पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/८३

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अंतरंगी अंतरंग अंत १ गिनी सेववि न के धर सुखडी महाप्रसाद क्यो नाही क्रि० प्र०—-फरना----होना = अदृश्य होना। उ०----मोही है पर लियो ?'–द। सौं बावन०, भा० १, पृ० १० ।। री चूक अतर भए हे जाते तुमसो कति बाते में ही कियो अतरगी--वि० [ स० अन्तरङ्गिन ] दिली । र्म तरी। जिगरी । दूदन |--सूर (शब्द॰) । --'हे अतरगी जन अाज हक जो पम्त के प्रकाशित हुई, वह २ दूसरा। अन्य । शोर। दूसरे को समर्पित हुई थी • --भारतेंदु ग्र०, भा० ३, विशेप-- इस अर्थ में इस सन्द मा प्रयोग प्र य योगियः शब्दों में १० ६४६ । मिलता है, जैसे, ग्रंथातर, रथ नतिर, व लातर, दैजोतर, पठाअतरगी---सच्चा पु० गहरा मित्र । दिल दोस्त । उ० -- वही मतगी तर, मतांतर, यज्ञातर इत्यादि । सुरगी निनार। वहे राज राजीव लोचन सा |-- पृ० रा०, ३ समीप । मारुन । निपट (को०)। ४ अर्मम । cार। २७७६ ।। (को०) । ५ समान (स्वर यी शब्द ), (को०)। ६ भीतरी । अतरस--सज्ञा पुं० [स० अन्तरस ] वक्षस्थल। सीना। छ' ती [फा०] । भीतर का (को॰) । अतर--सज्ञा पुं० [ स० अन्तर] १ फर्क । मेद । विभिन्नता 1 अलगाव । अतर ---क्रि० वि० १ ६२ । अलग । जुदा । पृथयः । विलग । चः-- फेर । उ०—-(क) सत भगवत अतर निरतर नहीं किमपि मति कहाँ गए गिरिधर तजि मोको ह्या मैं कैसे प्राई । सूर श्याम मलिन कह दास तुलसी ।-तुलसी ग्र०, भा॰ २, पृ० ४८८ ।। अतर भए मते अपनी चूक नई ! ---सूर (शब्द॰) । (ख) इसके अंर उसके स्वाद में कुछ अतर नहीं है (शब्द॰) । क्रि० प्र०--फरना= दूर करना । पृथक् करना । ८०• -सूरदास कि० प्र०—करना= फर्क या भेद करना। उ०—मोहि चद वरदाय प्रभु को हियरे ते अतर ३ री नहीं हिनही । ---सूर (शब्द॰) । सु अतर मति करयो ।-पृ० ५० ५८,१२६।--देना। -- --होना। पद्धना |--रखना= भेदभाव रखना। उ०—-प्रजवासी खोगन सो मैं तो अतर कछु न राख्यो 1---सूर (शब्द॰) ।--होना । २. भीतर । अतर । उ०----( ) मोहन मूरति स्याम की अति २ बीच । मध्य । फासला । दूरी । अवकाश । उ०---'यह अद्भुत गति जोइ । बसत नुचित अतर तक प्रतिबिंबित जग विचारो कि मथुरा और वृदावन का अंतर है। क्या हैं । होइ ।--विहारी (शब्द॰) । ( ख ) चिता उचाल शरीर चुन प्रेमसागर (शब्द०)। ३ दो घटनाओं के बीच का समय । मध्म दावा लगि लगि जाई। प्रगट घुम्न नहि दैथिए र अतरे वर्ती काल । उ०--(क) इहि अतर मधुकर इक मायौ । धधुइ ---दीनदयाल (ब्द॰) । ( ग ) बाहर गर लगाइ सूर०, १० ३४६७ । (ख) इस , अतर में रतन दूध से भरे । राखौगी अतर मागी समाधि ।-हरिश्चंद्र (शब्द॰) । जाने ६।–वनिताबिनोद (शब्द॰) ।४ दो वस्तुओं के बीच दी चीजप क्रि० प्र०--फरना--भीतर गरिन। ढकना । छिपाना । c---- वस्तुओं के बीच में पड़ी हुई चीज । प्रोः। अ॥