पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/७९

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पडाकृति' अंतःपुर अडाकृति-सद्या स्त्री० [सं० अण्डाकृति ] अंडे का प्राकार । अंडे की अत कृमि'--सा पुं० [स० अन्तकृमि ] शरीरस्थ कीटाणों के माकल। उत्पन्न होनेवाला एक रोग [को॰] । अडाकृति-वि० भडे के प्रकार का । अडाकार । अड इव । अंत कृति--नि० जिसमें कीडे हो ( फलादि ) किन [ ०1।। भडालू-संज्ञा पुं० [सं० मण्डल] भडे से भरी हुई मछली [को०]। अत कोटरपुष्पी-----सज्ञा स्त्री० [सं० प्रन्स कोटरपुष्पी ] दे० 'अप्डकोटरअडिका---सद्या स्त्री० [सं० पण्डिफो ] चार यव के परिमाण की एक पुप्पी' [को०]। तौल [को० ]। अत कोप----सबा पुं० [सं० अन्त कोप] प्रकट न होनेवाला छ । अडिनी-सच्चा स्त्री० [सं० अण्डिनी ] स्त्रियो का एक योनिरोग जिसमे भीतरी गुस्सा [को०]। कुछ मास बढ़कर बाहर निकल आता है। इसे योनिकद रोग भी अतकीय-सा पु० [सं० अन्त कोश ) कोशागार भादार का कहते हैं । | भीतरी हिस्सा (को०)। अडी'-सा सी० [सं० एरण्ड] १. रेडी । रेड के फल का वीज। अत क्रिया-सुका स्त्री० [सं० अन्त क्रिया 1१ मीतरी व्यापार। मप्र२. रे या एरड का पेड । | गट कर्म । २ अत करण को शुद्ध करनेवाला पातरिक कर्म । अडी-सझा स्त्री० [सं० अण्डफ या अण्डिफा 1 एक प्रकार का रेणमीअत पट–सम्रा पुं० [सं० अन्त'पट ] १. वह प्रावरण पट जो दो कपडा जो रद्दी रेशम और छाल आदि से बनता है। व्यक्तियो ( वर बघू या गुरु शिष्य ) को समुचित मूहुर्त के पूर्व अंडीर'—सधा पुं० [सं० मण्डीर] १ वयस्क पुरुष ! युवक । जवान सयुक्त करने के पहले डाला जाता है । वह परदा जो विवाह के व्यक्ति । २ दृढ व्यक्ति [को०]। अवसर पर वर और वधू के बीच उनको मिलाने के पहले इाला अडीर-वि० वली । समर्थ [को॰] । जाता है । अक्षर पट ! २ अतर्वस्त्र । मॅतरौटा (को०)। अंडल-वि० जी० दे० 'अईल' । अत पटल-सा मुं० [सं० अन्त पटल ] १ असो के भीतर पा अडेल--वि० सी० [हिं० अडा+ऐल (प्रत्य॰)] जिसके पेट मै अडे अव्यक्त जालीदार पदो। ३ भीतरी परदा [को॰] । हो । अडेवाली। अत.पटी-सवा स्त्री० [सं० अन्त प्टी ] १ विसी चित्रपट द्वारा नदी, अत-अव्य० [सं० अन्तः ] ‘अतर्’ के अर्थ में समस्त पदों में कुछ पर्वत, वन, नगर आदि का दिखलाया हुआ दृश्य । २ नाटक स्थितियों में प्रयुक्त ‘अतर्' शब्द का एक रूप जो पहले आता का परदा । है, जैसे अत शल्य, मत सार आदि अादि [को॰] । अत पद-प्रव्य ० [सं० अन्त पदम् ] विकारी शब्द के मध्य मे [को॰] । अत कक्ष--सच्चा पुं० [सं० अन्त कक्ष ] घर के भीतर का कमरा अंत पदवी--- सच्चा स्त्री० [सं० अन्त पदवी] सुपृम्णा नाडी