पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/९२

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मतविदारण 'अंतस्सार अतविदारण--सहा पुं० [सं० अन्तविदारण] सूर्य और चंद्रग्रहण के कामप्यती, पृ० १४० । २. मन का भीतरी तल या भीतरी तह । जो दस प्रकार के मोक्षमाने गए हैं उनमे से एक । उ०—पर जो हृदय के अतस्तल पर मार्मिक प्रभाव चाहते है, विशेप--इसमे चंद्रमा के दिन के चारी अोर निर्मलता और मध्ये किसी भाव की स्वच्छ निर्मल धारा में कुछ देर अपना मन मन में गहरी श्यामता होती है। इससे मध्य देश की हानि और रखना चाहते है, उनका सतोप विहारी से नही हो सकता।-- शरद् ऋतु (दृार) की खेती का विनाश वराहमिहिर ने इतिहास, पृ० २५१ । | माना है। अतस्ताप--संज्ञा पुं० [सं० अन्तस्ताप] मानसिक व्यथा । प्राधि। चित्त का अतवेला--सच्ची स्त्री० [सं० अन्तवेला] अतकन्न । अत समय [को०] ।। सतप । श्रातरिक दु ख । भीतरी खेद । उ०—असुरों के घोता अतव्याप्ति--संज्ञा स्त्री० [अन्तव्याप्ति] किसी ॥ धद के अतिम प्रकार पद सागर निज मर्यादा छोड । अतस्ताप दग्ध वडवा सा करता | का परिवर्तन, जैसे---मि' का मप' ।को०] । करणिम क्रोड |--पार्वती, पृ० १०१ ।। अतशय्या--सा स्त्री० [सं० अन्तशय्या] १ भणिया । २ मृत्यु- अतस्तुषार--सज्ञा पुं० [सः अन्तस्तुषार अोस की बूंद से युक्त [को०] | शय्या। मरनमेज । मरनखाट । ३ मश न । मसान' । मरघट अतस्तोय–वि० [सं० अन्तस्तोय] जल से भरा हुआ (बादल) [को०] । ४ मरण । मृत्यु । ५ चिंता (को०। अतस्त्य-सज्ञा पुं० [सं० अन्तस्त्य } प्रत । अँतड। [को०)। अतश---‘अतर' वि० [म ब्द का कुछ स्थितियों में परिवर्तित रूप। अंतस्थ-वि० [ सं० अन्तस्य ] १ भीतर स्थित । भीतरी । २ बीच अत"चेतन --संज्ञा पुं० [म अन्तस् + खेसन) मन का वह भाग में स्थित ) मध्य का मध्यवर्ती । वीचवालो । ३ ‘य, र, ल, व' (मुच्यत दबी हुई इच्छ शो श्रादि से युक्त) जो वाह्य अनु .ये चारो वर्ण अतस्थ कहलाते हैं क्योकि इनका स्थान स्पर्श और भृति में न आ नः । ०---जब से चेतन गर्न विज्ञान से धागे ऊष्म वर्षों के बीच में हैं। वटकर उपचेतन श्रौर अत'चेतन मनाविज्ञान की शोध हुई है, अतस्थ’--सदा पु० पण और ऊष्म वर्ण के बीच रहनेवाले 'य, र, ल, तब से नाहित्यिको के लिये नई कृतियाँ प्रस्तुत करने का बहुत व' वर्ण । वडा क्षेत्र खुल गया है!--न० सा० ३० प्र०, १०, १८ । अतस्थल--सज्ञा १०, [सं० अन्तस्थल] अतकरण । उ०----आज उन्होने अतश्चेतन’--वि० अात्म चेतना या दिय प्रेरणा से युक्त । उ०-ॐवं विवेक के प्रकाश में अपने अनस्थल को देखा ---काया , | मुक्त, अतश्चेतन बन जाना जन मन ।