पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/७३

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| १३ अंचल वैदिक औषपिया इसे तैयार होती है। हकीमो मै इसका अघस--सम्रा यु० [सं० अङ्गस् ] पाप । पातक । अपराध। बहुत व्यवहार है। | अघारि--संज्ञा पु० [सं० अडघारि } १ पाप को शत्रु । २. सोम के प्रगूर को मया वा अगर' की टट्टी = (१) अगूर की बेल रक्षक का नाम । ३ दीटि-शील ज्योति से युक्त (को०) । में चटने यौन फैलने के लिये वास की खपचियो का बना हुआ। अन्त्रि--सधा पुं० [सं० शहि प्र] १ पैर । चरण । पाँव । २ पेड की मटप । (३) एका प्रकार की आतिशबाजी जिससे अगर के जड। मूल (को०) । ३ छद का चतुर्थ चरण (को०) । गुच्छे वैः समान चिनगारियाँ निकलती हैं । अधिकवच-• सखी पुं० [अड प्रकवच ] जूता । उपानह (फो०)। महा-अगर खट्टे होना = प्रयत्न करने पर भी प्राप्त न होनेवाली अघ्रिज-सज्ञा पुं० [ सं• अडि घ्रज ] क्षुद्र । निम्न [को॰] । अच्छी चीज को बुरा बताना। ३०--अत में यह कह चलती अघ्रिनाम--सज्ञा पुं॰ [ स० अडिघ्रनाम] १ वृक्ष की जड । २ पैर। हुई अरे ये उट्टे हैं अगर |-- खिलौना १९२७ । पाँव (को०] । अगूर--सझा पुं० मात के छोटे छोटे लाल दाने जो घाव भरते समय अघ्रिनामक--सच्ची पुं० दे० 'अधिनाम' (को०) । दिखाई पड़ते हैं। ई० ‘अकुर'२।। अन्त्रिप--संज्ञा पुं० [ सं अङ्घ्रिप ] पादप । वृक्ष । पेड। महा०--- अगर माना = धाय के ऊपर चमड़े की पतली झिल्ली अघ्रिपणिका--संज्ञा स्त्री० [सं० अघ्रिपतिका ] सिंहपुच्छी नाम की पहना। घाव पुरनी। घाव भरना। अगर सडकना = भरते | लता (को०] । हुए घाव पर वघी हुई मास की झिल्ली का फट जाना। अघ्रिपर्णी-सझा जो° [सं० अन्त्रिपर्णी] दे० डिपणका' [को०)। अगूर फटना = दे० 'अगूर तडव ना'। अगूर बँधना = घाव के अघ्रिपान--सधा पुं० [सं० अङ्घ्रिपान] पैर की अंगूठा चूसने उपर मास की नई भिल्ली चढना । घाव भरना। अगूर का कार्य [को०) । भरना = दे० 'अगर बँधना'। अडिघ्रवलिका–सइ स्त्री० [सं० अडि ब्रेवल्लिका] सिंहपुच्छी लता। अगूर--स। पुं० [सं० अकुर ] अकुर । अँखुम्रा । अन्त्रिपर्णी (को०] । अगूरशेफा--सया पुं० [फा०] एक जही जो हिमालय पर शिमले से अन्त्रिवल्ली--सच्चा स्त्री० दे० 'अघ्रिवल्लिका' [को०] ।। लेकर काश्मीर तक होती है। इसे संग अगूर, सूची, जवराज अघ्रिस्कध--संज्ञा पुं० [सं० श्रडि घ्रस्कन्ध ] टखना। गुल्फ को० ॥ तथा गिरवट के हते हैं । इसकी जड और पत्तिय दमें और चाय अच-वि० [सं० अञ्च] घंघराला । घूमा हुअर । [ कॉ० । के दर्द को दूर करती हैं । । विशेष--केवल ‘रोमाच' में प्राप्न त समास का अतिम शब्द । अगरी---वि० [फा०] १. भगूर से बना हुआ । २. अगूरी रग का । अच--सच्चा स्त्री० [सं० अच, प्रा० अच्चि, अच्च, अप० अच) १ स्फुलिंगे । अगरी--सहा पुं० कपडा रेंगने का एक हरा रंग जो नील और टेसू चिनगारी । उ०——तन सट्टै सटि कति बोल भारथ्य बोलें । के फूल को मिलाकर बनाया जाता है। लोह अच ड्डत पत्त तुरर जिमि डोले ---पृ० ०,२७२४॥ अगूरी'--सच्चा स्त्री॰ [ अगूर की शराब का संक्षिप्त रूप ] शराब । २. दे० 'अच' । उ०--जा ते अतर गुरुमति प्राई । त क अच अगूरी वेल-सा स्त्री॰ [फा० अगूरी + हिं० वेल ] कपडे आदि पर | न लागै काई ।---प्राण ०, पृ० ३ । काढी जानेवाली या छपी जाने वाली अगूर फी लता की प्राकृति। अचति--सझा पुं० [सं० अञ्चति ] १ वायु । २. अग्नि ! ३ वह व्यक्ति अगूप-- सम्रा पु. [ सं० अङ्गप] १ घूस नाम का जतु । २ चाण। । जो गतिशील हो [को०]। तर (को०) । | अचती--सा पुं० दे० 'अचति' [को० ] । अगोच--सझा पुं० [सं० श्रोच ] अगछ। [को॰] । अचन–सा पुं० [अ० अञ्चन] झुकाने या घुमाने की स्थिति अगौचन--सी पुं० [सं० अङ्गौचन ] दे॰ 'अगोच' (को॰) । अयवा कार्य । अगोछना —प्रि० स० ६० 'अँगाछन । ए०--करि मजन प्रगछि अचना--क्रि० स० दे० 'ऐचना' । उ०---(घ) गहै इत उत | तन धूप चासि बहु अग । --पृ० १०, १४१ ५३ । गिद्धनि गिद्ध । मरालिय अचि सिवाल प्रतिद्ध |-- रा०, अगोट--सी जी० [सं० अज्ञ+ वर्म, प्रा० घट्ट] अग का गठन। शरीर ६६।१४०३ । (ख) चीतेगी सहबाज यान अरि प्रान सु अचे । फी नावट । ---पृ० रा ०, २७।४३ । । अगटो--संज्ञा स्त्री० दे० 'प्रगोट' । अचर --सच्चा पुं० दे० 'अचल' । उ०---कौन निरासी दीठि लगाई लै लै अग्य-वि० [सं० अन्नप] अग का । अग सवधी (को०)। अचर झारे ।---पोद्दार अभि० प्र०, १० ६३४ । २. दुपट्टा । अगेज--उधा पुं० दे० 'अँगरेज' । उपरना। ३७-राजन अचर छोरु करि जैत प्रससन काज । दिल्ली अग्रेजियत-- प्री० [हिं० अग्रेज + फा० इयत (प्रत्य॰)] अग्रेजो घर अगर इहै जुइझ पर्यो घर अाज ।--१० रा०, ६६।१२४७ । अवि अग्रेजी का प्रभाव। अग्रेजीपन। ३०--अग्रेजियत ने अचल--सफा पुं० [सं० 1 साडी वा प्रौढनी का यह भाग जो सिर हमारा दिमाग ऐसा विगाह दिया है । --प्रेमघन॰, अयवा कधे पर से होता हुआ सामने छाती पर फैला हुमा हो। भा० १, ( भू० ) । साडी वा छोर। आंचल । १ला। छोर। अँचरा। उ०० अग्रेजी-- सुश भी दे० 'अँगरेजो'। उ०—–अग्रेजी पढिके जदपि सव घहरि बदन विधु अचल ढाँकी ।—मानस, २।११७। २ गुन होत प्रवीन । निज 'भापा ज्ञान विन रहत हीन के दुपट्टा। उपरना । उ०——लोचन सजल प्रेम पुलकित तन गर हीन ।-भारतेंदु ग्रं॰, भा॰ २, पृ० ७३२ । अचल कर माल । --सूर०, १।१६६। ३ किसी प्रदेश या अंघ--सी पुं० [सं० अङ्ग] अब। पाप फौ०} ! स्थान आदि का एक भाग । उ०—-वन गुहा- क्रूज मरु अचल