पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/८०

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अंत पुरचरै अंत.स्वरे अत पुरचर--सद्मा पु० [सं० अंत पुरचर ] अंत पुर मे श्राने जाने के अत राष्ट्रीय--वि० [सं० अन्त +'राष्ट्रीय ] जिसकी दो या अधिक अधिकारी, कंचुकी अादि (को॰] ।। राष्ट्रो से सवध हो। भिन्न भिन्न राष्ट्री से संबधित । । अत पुरचारिणी-~-सा स्त्री० [सं० अन्पुरचारिणी][ सा पुं० अन्त ऋत शर--समा पु० [सं० अन्त र ] १ वनभूमि का भीतरी पुरचारिन् । अत पुर या हम में निवास करनेवाली स्त्री । भाग जहाँ शर ( बेत ) उगे हो । २. एक रोग [ को॰] । ३०--"एक समय कुलवधु की सच्चा थी अत पुरचारिणी' ।-- अत शर--वि० दे० अत'शल्य' [को० ]। टैगौर सा०, पृ० ३६ । अत शरीर--सबा पुं० [सं० अन्त शरीर ] वेदात भर योग के अनुसार अत पुरजन--संज्ञा पुं० [सं० अन्त पुरजन ! अत पुर में रहनेवाली । | स्थूल शरीर के भीतर का सूक्ष्म शरीर । लिगशरीर। स्त्रियाँ प्रादि [को०]। अत शल्य'---वि० [ सं० अन्त शल्य ] भीतर घुमे कोटे की तरह अत पुरप्रचार-सच्ची पुं० [सं० अन्तपुरप्रचार ] औरतों की गप्प- साल नेवाला । गाँसी की तरह मन में चुभनेवाला । मर्मभेदी। बाजी [को० ]।। अत शल्य-- सज्ञा पुं० शत्रु के वश में पड़ी हुई सेना । अत पुररक्षक-- सा पुं० [सं० अन्त युररक्षक] दे॰ 'अत पाल' [मो०)। अत शुद्ध--वि० पुं० [ सं : अन्त शुद्ध ] [ सी० अन्तशुद्धा ] जिसका मत पुरवर्ती--सह पुं० [सं० अन्त पुरवतन् । अत पाल (को०] । प्रत करण, मन या चित्त शुद्ध हो । अत पुरसहाय--सा पुं० [सं० अन्त पुरसहाय ] अत पुर में कार्य अत शुद्धि-सा स्त्री० [सं० अन्तशुद्धि] अतःकरण की पवित्रता । | करनेवाले खेजा नपुसक, माणवक, विदूषक श्रादि (को०)। चित्त की स्वच्छता । दिल की सफाई । चित्तशुद्धि । अत पुराध्यक्ष--सच्ची पु० [सं० अन्त पुराध्यक्ष ] मतपुर का रक्षक । अत सज्ञ--वि० पुं० [ सं० अन्तसज्ञ ] जो जीव अपने सुख दुख को | रनिवास का अध्यक्ष [को०] । अनुभव करते हुए भी उन्हें स्पष्ट प्रगट न कर सके, जैसे वृक्ष, अत पुरिक--सज्ञा पुं॰ [ सं० अन्त पुरिक 1 अत पुर का रक्षक । | तृण आदि । कचुकी [को॰] । अत सत्व---वि० [सं० अत्ते सत्व ] जिसके भीतर शक्ति या गुरुता अत पुरिका-संवा पुं० [सं० अन्त पुरिका] अत पुर में रहनेवाली हो । अत सार [ को० ] ।। नारी को०)। अंत सत्वा--वि० सी० [सं० अन्त.सस्वा] गर्भवती । गभणी । अत पुष्प-सी पुं० [ से अन्त पुष्प ] वह रज को १२ बर्ष की । अत सत्वा-संवा स्त्री० भिलावाँ । भल्लातक । अत सलिला–समा जी० [सं० अन्तःसलिला] दे॰ 'अतस्सलिला' । ३०| रनस्राव की निश्चित अवधि के बीत जाने पर भी प्रगट नही । क्या हो सूने मरु अचल में अत सलिला की धारा सी । होता [को०] । अत पूय---वि० [सं० अन्त पुस ] पी : या मवाद से भरा हुआ। कामायनी, पृ० ६७ । । सिके भीतर मवाद हो (को०) । अवसाक्षी---सज्ञा स्त्री॰ [ स० अन्तः + साक्षिन् ] भीतरी प्रमाण । । अत प्रकृति--सं मी [ सं० अन्तःप्रकृति ] १ अतिरिक गवाही । उ०—सूत्रो की अत सोझी इसी पक्ष में अतिरिक प्रति । है।--पाणिनि०, पृ० ४ । भीती या मन का स्वभाव । अतवति । मूल रवमय । च--- अत सार--नया पुं० [सै० सन्त सार] भीतरी तत्व । गुरुता । भीतरी उसी प्रकार मतप्रति मे दया, दाक्षिण्य, श्रद्धा, भक्ति मादि | सार । उ०--'एसे मामलों का असर हिंदुस्तानी ही लोग यूसिवों का स्निग्ध, शीतल भि। मे सौदर्य लहप्तिा हुम पाते जानते हैं'। ---भारते दु ग्र०, भा० १, पृ० ३६२ । हैं |-- रस०, पृ० ३२ । २. आत्मा । ३ राज्याग । राजा के अतं सार-वि० जिसके भीतर कुछ तत्व हो । जो भीतर से पोला । समीपवर्ती अमात्य, सुहृद् अादि । ४ राजधानी की प्रजा [को॰] । हो। ज। सारयुक्त हो । जिसके भीतर कुछ प्रयोजनीय या महत्व अत प्रज्ञ--स। पुं० [ १० अन्त-प्रज्ञ ] जिसकी अतिरिक अथवा पात्म की वस्तु हो । विषयिणी प्रज्ञा प्रवृद्ध हो । अात्मज्ञ नी । तत्वदर्शी । अत सारवान--विः पुं० [सं० अन्त'सारवत् ] १ जिसके भीतर कुछ | मत प्रतिष्ठित-वि० [सं० अन्त प्रतिष्ठित] हृदय में बसा हुआ [को॰] । तत्वे या सार हो । जो पोला न हो। जिसके भीतर प्रयोजनीय अत प्रवाह--सं। पुं० [सं० अन्त प्रवाह] वह धारा या प्रवाह हो । वस्तु हो । २ तत्वपूर्ण । सारगर्भित । प्रयोजनीय। काम का । | भीतर ही भीतर बहता हो [को०]।। अत सुख-सी पुं० [सं० अन्त सुख ] बाह्य सुख से रहित अात्मानु