---रन्त शि०, १० ७ ० । पृ० १६६ । अतश्चेतना--सुझा मी० [सं० अन्तस् + चेतना] अतश्चेतन की अनु- अतस्था--सा पुं० [ मै० अन्तस्था ] दे॰ अतस्थ'। भूति । श्रामचेतना। दिव्य प्रेरणा । उ०- रजत शिखर अतस्थित--वि० [ म० अन्तस् + स्थित ] १ भीतर स्थित । भीतरी । मनुष्य की अतश्चेतना का शुभ्र प्रतीक है ।-रजत शि०, (भू०) २ हृदयस्थित । हृदय को । चित्त के भीतर का । अत करण का। पृ० ३ ।। अतस्नान--सज्ञा पुं० [ मं• अन्तस्नान ] अवभूथ स्नान । वह स्नान जो अतश्छद-~-सच्चा मुं० [सं० अन्तस् + द] " भीतरी तल । २ भीतरी | यज्ञ समाप्त होने पर किया जाता है। आच्छादन । ३ मिहब के नीचे का हल । अतस्सज्ञा--सा स्त्री० [सं० अन्तस् + सज्ञा ! मन या बुद्धि की वह अतपिच्छद्र--संज्ञा पु० [सं० अन्तच्छिद्र भीतरी छेद या अदरूनी क्रिया जो अभी तव. प्रत्यक्ष अनुभव में स्पष्ट न हुई हो । उ०—| सूराख [को॰] । उदय से अस्त तक भावमडल का कुछ भाग ता अधय की अंतच्छिन--वि० [सं० अन्तश्च्छिन्न] भीतर कटा हुआ (को०]। चेतना के प्रकाश ( कशिस ) में रहता है और कुछ अतस्'--सहा पुं० [सं० अन्ततु] अत करण । मन। हृदय । चित्त। अतस्सजा के क्षेत्र ( सव काशस रोजन = अवचेतन ) में छिपा मानस। उ०—-( क ) तुही मानव देव दान सिधान । तुही रहता है --रस०, पृ॰ ६५।। बोटि ब्रह्मादि अतसे समान ।---१० रा०, २ । २०५। ( ख ) अतसत्तासता स्त्री॰ [सं० अन्तस् + सत्ता] अतरिक सुत्त । अत - छाया फी न छाया यह केवल तुम्हारी, द्रुम । अतस् के मर्म का करण । चेतना। उ०—हमारी अतस्सत्ता की यही तदाकार परिणति सौंदर्य की अनुभूति है ।--रस०, पृ० २६ ।। प्रकार यह छाया है।---रस०, पृ० १६ ।। अतस्सलिल-वि० [सं० अन्तस्सलिल ] [ स्त्री० अन्त सलिला ] अतस्--वि० ‘अतर' शव्दक | समासगत रूप, जैम, अतस्तल, अतस्तप्न। जिसके जल का प्रवाह बाहर न दिखाई पडे, भीतर हो । प्रादि है । उ०-- अस्सलिला सरम्वती ( शब्द )। अतसश्लेप सच्चा पुं० [सं० अन्त तश्लेप] सधि । जाड [को०]। अतस्सलिला--संज्ञा स्त्री० [सं० अतस्सलिला ] १ सरस्वती नदी । अतसस्त्रिया-मुंहा स्त्री० [सं० इन्तसक्रिया ] अतिम सत्कार अंतिम २ फल्गू नदी । सस्कार [को०] । अतस्साधना--सच्चा स्त्री० [सं० अन्तस् + साधना] प्रातरिक साधना । अतस-सज्ञा पुं० [सं० प्रन्तसद्] शिष्य । चेला गुप्त साधना । उ०—-हुदयपक्षशून्य सामान्य अवस्साधना का अतसमय--म। पुं० [स०अन्तसमय] मृत्युकाल । मरणकाल।। मार्ग निकालने का प्रयत्न नाथपथी कर चुके थे, यह हम कह चके अतस्तप्त--वि॰ [ स० अन्तस्तप्त ] १ भीतर भीतर तपा हुआ। हैं ।---इतिहास, पृ० ६४ । २ खिन्न। सतप्त [को०] । अतस्सार--सधा पुं० [सं० अन्तस्सार 1१ प्रातरिक मार । तत्वे । अंतस्तल---संज्ञा पुं० [४० अन्तस् + तल] १ मन हदय । चित्त । २. ठोसपन । ३ मन, बुद्धि और अहंकार का योग । ४ उ०--उठती अतस्तल से सदैव दुर्ललित लालसा जो कि कात ।--- अतरात्मा (को॰] ।