पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/८२

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३१ अंतरंगि अतरा--.[ सं० अन्तर] १ जानकारी में पूरी । पारगत । पारगामी अतता-क्रि० वि० दे० 'अतन'। उ० –भूध भात घृत सकरपारे। हैरते निपुण । अगामी । २ मृत । मरा हुआ (को॰) । भूक नहि अतती रे --दक्खिनी॰, पृ० १०५ । अतगत--वि० [सं० अन्तगत ] १ सीमा पर गया हुआ । २ समाप्ति अततोगत्वा--क्रि० वि० [ स० अन्ततस् + गत्वा ] अंत में जाकर। । को हुँचा हुग्री (को०) । अखि रखार । निदान । ३०--‘शकात हृदयवाले का प्रततोप्रतगति--सा स्त्री० [सं० अन्तगति 1 अतिम देणा। मृत्यु । मरण ।। २ गत्वा ईश्वर मे अनन्य प्रौढ प्रेमप्रदर्शन उत्तम हैं'।--प्रेमघन॰, मौत । भा० २, पृ० ४४२।। अतगति’----वि० श्रत को प्राप्त होने वाला । नाश होने वाला [को०)। अंतदीपक-- सा पुं० [ स० अन्तदीपक ] काव्यों में प्रयुक्त दीपकाअतगमन–सच्चा पुं० [सं० अन्तगमन] १ अन तक पहुँचने या पूर्ण १० | सु० अन्तिगमन 1 १ अन तक पहंचने या प लकार का एक भेद [को० ]। पारने का कार्य । २ जीवन के अत तक जाने की स्थिति । प्रतपाल-सवा पु० [ स० अन्तपाल ] १ द्वारपाल । योढीदार । मौत । मृत्यु [को०] । | परिया। दरबान । २ सीमा की रक्षा करनेवाला अधिकारी। तगामी-वि० [सं० अन्तगामिन् ] [ स्त्री० अन्तगामिनी ] १ दे । सरहद का पहरेदार। उ०--'सरहदों को प्रवध अतपाल करते 'प्रतग' । २ मरणशील (को०)। । थे' ।--हिंदु० सभ्यता, पृ० ३२९ । ऋतगुरु--सल्ला पु० [सं० अन्तगुरु | वह शब्द जिसके अंत में दो मात्रा अतपुर -- सच्चा पु० दे० 'अत पुर' । उ०-अतपुर पठि भान् आतुर या गुरु हो । उ०--गज प्रभेन प्रहरन असनि चुकल अंतगरु । कढ़ ने वगि, चिर निसि अंक में निसापति डरे रहे ।--रत्नाकर. नाम |--भिखारी० ग्र०, भा० १, पृ० १६६ । । - भा॰ २, पृ० १२८ ।। अतघाई--वि० [सं० अन्त+घाती, प्रा० अत+ घाइ] अत में धोखा । अतवर --सम्रा पु० [सं० अन्त्र + अवलि ] अाँतो को समूह। उ०-- मस हड्ड रद गेंद अतवर वाच गज नर ।---पृ० ०, ७।१५२॥ देनेवाला । विश्वासघात)। दादाज । उ०—–साँझ ही समै ते अतभव--वि० [ स० अन्तभव ] अत मे उत्पन्न होनेवाली [ को०] । दूरि बैठी पदानि दे सक मोहि एक या कलानिधि व साई की । अतभाक्---वि० [ स० अन्तभोज़ ] किसी शब्द के अत का या अत में कत की कहानी सुनि श्रवन सोहानी रैनि रचक विहानी या होनेवाला [को०1। । बसत अतघाई को |--कोई ववि (शब्द॰) । अतभूत-वि० [सं० अन्तर्भूत ] दे॰ 'अतर्भूत'। अतघाती--वि० [सं० अत + घातिन् ] धोखा देनेवाला । वचक । अतभेदी--सा पु० [ स० अन्तभेदी] एक प्रकार का ब्यूह । मध्य