पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/९५

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अंत्याश्रमी' अत्याश्रमी'--वि० [सं० अन्त्याश्रमिन् ] अतिम आश्रम में स्थित । अदरसा--सच्चा पुं० दे० 'मॅदरसा' । उ०---लौंग कपूर खाँदधृत सन्यास आश्रमवाला [को०] ।। | घरे । पदरसे खटमिठे सिधारे --सूर० परि० १, पृ० ५० । अत्याश्रमी’--सज्ञा पुं० अतिम प्राश्रम की व्यक्ति । सन्यासी [को०]। अदरी--वि० [फा०, अन्दर + हि० ई ] भीतरी अदरूनी । । अत्याहुति--सज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्याहुति ] यज्ञ या चितो की अतिम अदरूनी--वि० [फा० श्रदरूनी | भीतरी । भीतर का। अभ्यतरिक । अहुति [को० ]] अदलीव--सच्चा स्त्री० [अ० ] बुलबुल । उ०--पूछे है फूलो फल की यौ०-अत्याहुति क्रिया = अत्येष्टि कर्म ।। खबर अब तो अग्लीव । टूटे झडे खिजी हुए फूले फले गए |-- अत्येष्टि--सा पुं० [सं० अन्त्येष्टि ] मृतक का शवदाह से सपिंडन तक क० फौ०, मा० ४, पृ० १०६ । कर्म । क्रिया कर्म । अत्यक्रिया । उ०——प्रतिम समय में यमुना अंदाज--सा पुं० [फा० अंदाज] १ अटकल । अनुमान । उ०----गुप्त और घटी रूप सौभाग्य देवयाँ विजय की प्रत्येष्टि का प्रवध जी एक युग पहले का मध्यवर्गीय सतोप हमें सिखाते हैं, उन्हें करती है ।—ककाल, पृ० १०५ आज की आग को अदाज नही है।--जय० प्र०, पृ० ८। २. यौ०----अत्येष्टि क्रिया = मृतक का शवदाह अादि कर्म । अत्येप्टि। कनि । नापजोख । कूत । तस्मीना। ३ ढब । ढग । तौर । उ०—महादेवी की अत्येष्टि क्रिया रजिसमान से होनी चाहिए । तर्ज । उ०--इस्से यह बात नहीं निकलती कि विलकुल मेहनत --स्कंद०, पृ० ११५। न करो सब काम अदाज सिर करने चाहिए। --श्रीनिवास अन्नधमि--ससा फ्री० [सं० अन्वन्धमि] अजीर्ण । अपच । पेट का फूलना। ग्र०, पृ० १८५ । | वायु के कारण पेट का फूलना [को०]। क्रि० प्र०-—करना । ---लगाना । --होना । अत्र--संज्ञा पुं० [सं० अन्त्र ] अति। अंतडी । रोधा। मुहा०—-अदाज उड़ाना = दूसरे की चाल ढाल पकडना । पूरी पुरी अत्र’ --सपी १०, कही कहीं अतर का अपभ्रश । जमे 'अत्र ध्यान नकल करना । में 'अन' । ४ मटक । भाव नाज। चेप्टो । ठसक ३०–अदाज अना अंन्नकूज-सज्ञा पुं० [सं० अन्त्रकूज | दे० 'अन्नकूजन' [को० ]। देखते हैं आइने मे वोह । अर ये भी देखते हैं कोई देखता न अन्नकूजन--सधा पु० सं० अन्त्रकूजन] अाँतो का शब्द । अॅतडियो की हो ।--शेर०, भा० १, पृ० ६०६ । । गुडगुडाहट अंतडियो की फुटकुडाहट । अदाजन--क्रि० वि० [फा० अंदाज + ऋ० अन् (प्रत्य०)] १ प्रदान अन्नध्यान--संवा पुं० दे० 'अतधन' । उ०—-इम कहिय ईस हुन्न से । अटकल से । तखमीनन २ लगभग । करीव। अन्नध्यान, जग्गय राज भौ वर विहान ।--पृ० ० ६६।