पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/८८

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प्रतगर्भ ६७ अंतर्दै ष्टि अतर्गति ।--तुलसी (शब्द॰) । (ख) 'श्र पार्वती जी ने कपः अतर्जीवी सुं० [ मुं० अन्तजवी ] अतरिक जीवनवाला । जिसकी वृत्ति की अंतर्गति जानि उसे अति हित से निकट बुलाये प्यार कर प्रातरिक हो । विचारप्रधान । उ०——ाज मुझे हैं महत्प्रेरणा ममझाय के कहा' ।—प्रेम सागर (शब्द०)। मिली 'मनुज अतर्जीवी है ।-रजत शि०, पृ० ७०। अतर्गर्भ-वि० [सं० अन्तर्गर्भ ] गर्भयुक्त (को०] । अतज्ञन--संक्षा पुं० [ स्व० अन्तर्ज्ञान]। १. अत करण की बात की अतर्गा घार-- मी पुं० [सं० अन्तर्गन्धार ] संगीत में तीसरे रबर के | जानना । दूसरे के दिल की बात जानना। परीक्षदर्षन । २. अर्गत एक विकृत स्वर जो प्रमारिणी नामक श्रुति से प्रारंभ परिज्ञान । अत करण का अनुभव । अतधि । होता है और जिसमे चार श्रुतियाँ होती हैं। श्रतज्योति--सज्ञा स्त्री० [सं० अन्तयतिस् ] अतर्यामी । परमेश्वर अतगृह-सया पुं० [सं० अन्तगू है] भीतर का घर । भीतर की कोठरी । अतज्यति’--वि० जिसकी अात्मा प्रकाशित हो । [ क}० ] घर का भीतरों खड। अतज्वलन--संज्ञा पुं० [सं० अन्तज्वलन ] भीतरी ताप। अभ्यतर अतर्ग हगता--सच्चा स्त्री० [सं० अन्तर्गह+गता 1 मक्तिमार्ग मे ठाकुर जी को कामबुद्धि से मजनेवाली मेविका। उ०—'और लीला अतज्वला--सल्ला स्त्री० [सं० अन्तज्वला ] १ भीतरी भाग । भीतर की के भाव मे हू देखें तो प्रम की इच्छा होइ तब अनगृहगतान के अग्नि । २ चिता । सताप [को०]। साथ प्रभु रमन करत हैं ---दो सौ वावन०, भा० १, पृ० ४४६। अतर्दग्ध--निः [सं० अन्तर्दग्ध ] भीतर भीतर जला हुआ। [को०]। अतंगे ही--संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतगृह + ई (प्र०) ] तीर्थस्थान के भीतर अतदधन -संज्ञा पुं॰ [सं० अन्तर्दधन | शरद चुआन का | पडनेवाले प्रधान स्थलों की यात्रा । । स्थिति [को० ]। अतर्गह-मज्ञा पुं० [सं० अन्तर्गंह ] घर या मकान का भीतरी अंतर्दधान--वि० [सं० अन्तधन | गुप्त । छिपा हुआ। Jषो०]। | बुड [फो०] । अतर्दर्शक--वि० [सं० अन्तर्दर्शक] दे० 'अतर्दशी'। उ०----पहले प्रकार अतर्घट---सबा पुं० [सं० अन्तर्घट ] शरीर के भीतर का भाग । अत - के मनुष्य को हम मननशील कहते हैं और दूसरे प्रकार के । करण । हृदय । मन । मनुष्य को अतर्दक कहते हैं। -पा० सी० सि०, पृ० १८६ ।। अतर्घन--सञ्ज्ञा पुं० [सं० अन्तर्घन ] मुख्य द्वार मीर घर के बीच का अंत अतर्दशा--सच्चा स्त्री० [सं० अन्तर्दशा ] १. फलित ज्योतिष के अनुसार | स्थान (को० ।। मनुष्य के जीवन में जो ग्रहो के भोगकाल नियत है उन्हें दशा अतघात–सच्चा मुं० [ में• अन्तर्घात ] दे० 'अन्तर्घन' [को०] । कहते है । मनुष्य की पूरी प्रायु १२० वर्ष की मानी गई है। अतर्ज--वि० [सं० अन्तर्ज ] अतर या 'मीतर