  • सघन रूपी सुख । अतरिक सुख [को॰] । अस प्रविष्ट-- वि० [ सं अन्त.प्रविष्ट ] १. भीतर घुसा हुआ। २.

अत सुख-वि० जिसे अतरिक सुख प्राप्त हो [को०]। हृदगते । मनोगत [को॰] । अत सौंदर्य--सुझा पुं० [सं० अन्त + सौन्दर्य ] भीतरी सौंदर्य । हृदय मत प्रातीय--वि० [सं० अन्त +प्रतीय ] किसी भी देश के दो या | की अच्छाई । उ०--‘जहाँ कोई सौंदर्य नहीं वह अते सौंदर्य उससे अधिक विभाग या प्रदेश में सबध रखनेवाला अथवा देखा जाता है । -जय० प्र०, पृ० ३६।। उनसे अवस्थित ।। अत स्थ-सच्ची पुं०, वि० [सं० अन्तःस्थ ] दे॰ 'अतस्थ' [को०]। प्रत.प्राचीर-सा पुं० [सं० अन्त प्राचीर ] प्राचीर के भीतर की अत.स्थित-- वि० [सं० अन्त स्थित ] मध्य में स्थित या बैग हो । धीवाल 1 भीतरी दीवार [को० ] । भीतर वैठा हुआ [को० ]। मत प्रादेशिक-वि० [ मुं० अन्न प्रादेशिक ] दे० ' अत प्रातीय। अत.स्वर--सया पुं० [सं० अन्तः+स्वर] अतरिक ध्वनि । भीतरी अत.प्रेरणा-सम सी० [सं० अन्तःप्रेरणा ] भीतरी या स्वाभाविक आवाज़ 1 हृदय का स्वर। दिल की आवाज । उ०--'जते से प्रेरणा । सुप्त मंत.स्वर तुम्हारे तरल कूजन में' |--हरी घास पु० ३२ ।