पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/६५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अंग । अंकुसा वनी, पृ० ४, न पर्छ । मेटे अंग'-- महाकवी अक्सा -सञ्ज्ञा पुं० [ मं० अङ,श ] एक प्रकार का अस्त्र । उ०—-सूल अखिका---सच्चा स्त्री॰ [ सै० अक्षि ] अखि । नेत्र। उ०--लर्ज अर्ज अकुसा छुरी सुधारी तिप्प कुठारी --सुजान०, पृ० १५७। मन गतीयपुव्वता कवी व है। सु अखिका कुरग गत्ति भान अकूर--सज्ञा पुं० [सं० अड़.र] दे० 'अकुर' । उ०----(क) तव भा पुनि देषिता रहे 1-पृ० रा०, ११ ५४ ।। अकूर, दीपक सिरजा निरमला !-—जायसी (शब्द०) । (ख) सौ अखे-क्रि० वि० [सं० प्रक्षि; ( लाक्ष० )] अागे । समक्ष । अखि में। सामत प्रमान, उग्गि अकूर वीर रस |---पृ० रा०, ३१।६३ ।। उ०- न अखे है, न पर्छ है, न तले है, न ऊपर है।-- अकुरी--- [सं० अङ्ग र + ई (प्रत्य॰)] अकुरवाला । ज्ञान के अंकुर , | अंग'--संज्ञा पुं॰ [ सं० अङ्ग] १ गरीर । वेदन। देह । गोत्र । तृन । | वाला ( पूर्वजन्म के सस्कार से )। उ०—-अकूरी जिव मेटे जिस्म । उ०——–अभिशाप ताप की ज्वाला से जल न्हा आज निज गेहा। नूवा नाम जो प्रथम सनेहा ।--कवीर सा०, मन और अग |--कामायनी, पृ० १६२ । २ शरीर का पृ० ८१। भाग । अवयव । उ०—-भूपन सिथिल अग मुपन सिथिल अग अकूलना--क्रि० अ० [सं० अड़, रण, हिं० अंकुरना] जनमना। पैदा --भूपण ग्र०, पृ० १२६।। होना। ३०-सालिग्राम गडक अकूला । पाहन पूजत पडित मुहा०--अग उभरना-- युवावस्था अना। पग करना= रवीनार भूला १-कवीर सा०, पृ० १८ 1 करना। ग्रहण करना। उ०—(क) जाको मनमोहन अग अकूप--सञ्ज्ञा पुं० [सं० अङ्क ५] १ अकुश । २ नेवले की जाति का करे।—सूर (शब्द॰) । (ख) जाको हरि दृढ करि अग करयो। एक जानवर । घूस [को॰] । -—तुलसी (शब्द॰) । अग छुना = पापथ खाना। माथा छुनी। अकोट–सच्चा पुं० [ १० अङ्कोट ] दे॰ 'अकोल' । कसम खाना। उ०—सूर हृदय से टरत न गोकुल अंग बत अकोटक--सच्चा पुं० [सै० अङ्कोटक] दे॰ 'अकोल' । ही तेरी --सूर (शब्द॰) । अग टूटना = जम्हाई के साथ अकोल--सच्चा पुं० [सं० अङ्कल ] एक पेड जो सारे भारतवर्ष में प्राय आलस्य से अगो का फैलाया जाना। अंगड़ाई अना। अग पहाडी जमीन पर होता है। तोडना--गड़ाई लेना । अग धरना = पहनना। धारण विशेष—यह शरीफे के पेट से मिलता जुलता है। इसमे बेर के बरा करना । व्यवहार करना। अग मे मास न जमना = दुबला वर गोल फल लगते हैं जो पकने पर काले हो जाते पतला रहना। क्षीण रहना। उ०--नैन न आवै नींदडी, अग न है । छिलका हटाने पर इसके भीतर बीज पर लिपटा ज में मासु ।