उत्पन्न ( जैसे, शरीर इस १२० वध के पूरे समय में प्रत्येक ग्रह के भोग के लिये वर्षों | में कीड ) [को०)। की अलग अलग सख्या नियत है जिसे महादशा कहते हैं, जैसे सूर्य अतर्जगत्--सा पुं० [सं० अन्तर्जगत् ] अतस्तल । भीतरी जगत् । मन की महादशा ६ वर्ष, चंद्रमा की १० वर्ष इत्यादि। अब इस प्रत्येक ग्रह के नियत भोगकाल व महादशा के अतर्गत भी का संसार । उ०— अधबार का लोक से, असत् का सत् से, जड का वेतन से, और वाह्य जगत् की अंतर्जगत् से सबध कोन नवग्रहो के भोगकाल नियत हैं जिन्हें अतदशी कहते हैं । जैसे कराती है ? कविता ही न ?--स्कद०, पृ० २१ । सूर्य के ६ वर्ष में सूर्य का भोगकाल ३ महीने १६ दिन और अतर्जठर-सच्चा पुं० [सं० अन्तर्जठर] कोख । पेट [को॰] । चद्रमा को ६ महीने इत्यादि । कोई कोई अष्टोत्तरी गणना अतर्जलन--संज्ञा पुं० [सं० अन्तर् + हिं० जलन ] भीतरी जलन । अत के अनुसार अर्थात् १०८ वर्ष की आय मानकर चलते हैं। | दहि । उ०--जानती अतर्जलन क्या कर नहीं, दाह से आराध्य २ मन स्थिति । चित्त की वृत्ति। उ०—अनेक भाव तथा अतभी सुदर नही --रेणुको, पृ० १०० । दशाएँ उसके संचारी के रूप में आती हैं --रस०, पृ० ६५ । अतर्जात---वि० [ सं० अन्तर्जात ] भीतर उत्पन्न । ७०--'वला अतर्दशाह--सहा पुं० [सं० अन्तर्दशाह ] मरने के पीछे दस दिन तक उच्चता की अतर्जात प्रवृत्ति की शोधिका है' 1--पा० सा० मृतक की आत्मा वायु रूप में रहती है और प्रेत कहलाती है। | सि०, पृ० ६७ । इन दस दिनों के भीतर हिंदू शास्त्र के अनुसार जो कर्मकांड किए अतर्जातीय--वि० [सं० अन्तर् + हिं० जातीय ] भिन्न वण अथवा जाते हैं उन्हें अनदशाह कह्ते है । जातियो सब धी। दो या दो से अधिक जातियों के बीच की। अतर्दशी--वि० [सं० अन्तर्दश ] १. अतःकरण की वृत्ति समझनेवाला। उ०--‘इन सब कथनों से सिद्ध होता है कि अतजातीय व्याह मन के भाव जाननेवाला । दिल की बात जाननेवाला । २. अन घय होते थे' ।--हिदु० सभ्यता, पृ० १५६ ।। प्रमनिरीक्षक। तत्ववेता । ३ भीतर देखने या परखने घाला [को० ]} अतर्जानी -वि० दे० 'अतरजानी । उ०---ए में समर्थ हो तजनिी | अतर्दाह----सी पुं० [सं० अन्तर्बाह ] १. अतरिक दु ख । मानसिक सत्य कहो हम निश्चय मानी ।--१ बीर सा०, पृ० २२३ । वेदना । उ०—अंतहि स्नेह का तव भी होता था उस मन में । अतर्जान--वि० [ सं० अन्तर्जान ] हाथो को घुटने के बीच किए हुए । --कामायनी, पृ० ११६ । २. एक प्रकार का सन्निपात |-- अतर्जामी--वि० दे० 'अतरजामी' ।। माधव, पृ० २०। । अतर्जीवन-सक्षा पुं० [सं० अन्तर्जीवन ] प्रातरिक जीवन । वौद्धिक अंतर्दृष्टि---सा स्त्री० [सं० अन्तष्टि ] १. ज्ञानचक्षु । प्रज्ञा । हिए की या वैचारिक जीवन । उ०—अतर्जीवन सत्य कर दिया तुमने अखि । उ०—विना नवीन अभ्यास और अत' प्टि के साहिज्योतित ।---स्वर्ण, पृ० ६९। त्यिक कृतियों का अनुशलत करना, प्रति दिन फठिन होता