पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/८५

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१४ . अतरपुरुप अतरहित अतरपुरुष--संज्ञा पुं० [सं० अन्तरपुरुष ] १ अत्मा । २ परमात्मा । अतरमुखए- वि० [सं० अन्तर्म ख] भीतर की अोर उन्मूख । अतर्यामी । परमेश्वर ।। अतरिक ध्यानयुक्त । उ०• बरनै दीनदयाल मिलै नहि ब हर अंतरपूरुपमा सं० [सं० अन्तरपूरब ] दे॰ 'अतर रुप' । टेरे। अत रमुख हैं दढ सुगंध सबै घट तेरे ।-दी न० प्र०, अतरप्रकाश--मझा पु [पुं० अन्त प्रकाश ] भीतरी प्रकाश । अत्मज्ञान । ः २३०। । उ०—'यह भी विना अनुरप्रकाश के जाना नहीं जा सकता कि अतरय--सज्ञा पू० [सं० अन्तरय) दे० 'प्रतराय' [को०]। भोगनेवाला कौन है और मैं कौन हूँ !-- वीर सा०, १० ६७१।। अतरयण--संज्ञा पुं० [सं० अन्तरयण] अयन [माग] के सान्निध्य में अतरप्रतीहार--- सझा पुं० [सं० अन्तरप्रतीहार ] राजप्रासाद के सूर्य की रिथति का काल । उ॰--सूत्र 'अयनञ्च' में अतरयण भीतर आने जाने वाले प्रतीहार। अभ्यतर परिजन [ हपं०] । का उल्लेख हैं ।-पाणिनि ०, पृ० १७८} अतरप्रभव--सवा पु० [सं० अन्तरप्रभब ] जो दो भिन्न भिन्न बण । | अतरयन-सज्ञा पु० दे० 'अतरयण' । उ०—-अयनशि के बीच के देशों के माता पिता में उत्पन्न हो। वर्ण से कर। के लिये पाणिनि ने ‘अतरयन' शब्द का प्रयोग किया है ।-- अतरप्रश्न---मधा पुं० [ स० अन्तरप्रश्न ] वह प्रश्न जो पूर्व वणत प्रमग । पाणिनि०, पृ० ४१ । । में निहित हो [को०]। अतररति-- सज्ञा रसी० [स० अन्तर्+रति] संभोग के सात प्रसन, अतरप्रांतीय-[सं० अन्तर + प्रान्तीय ] दे॰ 'अन्तरप्रादेशिक' ।। यथास्थिति, तिर्यक, समुख, विमुख, अध, ऊध्र्व और उत्ताने । अतरप्रदशिक---वि० [ से अन्तरप्रादेशिक ] १. जिसका सबध । अंतरराष्ट्रीय–वि दे० 'सावरप्ट्रीय' । ६०-'हिंदुस्तानी उस अतरअपने प्रदेश या प्रोन से हो। अपने प्रात मै होनेवाला । जैसे, अतरप्रादेशिक अपराध । २ देश या राष्ट्र के सभी प्रदेशो या राष्ट्रीय सेना से मिलकर लड़ रहे हैं जिसने मैड्रिड की रक्षा खुवी के साथ की है।'--'अाज', १९३९। राज्यो मे सबध रखनेवाला। अतरर्वातनि, अन्तरर्वातनी--वि० [स०अन्तर्वतिन्] मध्यस्थ । बीच अतरवरन--सक्ष पु० [ सं• अन्तर+वर्ण ] बीच के अक्षर । उ०-या की । उ०—तिय पिये की हितारिनी अतरवतित ह ई - कवित्त अनरवरन लै तुकन ६ छडि |--भिखारी ग्र०, भा० १, भिखारी० ग्र०, मा० १, पृ० ३३ । पृ० १६।। अतरवासक--सज्ञा पुं० [सं० अरन्तवसिफ] कपडे के नीचे पहना जाने अतरवल-- सज्ञा पुं॰ [सं० अन्तर+वल ] भीतरी शक्ति । अतिरिक वाला व पडा । म तरी बन्न । अंतरीटा। इe--ग्रेवपली ने चल । ०--रथ विभजि हति केतु पताका । गरजा अति अतर तीन डुबकियाँ लगाई, महीन अतरवासनः उसके स्वर्णगाने से बन थाका !