-क्वीर सा० सं०, भा० १, पृ० ४३ । अग मोडना = हुआ सफेद गूदा होती हैं जो खाने में कुछ मीठा होता (१) शरीर के भाग को सिकोडना । लज्जा से देह छिपाना । है। इस पेड की लकड़ी कडी होती हैं और छडी आदि (२) अँगड़ाई लेना। उ०—-अगन मौरति भोर उठी छिति बनाने के काम में आती हैं। इसकी जड की छाल दस्त पूरति मग सुगघ झकोरन |--व्यगीर्थं (शब्द॰) । (३) पीछ लाने, वमन कराने, कोढ और उपदमा आदि चर्म रोगो को हटना । भागना। नटना। वचन । ३०--२ पतग निशक दूर करने तथा सर्प आदि विषैले तुओं के विप को हटाने में जल, जलत न मोडै अग । पहिले तो दीपक जलै पीछे जले उपयोगी मानी जाती हैं । पतग ( ब्दि०)। अग लगना=(१) अलिंगन करना। पर्या--अकोटक । अकोट । ढेरा । अकोला । छ ती से लगाना। (२) गरीर पुष्ट होना। ३०---‘बह खातों अकोलसार--सूझा पुं० [सं० अोलसार ] अकोल के वृक्ष से तैयार तो बहुत है पर उसके अग नहीं लगता' ( शब्द०)। | किया गया विप [को॰] । (३) काम में आना। उ०--‘किसी के आग लग गया, पडी अकोलिका--सच्ची स्त्री० [सं० अङ्कोलिफा] आलिंगन । अॅकवार [को॰] । पडा क्या होता' ( शव्द०)। (४) हिलना । परचना । अक्य'--वि० [सं० अङ्कय] १ चिह्न करने योग्य । निशान लगाने उ०--'यह वच्चा हमारे अग लगा है' ( शब्द०)। अंग लगाना या अग लाना = (१) प्रालिगन करना । छाती से लायक । अकनीय 1 २ गिनने योग्य । [को०)। लगाना। परिरभण करना । लिपट्टाना। --पर नारी पैनी शक्य--सच्चा पुं० १ दागने योग्य अपराधी। छुरी कोउ नहि लामो अग। ( शब्द० ) ( २ ) हिलाना । विशेष---प्राचीन काल में राजा लोग विशेष प्रकार के अपराधियो परचाना। (३) विवाह देना। विवाह में देना। उ०—'इसे के मस्तक पर कई तरह के चिह्न गरम लोहे से दाग देते थे। कन्या को किसी के अग लगा दे' ( शब्द०)। (४) अपने शरीर इसी से आजकल भी किसी घोर अपराधी को, जो कई बेर के आराम में खर्च करना। सजा पा चुका हो, 'दागी' कहते हैं। ३ भाग। अश । टुकडा । ४ खड। अध्याय। जैसे—'गुरुदेव को २ मृदग, तबला, पखावज अादि वाजे जो अक में रखकर अग', 'चिताबनी को अग', 'सूपिम मारग की अग' ।---कवीर बजाए जाये । अ० । ५ ओर । तरफ 1 पक्ष । उ०--सात स्वर्ग अपवर्ग सुख अख-सुज्ञा स्त्री० [सं० प्रक्षि, प्रा० अक्ख] अखि । नेन । उ०— धरिय तुला इक अग।--तुलसी ( शब्द०)। ६ मंद । आज नीरालइ सीय पट्यो। च्यारि पहूर भाँही नू मीली अख। प्रकार। भाँति । तरह। उ०--(क) को कृपालु स्वामी सारिखो, | वी० रासो, पृ० ४८। अखिg---सद्या स्त्री० [सं० अक्षि; प्रा० अक्खि दे० 'अख'। च०-- राखें सरनागत सव अग घल विहीन को।--तुलसी ग्र० पृ० ५६४। (ख) अग अंग नीके भाव गूढ भाव के प्रभाव, जान करि क्रोध अखि सुरत्त, हवि जानि लग्गिय लत्त ।-पृ० को सुभाव रूप पचि पहिचानी है ।--केशव ( शब्द॰) । रा०, १।१०४।। ७, पारि । मालबन्। उ०-राधा राधारमन को रस सिगार