पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१९४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

औख ७०६ छको खा--संज्ञा स्त्री० [सं० उषर] ३० 'औखल' । यौ॰—घड़पय = दे० 'अघोर पंथ' । घिउपय = दे० अधोरऔखदे---संज्ञा पुं० [सं० अौषध] दे० 'मौषध' । | पथी । औघडमा = दे० 'अघोरमार्ग' ।। औषध- सज्ञा झी० [सं० अपघ] दे॰ 'औपधि' । उ०—-इसके पीछे औघड:-वि० [सं० अव + घट्ट] अदाङ । उलट पलटा । अटपट । | उसने अपनी झोली में से कोई औषध निकाली ।—ठेठ, घर---वि० [सं० श्रये + घट']१ अटपट । अनगढ़ । अञ्चल । उनटापृ० ३८।। पलटा । ‘सुघर' का प्रतिकूल । २ अनोखा। विनक्षण । ३०औखल---सज्ञा स्त्री॰ [स० ऊषर] वह भूमि जो परती से अावाद की (क) कृजबिहारी नाचत नीके लाडिली नचावति नीके । | गई हो। औघर ताल घरे श्रीश्यामा मिलवत ताताई ताथेई नावत सँग प्रौखा--सज्ञा पुं० [हिं० शोखा] गाय का चमडा । गाय का बरसा । पी के ।—हरिदास (शब्द०) । (३) वलिहारी वा रूप की श्रगत –सुज्ञा स्त्री० [स० अवगति या अपगति] दुर्दशा । दुर्गति ! लेति सुघर को घर तान दै चुवन यापन प्रान | मूर क्रि० प्र०—करना । होना । (शब्द०)। (ग) मोहन मुरली अघर धरी । घरे तान गत--वि० [सं० अवगत] दे॰ 'अवगत' । वैधान सरस सुर अरु उमगि भरी।--सूर (शब्द०)। औगति- सज्ञा स्त्री० [सं० अपगति अवगति । अधोगति । उ:-- अघिी--सज्ञा स्त्री॰ [ दिश० अौगी ? ] वह जगह जहाँ नए घोडो को ज्ञान हीन गति भयो मरि नरकहि जाई ।-'भीखा० ०, सिखलाने के लिये चक्कर दिलाया जाता है। | पृ० ६७ ।। अधूरा--क्रि० अ० [सं० अवधूर्णन चक्कर पाना । घूमना । अौगन —वि० [सं० अवगुण] दे० 'गुन' । उ०---प्रायै गन औचक---क्रि० वि० [स० यव +चफ = भ्राति] अचानक । एक के गुन सव जाये नसाय !-दीन० ग्र०, पृ० ८४ ।। एकाएक । सहसा । एकवारेगी। उ०--(क) खेनत ग्रोचक हो श्रौगम्म –वि० [सं० अपगम दे० 'अगम्' । उ०—जहाँ न मानुस । हरि अाए । जननी वोह पकरि बैठाए ।-- सूर (शब्द॰) । सचरे निरजन जान मरम्म । जवू दीप के मानई, भरतखट (ख) औचक अाय जोपनवौं अति दुतु दीन । छुटिगो सगे गम्म ।—चित्र०, पृ० १५६ । गोइयव नहि मल कोन --रहीम (शब्द॰) । मौगाह--वि० [स० अवगाह] दे॰ 'अवगाह' । उ०--अति आगाह । चट'---सज्ञा भी० [सं० अवोच्चाट, हि० उचटना = हटना] ऐसी थाह नहि पाई। विमल नीर जहे पूमि देखाई ।-चित्र, स्थिति जिसमे निस्तार का उपाय जल्दी न मूझे । अइसे । पृ० ६० ।। सकट । कठिनता । सौकरी । उ०—-र सान मी केही उचाटि गाहना--- क्रि० अ० [सं० अवगाधन, प्रा० ऋगाहणा, हि० रही, उचटी न सकोच की औचट सो। अलि कोटि कियो अवगाहना] दे० 'अवगाहना' । अटकी न रही, अटकी अँखियाँ लटकी लट सो । भौगी--संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] १ रस्सी बटकर बनाया हुआ कोडा रसखान (शब्द॰) । जो पीछे की ओर मोटा और आगे की ओर बहत पुतला मुहा०—ौचट में पड़ना = सकट में पड़ना। जैसे -साँप जब होता है । इसे घोडो को चक्कर देते समय उनके पीछे जोर औचट में पड़ता है तभी काटता है । जोर से हवा में फटकारते हैं। जिसके शुद्ध में चौंक कर वे अचिट-क्रि० वि० १. अचानक । अकस्मात् । उ०—-इक दिन संव और तेजी से दौड़ते हैं। २ वैल हाँकने की छडी। पैना। करती रही जमुना में अस्नान । चीर हरे तहँ प्राइकै चट ३. कारचोवी के जूते के ऊपर का चमडा । स्याम सुजान ।—विथाम (शब्द०)। २ अनचीते में 1 भूल श्रौगो-संज्ञा स्त्री० [सं० अवगत हाथी, शेर, भेडिए अादि को फंसान से । उ०-स्वारथ के साथी तज्यो, तिज को सो टोटको | का गड्ढा जो घास फूस से ढंका रहता है। चट उलटि न हेरो।—तुलसी (शब्द०)। गुन -सज्ञा पुं० [सं० अवगुण] दे० 'अवगुण' । शौचाट–सुज्ञा पुं० [स० उच्चाटन] दे॰ 'उच्चाटन' । उ०-- भौगुनी--वि० [सं० अवगुणिन] १ निगुणी । २ दोषी । ऐवी। यभन मोहन वसिकरन छाडो चाट । सूणौ हो जोगेसरी घ--सज्ञा पुं० [सं०] जलप्लावन । बाढ [को०]। जोगारभ की वाट ।---गोरख०, पृ० १३० ।। घट --वि० [हिं० अवघट] ३० 'अवघट। उ०—-साधो यूजर्व प्रचित -वि० [स० अव = नहीं + चिन्ता] निश्चित । वेखवर । नगर अधिकाई । घट घाट बाट जहूँ की उस मारग हम । उ०—काल सचाना नर चिड़ा जड औचित |-- कबीर (शब्द॰) । जाई 1---चरण० बानी॰, भा॰ २, पृ० १३७ । औचिती–सज्ञा स्त्री॰ [सं०] औचित्य । उपयुक्तता । योग्यता। यौ०- घट घाट, घट घाटी = अटपटा मार्ग । दुर्गम भागं । औचित्य-सज्ञा पुं० [सं०] उचित का भाव । उपयुक्तता। उ०— शिश , उ०--बकनाल की घट घाटी, तहाँ न पग ठहराई --- विपक्षी की प्रतिकूलता ही हर पक्ष को औचित्य की सीमा कवीर० श०, पृ० ७८ । । के वाहर नहीं जाने देती ।--द्विवेदी (शब्द॰) । घड़-सज्ञा पुं० [सं० अघोर = भयानक, शिव] [स्त्री० पौघडिन] अळ-सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] दारुहल्दी की जह। १. अघोर मत का पुरुप | अघोरी । २ काम में सोचविचार अछको -वि०सि० अवचकित हि० प्रचिफ + ई (प्रत्य॰)[चका न करनेवाला मनमौजी । ३ बुरा शकुन । अपशकुन (गी। हुई । उ०-छकी सी घुमति कछु प्रौछकी सी बात करे । की बोली) ।४ अविवेकी । विवेकरहित व्यक्ति । –गग०, १० ५२ ।