-—मानस, ६ । ६१ ।। चिपक गया |--३० न०, पृ० ४ । अतरवाधा- संज्ञा स्त्री० [ • अन्तर+बाधा ] मानसिक कष्ट । छ:--- अतरविश्वविद्यालय--वि० [सं० अन्तर 4- हि० विश्वविद्यालय (अ० खेलौ जाइ म्याम मग राधा । यह सुनि कूवरि हरप मन इटर युनिवसिटी) एकाधिक विश्वविद्यालयों से सबध रखनेकीनी मिटि गई अतरवाधा ।—सूर०, १० । ७०५। वाला। उ०-.-'इस साल अतर विश्वविद्य लय फुटबाल टूनट अतरवानी--सझ स्त्री० [सं० अन्तर्वाणी ] अंतर की वाणी । आत्मा काशी में हुआ ।'--'अाज', १९५१ । | की अावाज । उ०—सुनु हिरदे यह अतरबानी |–रत्न०, पृ० ७ । अतरशायी--सज्ञा प ० [सं० अन्तरशायी] अनरस्थ जीव। जीवात्मा । अतरवास (५ --सेच पुं० [ सe अन्त + वास ] अत पुर। निवास । अतरसचारी-- संज्ञा पुं॰ [स० अन्तरसचारो। वे अस्थिर मनोविवार उ०--दुरग चीतोट पहुँचो राइ। अतरवासई गम क्यिौ ।---- जो बीच बीच में अाकर मनग्य के हृदय के प्रधान र स्थिर वसन० रा०, पृ० ११२ । (स्थायी) मनोविकारों में से किसी की सहायता वा पुष्टि अतरवासी-- वि० [सं० तर् + वीसी) भीतर रहनेवाला। उ०-उर करके रस की सिद्धि करते हैं। इसे केवल सचारी भी कहते गाना उर अतरवासी । जाका नाम कहे अविनासी ।---रत्न, हैं । [अतर' शब्द इस कारण भी लगाया गया कि विसी पृ० १६५ ।। किसी ने अनुभव के अतर्गत सात्विक भाव को तनसवारी अतरवेद--सज्ञा पुं० [सं० अन्तर्वेद] दे॰ 'अतवेद' ।। लिखा है । ये ३३ माने गए हैं। ६० 'सचारी। - अतरभोव--संज्ञा पुं॰ [स० प्रन्तिर -+ भाव भावतिर। भिन्न भाव। अतरसाखी-सज्ञा स्त्री॰ [ सं ० अन्त साक्षी 1 अत साक्ष्य । गुप्त उ०- छु पुनि अतरभाव ते कही नायिका जाहि ।-भिखारी गवाही । साक्षः । उ०—-सीता प्रथम अनल महु राखी । प्रगट ग्र०, ० १, पृ० १६ ।। कीन्हि चह अतरसाखी ।---मानस, ६१०७ ।। अतरभेद -- सज्ञा पुं० [सं० अतर् + भेद ] प्रातरिक तत्व या । अतरस्थ---वि० [सं० अन्त स्थ) भीतर काँ। भीतरी। अदर का। रहस्य । भीतरी भेद । उ०---ए रस अतरभेद प्रीय जानै त्रिय । भीतर रहनेवाला (जीवात्मा) । अतरस्थायी--वि० [सं० अन्त स्थायी ] दे० 'अत म्य' । जौ रस |--१९ रा०, ६२।१०३।। तरमतर--मज्ञा पुं० [सं० यत्र मत्र] जादू टोना । झाड फूक ।। अतरस्थित--वि० [सं० अन्तरस्थित] दे० 'अतरस्थ' । अतरबेध)--ज्ञा पुं० [सं० अन्तर्वेध] गगा और यमुना का मध्यवर्ती ज़तर मनरे। भूभाग । अन्नद । उ० अतरवेघ कूरभ आइ । सब भर जेर होइ अंतरर्मत–स पु० [म० अन्तर + मत] प्रातरिक विचार । निगूढ लगे पाय --पृ० र ०, १२११ ।। या गुह्य मन । उ०---बचन परिछना मिट्टया अतरमत खोला। अतरहित--वि० [सं० अन्तहित ] दे० 'अहित' । उ०-- अतर--१० रा०, १० १९ ।। । हित सुर आसिष देही ।----मानस, १॥३५१ ।