पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१९१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

प्रोस्टक ७०५ ओह यौ०–ोष्ठोपमफल, ओठोपमफली, ओष्ठफली, ओप्ठभ= श्रोसरा- सज्ञा पुं० [सं० अवसर, प्रा० ओसर] १ बरी । दाँव । विवाफले । कुदरू । उ०—तो एक दिवस यी वैष्णव को ग्रोवरा अायो । -दो प्रोष्ठक-वि० [सं०] ग्रौठों की रक्षा करनेवा: (को०] । सौ बावन०, पृ० ६ । २ दुध दुहने का समय । औष्ठक-ज्ञा पुं॰ [स०] ग्रोठ ०१ ।। सरिया -सुज्ञा स्त्री० [सं० उपसर्या] वह भैस जो गर्भ धारण ओप्ठोकोप, प्ठप्रकोप–मुज्ञा पुं० [सं०] ओठ पर होनेवाला | करने योग्य हो चुकी है, परतु अभी गाभिन न हुई हो। एक रोग [को०] । जवान । विना व्याई भैस । श्रोष्ठजाह- ज्ञा पुं० [सं०] ग्रोठ का मूल या जड़ झिौ] । श्रसरिया-सुज्ञा स्त्री० [अ० उपशालिका, देश प्रोसरिया] ६० गोष्ठपल्लव--संज्ञा पुं० [सं०] कोमल मोठ (०) । 'सार' । । प्रोष्ठपाक-सज्ञा पुं० [सं०] सर्दी के कारण अॐि का फटना [को०]। प्रोसरी--सज्ञा स्त्री० [स० असर पारी । दारी । देव । उ०— ग्रोप्ठपुट-सज्ञा पु० [सं०] अोठो को खोलते समय वन्नेवाला अवकै हुमारी निज भाग ते विधि ने दई ।-१६।कर | गड्ढr ]ि । ग्र०, पृ० १८ ! गोष्टपुष्प-ज्ञा पुं० [३०] बंधूके नामक वृक्ष [को०)। श्रोसाईं--सज्ञा स्त्री॰ [हिं० प्रोताना] १ माने का काम। दायें प्रोष्ठरोग--संज्ञा पुं० [1०1 मठ से सवधित कोई भी बीमारी (को०] । हुए नल्ले वो हवा में उड़ाने का काम, जिससे भूना और अन्न ग्रोष्ठी संज्ञा स्त्री० [न०]१ वि वाफल । ॐ दह। २ कुदी लता। अलग हो जाता है । ३ साने के काम की मंजूरी। श्रव्य-वि० [सं०] १ आठ नववी । २ जिसका उच्चारणे असा - संज्ञा पुं० [हिं० श्रोसता] अोमाने का काम प्रसाई । अjठ से हो । आसान-सज्ञा पुं॰ [स० अवसान, प्रा० नाण] ३० अवसान' । यौ० - ठचवणं ।। साना--क्रि०स०[स० अविर्पण प्रा० अवस्सन अयधा उस्सारण स० अप्ठ्यबर्ण-सुज्ञा पु०सं०] वर्ण जिनके उच्चारण में प्रोठ १. सहा उस्सारण प्रा० असारण] द ये ए गल्ले में है। मै उडाना, यता लेनी पड़ती है। यथा, उ, ऊ, ए, फ, व, भ, र म । जिससे दोनों अौर भूसा अलग अ नग हो जाय । वरमाना । ओष्ण-वि० [३०] ईपत् उष्णु । कुनकुना । वोडा गरम (को॰] । हाली देना। श्रोस--संज्ञा स्त्री० [च० अदइयाय, पा० उत्साव, प्रा० उम्सा) हृवा में मुहा०-- अपनी ओसाना = इतनी अधिक बातें करना कि दूसरे मिली हुई मपि जो रात | सर्दी में जमकर और जनविदु के । को बात करने का समय ही न मिले । दातों की झड़ी बांधना। रूप में हुवा से अलग होकर पदाथों पर लग जाती है । शीत । जैसे--तुम तो अपनी ही माते हो, दूसरे की सुनते ही शबनम । उ०—ग्रोस व सद कोई कहे असू है न कोय । नहीं । किसी को प्रोसना = किसी को खूब फटकारना । मोहि विरहिन के सोग में रैन रही है रोय }--कविता कौ०, | ग्रोसार'--सम्रा पु० [३० अवसर = फैलाव) फेनवि । विस्तार । मा० ४, पृ० ५७६ 1 | चौड़ाई ! अवकाश । विशेप-जव पदार्थों की गर्मी निकलने लगती है, तब वे तया असार-वि० चौड़ा । उनके ग्रासपास की हवा बहुत ही ठडी हो जाती है। उसी से प्रोस की वै दें ऐसी ही वस्तुअ पर ऑघक देखी जाती हैं जिनमें ओसार-सद्मा पु० [सं० उपशाल ! २० ओसारा' । गर्मी निकालने की शक्ति अधिक है और धारण करने की प्रोसा--- सुज्ञा पुं० [सं० उपशाला या देशी श्रोसार= गौबाडा कम, जैसे घास । इसी कारण ऐसी रात को सोस कम पड़ेगी [स्त्री० अल्पा० श्रोसरी]१ दालनि । बरामदा । उ० -राति जिसमें बादल न ग और हुवा तेज न चनती होगी । असारे में सोय रही कहि जाति न एती ममानि सताई ।-- अधिक सरदी पाकर अन ही पाला हो जाती है। रघुनाथ (शब्द०) २ ओनारे की छाजन । सायवान। उ०मुहा०—ोस चाटने से प्यास न बुझना= थोडी सामग्री से वडो छलनी हुई अटारी कोठा निदान टपका । बाकी था एक मारा अविश्मकता की पूति न होना। ३०---अजी से चाटने से सो वह भी ग्रीन टपका !- कविता कौ०, न ० ४, पृ० ३१५। कहीं प्यास बुझी है ।--प्रेमघन॰, भा॰ २, पृ० ४६ । ओत क्रि० प्र०—लगाना । लटकाना ।। ना। वैरान हो जाना। सीसा- संज्ञा पुं॰ [स० उत्+शीपंक या उष्णौश) दे० 'उससा' । (२) मग बुझ जाना । (३) लज्जित होना । शरमाना । असुर--संज्ञा पुं० [सं० सुर]दे० 'असुर । ई०---तुज या गुहवल ओस का मोती= शन्न नाशवान । जल्दी मिटनेवाला । उ० खाय तापा भभक ग्रोनुर भागिया |--रघु० ०, पृ० १२६ । जात दुक दिन में । मोह-अव्य॰ [स० अहह] १ आश्चर्यसूचक शब्द । २. दुखसुचक कदीर (शब्द॰) । शब्द। ३ वपरवाई का सूचक शब्द।। असर'-सुज्ञा पुं० [० अवसर, प्रा० असर]नमय । मौका। अवसर । ओह–सर्व० [हिं०] दे० 'वह' । उ०—(क) यम का उँगा है वर च०-~-कहून स्याम सदेश एक मैं तुम १ प्रायो, कहन समय हि नहि चहिया जइ ।-कबीर ग्र०, पृ० २५६ । () चुकेत कहू ओसर नहिं पायौ, --नद० ग्र० पृ० १७३ । काय होडी काठ की ना अोह चढ़े बहोदि।-कवीर ने ०, प्रोसर–सच्चा सौ॰ [हिं॰] दे॰ 'मोसरिया । पु० १२१ ।