ड । परदो। उ०—कठिन घघन । फिरि चमक चोप लगाइ चचल तनहूँ तसे अतर करें (ब्द॰) । सुनि स्रवन जानकी की न हिने सँभारि । तुने तर ६ दृष्टि तरोधी अव्रर --सच्चा पु० दे० 'अतर' । उ6--जबादि केसर सुर। पूल से दई नयन जल ढारि 1--सूर०, ६७६ । । सतं अतर }---१० १०, ६६।६० । क्रि० प्र० ----करना = अ॥ड करना। उ०-- अपने फूल को १ लइ अतर --सप्त) पु० [ स० मन्त्र, प्रा० अत, अप० प्रवडी] प्रति । यो देखहि रवि भगवते । यहै जानि अतर कियो मानो मही' अँतली । उ०-( क ) करत हक्क इतनाम । क्रमत अनत |--केशव (शब्द॰) ।--होलिना। --देना=ोट करना। | धमय । चइत देत तर अरू अझत अतरं |--१० रा०, उ०--पट अ र दै भोग लगायौ अारति करी बनाइ । —सूर०, ६।१७५। (ख) वृहत सार वार पर तो करत अतर। अहवं १०।२६१।- पद्धना। दत दस एक वठकठ मुतरं ।-पृ० रा०, ५८।२४३ । ५ छिe | छेद । रन्न । दरार । ६. भीतर का भाग । भर अयण-सा १०[ से ० अन्तर+पण ] नीचे जाना । विलापन उ०-.-'दास' अँगिति जमुहाति तकि झुकि जाति, [को०]!, दीने पट, अतर अनत अप झलक ।--भिखारी० प्र०, | अतर अयन-सा पुं० [सं० अन्तर-- अयन 1 १ तीयों की एक 'भ० १, पृ० १४३ । ७ प्रवेश । पहुँच ( को०)। ६ शेप । परिक्रमा विशेप अत है। । २ एक देश का नाम । ३ वासी घाकी । गणित में पफल (को०)। ६ विशेषता । उ०— को मध्य भाग । उ6--अतर अयन अयन भल, थन फल, वछ अत एक कैमास सुनि मरन तुच्छ मारन वहुल ।--१० २०, वेद विस्वासी ---तुलसी ग्र०, पृ० ४६४ । १२११६८ | १०. निवलता (को०) 1 ११ दोप। वृटि (को०)। | भतरकालीन--वि० [ से अन्तरकालीन | दो कालविभागों के १२ अभाव (को०) 1 १३ प्रोजन (को०)। १४ लिहाज वीच का । किन्हीं दो स्थितियों का मध्यवर्ती | फा०]। (को०) । १५. छिपाव (को०)। १६ निश्चय (को०)। १७, अवरखq--सम्रा पुं० [सं० अन्तरिक्ष, प्रा० अतरिवख] अंतरिक्ष। शून्य । प्रतिनिधि (को०)। १८ वस्त्र (को०)। १६ हृदय । अतः अंतर। प्रकाश । उ०—-रूप न होता तब अकुलान रहिता सवद । करण । जी । मन। चित्त । उ०----जिहि जिहि माह करत जन | गगन न होता तब भतरख रहिता चद ।---गोरख०, पृ० १८६.1 सेवा अतर की गति जानत । —सूर०, १1१३ । (ख) अतर प्रेम अतरगत '५-सपा पुं० [ से० अन्तर्गत ] मन । हृदय । अतकरण । तासु पहिचाना। मुनि दुरल म गति दीह्न सुजाना ।--तुलसी उ०—-( यः ) ज्य' गुर्ग” मीठे फल रस को अतरगत की (शब्द०)। २० अात्मा (को०)। ६१ परमात्मा (को०)। भावै ।—सूर०, १।२ । ( ख) जानराय जानत सवै मतगत की २२ स्थान (को०)।२३ अाशय (को०)। ' घात ।--घनानंद, पृ० ५६।। भतर--[षिः १ अतर्धान । गायव । लुप्त । उ० ---कृपा करी हरि फेवरि अंतरगत--वि० अंतर्गत । भीतर आया हुआ। उ०—-जैसे जननि जठर जिमाई । तर अाप भए सुरराई ।-महाभारत (जन्द०)। ।। अंतरगत सुत अपराध करै ।--सूर०, १११७