१६६६ । अदाजपट्टी---सn पुं० [फा० अइज +f० पट्टी (भूभाग) ] खेत में अन्नपाचक-- सद्या पु० [सं० अन्त्रपाचह ] एक औषधोपयोगी क्षुप जिसके | लगी हुई फसल के मूरय कृतना । कनकूत ।। छाल, सार और नियम का प्रयोग होता है [को० ]। अंदाजपीटी--सा स्त्री॰ [फा० अदाज + हिं० पिटना (हैरान होना) अवल्लिका--सज्ञा स्त्री० [सं० अन्न्नमल्लिका ] महिषवल्ली [को० ]। वह स्त्री जो अपने वनाव सिंगार में लगी रहे । अपनी सुदरता अक्षवल्ली-सच्चा स्त्री० [सं० अन्त्रवल्ली ] सोमवल्ली लता [को० ] और चालढाल पर इतरानेवाली स्त्री। अन्नविकूजन--सा पुं० [सं० अन्त्रविकूजन ] दे० 'अन्नकूजन' [को०]] अंदाजो---संज्ञा पुं॰ [फा० अदाज़ ] १ अटकल । अनुमान । २ कूत। अत्रवृद्धि---संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्रवृद्धि ]त उतरने का रोग । अति का नापजोख । परिमाण तखमीना । उ०—-उपनिषद मे तो उतरकर अडकोश में चले जाना। ब्रह्मानंद के सुख के परिमाण का अंदाजा कराने के लिये उसे अन्नस्रज-संझा स्त्री० [सं० अन्तस्रज् ] तो की माला, जो नरसिंह ने । सहवास सुख से सगुना में ही था ।—-इतिहास, पृ० ११ । धारण की थी [को० ]। अदिका--संक्षा स्त्री० [सं० अन्दिफा ] १ बड़ी बहन। अतिको । २ अत्राडवृद्धि–सधा स्त्री० [सं० अन्त्राण्डवृद्धि] एक रोग जिसमे प्रति अँगीठी । बोरसी [को०]। उतरकर अंडकोश में चली आती है और फोता फूल जाता है। | अदु-संज्ञा पुं० [सं० भन्दु] १ पैर मे पहनने का स्क्ष्यिों को एक अन्नाद--सधा पुं० [सं० अन्त्राद] अति का कीडा। अँतडियों में रहकर गहना। पाजेब । पैरी। पैजना । २ साँकडा। हाथी को बाँधने उसे खानेवाला कृमि [को०]। की सकिल । अलान । उ--छटे अदु इस्ती मदजा जरीन । अन्नालजी---सज्ञा स्त्री॰ [ स० अन्त्रालजी ] पीव से भरी एक प्रकार की --पृ० ०, १२३२१ । ३ बाँधने की रस्सी या जजीर । ३ ऊँची गोल फुसी जो वैद्यक के अनुसार कफ और वात के प्रकोप अंदुक-सच्चा पुं० [ स० भन्दुक ] दे॰ 'अदु । से होती है । | अद. अदू-संक्षा पुं० ( स० अन्टू ] वेडी । निगड । उ०---( ० ) विरदाअत्रि---सा स्त्री॰ [ स० अन्न्न ] घेतडी । अति । वलि विरदाई पाय प्रदू कर ढीले । तामस बुझधन काज बोलि अली १--सज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्री ] एक वनौषपि का नाम । उदरशूल या मधु वचन रसीले |--१० रा०, ६६।१६२८ । ( ख ) क्रीडा पेट की वाई में दी जानेवाली औपघि का पौधा । समदू गज्ज अदू ग्राह फटू रच्चए । --राम० घर्म०, पृ० २६ । अती–सच्चा ली० दे० 'अति' । अदूक-सट्टा पुं० [ स० अन्दूक ] दे० 'अटू' [को०]। अथवना अदेश'-संवा पुं० [फा० अदेशह.] सोच। चिता । फिक्र । उ०—सिय -क्रि० प्र० दे० 'अयवना' । उ०—–ज पच्छिम दिसि उय अदेश जानि प्रभु सूरज लियो करज की ओर। टूदत घनु नृप पुत्र प्रयवं दिनकर पु० ० ६११००६ । लुके जहाँ तहँ यो तारागन भोर |-- (शब्द॰) ।