दगावाजं ।। भेदी व्यूह का विपरीत या उलटा व्युह । अतचर---विर [ सै० अन्तचर ] १ सीमा पर जाने या चलने वाला। अतम--वि॰ [ स० अन्तम ] अति समीप का। घनिष्ठ (मित्र ) [को०]। प्रतम.. २ कोई भी कार्य पूरा करनेवाला [को० ] । अंतमन----सा पू० [ स० अन्तर्मन ] अभ्यतर मन। भीतरी मन । अच्छद सच्चा पुं० [ स० अन्तच्छद ] भीतरी आच्छादन। अदरूनी उ6---सुनि अनिदेय कवि जिय घरिय अतमन घ्यान । परदा। । पृ० रा०, ६७।२७४।। शेतज-~-वि० [सं० अन्तज, अन्त्यज ] जो अंत में उत्पन्न हो । सबसे अर्तमान -सचा पु० दे० 'अतमन' । ३०-लोयन राखी घघट हो । बाद में उत्पन्न होनेवाला [को० ] मतमान को राखे फेरी --चित्रा०, पृ० १५४ । अतजा--वि• स्त्री० [सं० अन्तरा, अन्त्यजा] अत में पैदा होनेवाली । सबसे अतरग"--वि० [ स० अन्तरङ्ग ] १ अत्यत सम प । आत्मीय । पीछे की । उ०—–अत मा सो गरि अतजा मत्ति अमत्तिय |- निकटस्य । दिलः । जिगरी। उ०—'वह अपने अतरग लोगो पृ० रा०, ३१।१०१ ।। का परिचय भी नहै। बताती' |---स्कद०, पृ० ११६ । २ अतजाति--वि० [ स० अन्तजाति, अन्त्यजाति ] अति म जाति का । मानसिक । ( ‘वहरग' इसका उलटा है } । निम्न जाति का [को॰] । अतरग-सझा प० १ मित्र । दिल दोस्त । अादमीय। स्वजन । अतजाति--सी पु० जातिविभाजन में अति म जाति [को०]। उ०--'अनवरी श्रीज ईनी अतरग बन गई हैं' (+-तितली' पृ० १२४ । २ हृदय । उ०- वरदान आज उस गत युग का अतत ----अन्य ० [सं० अन्तत ] १ अत मे । थाखिरकार । निदान । सबसे केपित करता है अतरग कामायने।, १० १६२ । ३ राजा पीछे। उ०-मिला परमार्थं मुझको अतत इस वृद्ध वय में -- के अत पुर में जानेवाले अधिकारी 1--वण०, पृ० ६ । ४. पार्वती, पृ० ३८ । २ ध म से 'म । अशतः (को०) । ३. भीतरी अग । प्रच्छन्न अन् । उ०---फुनि पुच्छति इछिनि सु भीतर (को०) । ४. निचले या निम्न मार्ग में। मुख्य एवं मध्य व हि सात रूप मनि सलि। न पुच्छ केसी कहै अतरग सु के बाद में (को०)। चिसोल मृ० रा०, ६२।१०४ ।। ऋतत ---- अव्य० | स० अन्तत' 1 अत में । अाखिरकार। उ०—-जाति यौ०-अतरग मत्री = निजी सचिव । अतरग सचिव-प्राइवेट सेक्रे स्वभाउ मिटे नहिं सजनी अतत उवरी कुवरी।—सूर० (राधा०), । टरी । अतरंग मित्र=दिली दोस्त । अतरग सभी = सव कमेटी पृ०५३२ ।। छौटीं कमेटी या प्रबंधकारिणी सभा जिसमे मुख्य सभा से चुने अततर-वि० [ स० अन्ततर 1 अतिम के धाद का। अत के घाद हुए लोग रहते हैं और जिन सरया नियत रहती । वाला [को० ]। ऋतरगिनी---वि० जी० [सं० अन्तरङ्गिणी ) अत्यत समीप फौं । मततम-वि० [सं० अन्ततम] सबसे वाद का। सबसे वादवाला [को०]। मात्मीया । उ०--'यह सुनत ही श्री गुसाई जी कहे, जो मेरी