि० [सं०] नक्षत्र संवधी । तारा वीरान स्थान । ३०-~-वडी वड़ अाँखी किछु सूझे नाहीं राहु से सवद्ध [वै] । औडव-व्रज्ञा पुं० संगीत मे एक राग का नाम को]। | छाँड झड क्या पाहीं ।—प्राण॰, पृ॰ ३२ । औडा–क्रि० वि० [हिं० प्रॉड़ा गहरे । अदर की ओर । भीतर। मौझर-क्रि० वि० [हिं० धड़ लगातार। अविरत । उ०— उ०—विषय के अंदर पहुच जाने की योग्यतावाने जितने | देल