के मध्य की जहाँ प्रसाधन, शयन, आदि की व्यवस्था हो । उ०—-'देवी राह [को०]। । अत कक्ष में अभ्यागत के अकस्मात प्रवेश से स्तव्य हो गई। अत पदे-अध्य० दे० 'अत'पदम्' [फो० ।। -दिव्या, पृ० २१४ ।। अत परिधान--संज्ञा पुं० [सं० अन्त परिधान] पतर्वस्त्र ! पंतमत करण–सी पुं० [सं० अन्त करण] १ वह भीतरी इद्रिय रौटा [को०]।। जिसके विषय सकल्प, विकल्प, निश्चय, स्मरण आदि हैं तथा । अत परिधि--सा स्त्री० [सं० अन्त परिधि] १. किसी परिधि वा घेरे जो सुख दुःखादि का अनुभव करती है। के भीतर का स्थान । २. यज्ञ की अग्नि को घेरने के लिये जो विशेष—कार्यभेद से इसके चार विभाग है-(क) मन, जिससे तीन हरी लकडियों रखी जाती हैं, उनके भीतर का स्थान । संकल्प विकल्प होता है। (ख) बुद्धि जिसका कार्य है विवेक अंत पवित्रा-वि० सी० [सं० अन्त पवित्रा ] शुद्ध अतकरणवाली। वा निश्चय करना। (ग) चित्त, जिससे बात का स्मरण होता शुद्ध चित्त की । है । ( ४ ) अहकार, जिससे सृष्टि के पदार्थों से अपना सबघ अत पवित्रा-सा झी० सोमरस जब वह छानने के लिये छनने में देख पड़ता है। रखा हो । २ हृदय । मन । चित्त। वृद्धि। उ०—अत करणे में तीव्र अत पशु-मुं० पुं० [सं० अन्त पशु ] पशुओ की गोशाला या घथान अभिमान के साथ विराग है ।-स्कद०, पृ० ५६ । ३ नैतिक पर रहने को सांयकाल से प्रात काल तक का समय [को०]। बुद्धि । विवेक, जैसे--हमारा अत करण इस बात को कबूल | अत पात--सपा पुं० [सं० अन्त पात ] १ यज्ञशाला का मध्यवर्ती नही करता ( शब्द० )। स्तभ या खभा (को०)। २ व्याकरण मे नि सी अक्षर का अत करन--सज्ञा पुं० दे० 'अत करण' । उ०---‘जो आजहू तेरो अत.. मध्य में आना [को॰] । द भयो नही है।--दो मी विन०. ० २.१० १८। अत पातित--वि० [सं० अन्त पतित ] दे॰ 'अन्तःपाती' [को०1।। अत कलह-सच्चा पु० [सं० अन्त.कलह ] दे० 'गृहकलह'। अत पाती--वि० [सं० अन्त पातिन् ] १ मध्यवर्ती। बीच में । २. अंत कुटिल---वि० [सं० अन्त कुटिल ] भीतर की कपटी । खोटा। समिलित [को॰] । * धोखेबाज । छली । अत पाल--सा पुं० [सं• अन्त पाल] १ अन्त पूर या रनिवास को अत कुटिल’--सा पुं० शख [को॰] ।। रक्षक। २ कचुकी [को०]। अत कोण–सेवा पुं० [ समा अन्त कोण] भीतरी कोना । भीतर की अंत पुर--सा पुं० [सं० अन्त पुर] घर के मध्य या भीतर का | अोर का कोण ।। भाग जिसमे शनिय .या स्त्रियों रहती हों। जनानखानी । विशषजव एक रेखा दो रेखा को स्पर्श करती या काटती है तब जनाना या भीतरी महल । रनिवास । हरम । उ०—‘दुर्ग का तो उन रेखामी के मध्य में बने हुए कोण को प्रत.कोण कहते हैं । नहीं, अतःपुर का मार तुम्हारे ऊपर हैं' -- • १० ५६ ।। , १० । की तथा श्रत प{ि