पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/६९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अंगस्कंध अंगारमती अगस्कध--सज्ञा पुं० [ म० अङ्ग स्कन्ध] Kा, वेदना, विज्ञान, सच्चों और अगाकरी ५)--- पल्ला स्त्री० दे० 'गाकडी' । उ०---रवी के ग्रामोइन सस्कार नामक शरीर के पाँच स्कध ( बौद्ध' ) । बताए । धने घृत्त अगाकरी खोभि लाए ।---पृ० ० ६ ३॥८६ ।। अगस्पर्श-पेशा पु० [सं० अङ्गस्पश] दाहकर्म करनेवाले का अशौच के अगार--मध' पुं० [सं० अङ्गार] १ दहकती हुश्रा कोयला । अाग का चौथे दिने अस्थि संचयन के बाद दूसरों के द्वारा छुने के योग्य जलता हुअा टुकडा । विन। धुएँ की अग। निघूम अग्नि । उ०--- होना (को०] । धवनि धवती रह गई वृझि गए अगर |--कबीर ग्र०, पृ० ५७ । अगहानि----पद्या स्त्री० [सं० अङ्गहानि] दैव, भ्रम या अनवधानता से | २ म्फूनिंग । चिनगारी । उ०---प्रति अगिनि झार भभार | मुख्य कार्य के उपकारक अवातर को कार्यों में हुई असावधानी या घुधार करि घटि अगार झझारे छायौं ।--मूर०, १९५६६ । वृटि [क]। मुहा०---अगर उगलना = कडी कडी बातें मुंह से निकालना। अगहार--सच्चा पुं० [सं० अङ्गहार ] १ अगविक्षेप। चमकना । मट ऐसी बात बोलना जिससे सुननेवाले को अत्यत क्रोध उत्पन्न कनी। हाथ पैर हिलाना। २ नृत्य । नाच । हो । अगार बनना = (१) खा पीकर लाल होना। मोटा अंगहारि--संज्ञा पुं० १ दे० 'अगहार' । २ रगमच । रगस्थल [को०)। ताजा होना । (२) क्रोध मे भरना । अंगार बरसना = अगहीन--सज्ञा पुं० [सं० अङ्गहीन ] अनग । कामदेव (को०)। (१) अत्यत अधिक गर्मी पडना । (२) देवी आपत्ति ग्राना । ३ कोयला (को०) । ४ मगल। उ०-~-चर ए डिल्लिय अगहीन’--वि० जिमको कोई एक ना अनेक अग न हो। जिसके शरीर नगर, दसमि सुदिन अगर ।पृ० स०, ६६११६१८ । ५. का कोई भाग खडित वा टूटा हो । लूला लँगडा । लुज अादि । | अवयवरहित । लाल रग (को०) । ६ हितावली नाम का पौधा (को॰) । अगार--वि० ललि रगवाना (को॰) । अगागिता-- सच्चा स्त्री० [सं० अङ्गाङ्गिता] दे० 'अगागिभाव' [को॰] । अगारक--संज्ञा पुं० [म० अगरिक] १ दहकता हृी कोयला। प्राग अगागिमाव-पल्ला पुं० [सं० अङ्गाङ्गिभाव] १ अवयव और अवयवी का परस्पर संबध । उपकारक उपकार्य-सवध। अश का सपूर्ण का जलता हुआ टुयडा । २ चिनगारी (को०)। ३ मगन के माथ ग्राश्रय और आश्रयी रूप सवध अर्थात् ऐसा सवघ ग्रह । ४ मृगराज । मैं गरैयो । भैगर । ५ कटमरैया का कि उस अंश का अवयव के बिना सपू वा अवयवी की सिद्धि पेड कुरटक । पियावासा । ६ एक प्रकार की तैन जो सभी ज्वरो का नाश करने वाला होता है (को०)। न हो, जैसे त्रिभुज की एक भुना का सारे त्रिभुज के साथ। ऋगारकमणि--सं० पुं० [सं० अङ्गारकमणि मूगर । प्रवाल । संबध । २ गया और मुख्य का परस्पर सवध । ३ अलकार। अंगारकबार--मा पु० [से अङ्गारवाधार 1 मगल का दिन । भौमवीर में सफर का एक भेद । जहाँ एक ही पद्य में कुछ अलकार [फो०] । प्रधान र अाएँ और उनके साये या उपकार से दूसरे अरकारी-सहा पं० [सं० डरकारी] काठ को जलाकर बेचने के। और भी प्रा जाएँ । उ०—-अब ही तो दिन दस वीते नाहि नाह लिये कोयला तैयार करनेवाला व्यक्ति [को०] । चले अव उठि प्राई कहूँ कहाँ ली विसरिहं । अग्रो खेलें अगारकित--- वि० [सं० अङ्गार कित] दग्छ । जला हुआ। भुना हुआ । चौपर विसारै मतिराम दुख खेलन को ग्राई जानि विरह को को०] । चूरि है। खेलत ही काहू व ह्यो जुग जिन फूटी प्यारी । न्यारी अगारकृत--सज्ञा पुं० दे० 'प्रगारकारी' (को०] । भई मारी को निबाह होनों दूर है। पासे दिए डारि मन साँसे अगारधानी--सझा स्त्री० [सं० अङ्गारधानी] आग रखने का वेतन । ही में बूडि रह्यो विसरधो न दुख, दुख दूनो भरपूर है। यहाँ अँगीठी । वोरसी (को०] । 'जुग जनि फूट' वाक्य के कारण प्रिय का स्मरण हो यो अगारघानिका--सज्ञा स्त्री० दे० 'अगारधानी' (को०] । इमसे स्मरण अलकार और इम स्मरण के कारण विरहनिवृत्ति अगारपरिपाचित-सधा पुं० दे० 'अगारंपरिपाचित’ (फो०] । के माधन से उलटा दुख हुआ अर्थात् 'विषम' अलकार की अगारपर्ण'--संज्ञा पुं० [सं० अङ्गारप] चित्ररथ गधर्व का एक नाम । मिद्धि हुई । अत यह स्मृति अलकार दिपम का अग है। अगारपर्ण---वि० दे० 'चिन्न रथ' अगागीभाव-सज्ञा पुं० दे० 'अगागिमाव ।' अगारपाचित-मक्षा पुं० [सं० अङ्गारपाचित] अगार या दहकती हुई अगा'--सझा पुं० [सं० अङ्ग] १ पहिनावा जो घुटनो के नीचे तक। अाग पर ही रग्बकर पकाया हुअा खाना, जैसे कवाब, नानलबा होता है और जिसमे दि लगे रहते हैं। अगरखा । खताई इत्यादि । चपकने । अगारपात्री--सच्चा स्त्री० [सं० अङ्गारपाद्री ] अंगीठी । अगारधानी अगा--सज्ञा पुं॰ [H० अङ्ग दे० 'अग' । उ०—-देवी गगी लहर तुरगा। [को०] । तुहरै लहर परम्, भजे अठो अगा |--शुक्ल० अभि० अ०, अगारपुष्प-सज्ञा पुं० [सं० अङ्गारपृष्म] इगदी वृक्ष जिसके फूले अगर पृ० १३८ । के समान लाल होते हैं। हिंगोट का पेड। अगाडी--म जी० [सं० अङ्गार -- हि० कटी] अगरी पर सेंकी हुई अगारमजरी-- सा फ्री० [सं० अङ्गारमन्जरी वह करज जिसकी मंजरी | मोटी रोटी । लिट्टी । बाट । | लाल होती हैं । लाल करज की वेन (को०)। कि० ५०---वरना ।—लगाना = वाटी तैयार करना या पकाना। अगरमजी---सहा स्त्री० दे० 'अगरमजरी' (को०] । अगकिर५'--मझ ० दे० 'अगवडी' । न०–कोस पर्याए'च पाणियो अगामणि---सा पुं० दे० 'अगाकमणि' । जहि । सात अगाकर बैठो हो खाय ।--वी० रोसो, पृ० ७८ । अगारंमती--सहा स्त्री० [सं० अङ्गारमतो! कर्ण की स्त्री ।