पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५९७

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मन करनेवाला) कवि ५३० ईहित ईपिरचा पुं० [सं०] अग्नि । प्राग [को०)। ईसारपेशा--वि० [अ० ईसार+फा० पेशह, परोपकारी। अपनी ईपोका--सा ही० [सं०] ६० 'ईपिका' (को०) ।। स्वार्थत्याग करके दूसरो का हित करनेवाला (को०)।। ईम--सी पुं० [म०] १. वसंत ऋतु । ३. कामदेव । मदन कौ०] । ईसुर --सच्ची पुं० [हिं० ईश्वर] दे० 'ईश्वर' । उ०-~-जौं ईसुर हो। ईप्व-सा पुं० [सं०] अध्यात्म की शिक्षा देनेवाले गुरु [को॰] । तो कहू' सुनतो कसना बैन ।-प्रपामा०, पृ० १६६ । । ईस –सशी पुं० [सं० ईश, प्रा० इंस] दे० 'ईश' । उ०--जेहि द्विज ईसुरी'G-संज्ञा स्त्री॰ [स० ईश्वरी दुर्गा । पार्वती । उ०—इनके बटु आज्ञा करत अहह कठिन अति ईम १-भारतेंदु ग्रे०, मा० नमक तें ईसुरी हमको करे रन में अदा 1-पाकर ग्रं॰, पृ०१८ । १, पृ० ३०७ । ईसुरी-वि० [सं० ईश्वरीय] दे० 'ईश्वरीय' । उ०-दस औतार ईसुरी ईसन -सा पुं० [सं० ईशान] ईशान कोण । पूरव और उत्तर के माया करता करि जिन्ह पूजा । कहै कवीर सुनो हो साधो बीच का कोना । उ०—-सतमी पूनिउँ पायब अछिी । अठईं उपजै बर्ष सो दुजा। घट०, पृ० २६४ । | अमावस ईसन लाछी ।—जायसी (शब्द॰) । ईस्ट-सच्चा पुं० [अ०] पूरव । पूर्व दिशा । ईसबगोल---सपा पुं० [हिं०] दे० 'इमवगोल' । ईस्वर--संज्ञा पुं० [हिं०] 'ईस्वर' । उ०-ऐमें सुजस सुपंथ में ईस्वर ईसर'G-सा पुं० [सं० ऐश्वर्य] घनमपति । ऐश्वर्य । वैभव ।। सेवकों देत हम्मीर०, पृ० ४१ । उ०--कहेन्हि न रोव वहुत ते रोदा । अब ईसर भी दारिद ईस्वरता –सद्या स्त्री० [हिं०] दे० 'ईश्वरता' । उ०—श्री गुसाई जी खोवा ।—जायसी (शब्द०)। वाकों समुझावत में अपनी ईस्वरता जताए ।-दो सौ बावन०, ईसर --सा पुं० [सं० ईश्वर प्रा० इस्मर, ईसर] दे॰ 'ईश्वर' । । मा० १, पृ० १५६ । | 0-ईसर केर घट रन बाजा ।--जायसी ग्र०, पृ० ११७ । ३ रीक्षा पु° [सय ६हा=इच्छागि गमन करनवाला काव । ईसरगोल-सा पुं० [हिं०] दे० 'इसबगोन' । ईसरी--[मं० ईश्वरीय] दे० 'ईश्वरीय' ।। ईहाँ -शव्य० [हिं०] ६० 'यहाँ' । उ०—इह न कहइ अस ईहाँ ईसव---वि० [अ०] ईसा से सवध रखनेवाला । | ऐसे । जैसिन बस्तु प्रकासक तैसे ।---नद० ग्र०, पृ० ११७ ।। यो०-ईसवी सन् ः ईसा मसीह के जन्मकाल से चला इमा सवत' । ईहा--सच्चा सी० [सं०] [वि॰ हित] १. चेष्टा। उ०—सछम समुझि विशेप-मह सवत् पहली जनवरी से प्रारंभ होता है और इसमे परासयहि ईहा साभिप्राय । कर जोरत लखि हरिहि तिय लिया प्राय ३६५ दिन होते हैं । ठीक ठीक सौ बर्ष को हिसाब पूरा कज्जल दृग लाये ।--पदमाकर अ ०, पृ० ६३ । ३. उद्योग । ३. करने के लिये प्रति चौथे वर्ष जब सन् की संख्या चार से पूरी । इच्छा । वोछ । ४. लोभ ।- (हिं०) विभक्त हो जाती है, तब फरवरी में एक दिन बढ़ा दिया जाता ईहाम--संज्ञा पुं० [अ०] भ्राति । भ्रम । वहम (को०] । है और वह वर्ष, ३६६ दिन का हो जाता है। इसमें और ईमृग--संज्ञा पुं० [म०] १. नाटक की एक भेद जिसमें चार अंक विक्रमीय सवत् मे ५७ बर्ष का अतर है । होते हैं। इसकी नायक ईश्वर या किसी देवता का अवतार और ईसा--संज्ञा पुं० [अ०] ईसाई धर्म के प्रवर्तक या प्राचार्य । नायिका दिव्य स्त्री होती है जिसके कारण युद्ध होता है । इसकी यो०--ईसामसीह = ईसा जिनका धर्माभिसिंचन किया गया था। कथा प्रसिद्ध और कुछ कति होती है। कुछ लोग इसमें ईसाई---वि० [फा०] ईसा को माननेवाला । ईसा के बताए धर्म पर एक ही अक मानते हैं। मृग के तुल्य अलभ्य कामिनी की चलनेवाला । क्रिश्चियन । ३०--मैं इससे घृणा करती हैं। नायक इसमे ईहा करता है। अतः इसे ईहामृग कहते हैं। क्योंकि यह ईसाई है ।-भारतेंदु ग्रं॰, भा॰ १, पृ० ५६४। २ भेड़िया । ईसान -सज्ञा पुं० [सं० ईशान] दे॰ 'ईमान' ।। ईहार्थी-वि० [सं० ईहायन्][वि०सी० ईहायिनी] धनलाभ या उदेश्यपूर्ति ईसानी--संज्ञा स्त्री॰ [म० ईशानी] दे० 'ईशानी । | के लिये यत्नशील [को०] । ईसार--संज्ञा पुं० [अ० ] दूसरे के लिये अपने स्वार्थ का त्याग ईहावृक---सच्चा पुं० [सं०] लकडवग्ध । करना कि०] । ईहित--वि० [सं०] इच्छित । ईप्सित । चाहा हुआ । वांछित । ईहाँ डि०) ।