पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५९३

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दि०)। (ख) २

पारय कर विप, मावे ईर्छ। ईथर ईछा--- संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'इच्छा' । उ०-विमरी सवहि जुद्ध के झाय -लल्लू ( घाटद०)। (ख) रति मांगी तुमते करि ईडा । ईछा ।-मानस, ६।४६।। पारथ करहु सग मम क्रीडा सवन ( ई० )। ईछी-संज्ञा स्त्री० [हिं०] १० 'इच्छा' । उ०-चैप ये विप, मावे ईडित-वि० [स० ईडित] जिसकी स्तुति की गई हो । प्रशसित । ३०| न भूपण भोजने को कुछ हूँ नहि ईछी ।—देव (शब्द०)। तीचे अस्त्र अनेक हाथ गिरजा, नीन्हे महा ईडित ।-fvधार० ईजति –सच्चा स्त्री॰ [ अ० इज्जत ] दे० 'इज्जत'। उ० --हिंदुवान ग्र०, ५० १, पृ० २६२ ।। द्रुपदी की ईजति बचैव काज झटि विराटपुर वाहर प्रमान ईड री--- संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰] दे" 'ईडी' । के । -भूपण ग्र ०, पृ० ६६ ।। ईड्य---वि० [सं०] पूज्य । वृति के योग्य -प्रशसिन । उ०-ग्रहो ईजा---सच्चा झी० [ म० इजह, ] दु छ। तकलीफ । पीडा ! कष्ट । | ईडय नव घन तेन +14। तडिदिव पीन वैमन अभिराम - उ०—जते मनमा तसे आगे अवै, कहै कबीर ईजा नहि नद० ग्र०, पृ० २६८ । पावै ।--कवीर सा०, पृ॰ ४४४ । | ईढq -संज्ञा स्त्री० [स० इष्ट प्रा० इट्ट अथवा मं० हठ) प्रा० *पडे, क्रि० प्र० --देना ।—पहुचना ।--पहुंचानी ।

  • प्रढ *ईढ़ ] [वि० ईढ़ी] जिद । हठ। उ०-वोनिये न झ3 ईई ईजाद-सज्ञा स्त्री० [अ०] किसी नई चीज का बनाना। नया निर्माण । मूळ पै न कीजई । दीजये जो वितहाथ भूलिहू ने लीजई । । अाविष्कार । ।

के शव (शब्द॰) । क्रि० प्र०—करना ।--होना । ईत--सज्ञा स्त्री० [सं० ईति] दे० 'ईति' । उ०-ईत तणो नह भीत ईजान --- वि० [सं०] १ यज्ञ करनेवाला। यजमान । २ यज्ञ कराने | अगजी मने दुजा मन मेर -रघु० रू०, पृ० ६२ । | वाला [को० । ईतर'--वि० [हिं० इतराना ] इतरानेवाला । ढीठ। मोछ । ईठq---वि०, सच्चा पुं० [सं० इष्ट, प्रा०इट्ठ ] १ जिसे चाहे । प्रिय । गुस्ताख । उ0-गई नद घर की मर्ब, जसुमति तर्हे भीतर । मित्र । सखा । उ०-( क ) यार दोस्त बोले जा ईठ १-~ देखि महरि कौं कहि उठी मुत कीन्ही ईतर -सूर०, १ । खुमे रो ( शब्द०)। (ख) ज्यौं वयो हैं न मिलै कहू केशव १।२१०४ ।। दोऊ ईठ ।--केशव ( शब्द०)। (ग ) करै निरादर ईठ को ईतर--वि० [सं० इतर] निम्न श्रेणी का । साधारण । नीच । ३0निज गुमान गहि बाम ।-पद्माकर ग्र० पृ० १७७ । २ चेष्टा । कोटि विलास कटाच्छ कलोल वढ़ावै हुनासन प्रीतम हीतर । यत्न । उ०--केशव कैम ईठन दीठि ह्वी दीठ परे रति ईठ यो मनि या मैं अनूपम रूप जो मेनका मैन बघू कही ईतर । कन्हाई ।-केशव ग्र०, भा॰ १, पृ० ४६ । सूर०, १०।१४६६ । ईना--कि० अ० [स० इष्ट +हिं० ना (प्रत्य॰)] चाह करना । ईतरता-संज्ञा स्त्री॰ [स० इतरता] भेदभाव । अन्यत्व । परायापन । | इच्छा करना । भिन्नता । उ०-ईहा और ईरपा भनौं । ईतरता कवह नहि ईठा --वि० [ स० इप्ट ] अभिलषित् । उ०-नानक वारवाँ होटु अनौं ।-सुदर० ग्र० मा० १, पृ० २१६ ।। अनत सुख ईठा !-—प्राण०, पृ० १४५ ।। ईति--संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खेती को हानि पहुचानेवाले उपद्रव । ये ईठि-- सझा फी० [ म० इष्टि, प्रा० इट्टि ] १ मित्रता । दोस्ती, छह प्रकार के हैं-( क ) अतिवृष्टि । (ख) अनावृष्टि । (ग) प्रीति । उ0-3हि सुने बर कर गहत दिठादिठी की ईङि। टिड्डी पड ना। (घ) चूहे नगना । (३) पक्षियों की अधिकता । गडी से चित नाही करति करि ललचाँही दीठि ।-बिहारी (छ) दूसरे राजा की चढाई । उ०-दसरथ राज ने इंति भय र०, दो० ५८२। २ चेष्टा । यत्न । उ०-सखियाँ कहैं सु साँच नहि दुख दुरित दुकाले । प्रभुदित प्रजा प्रसन्न सब सब सुख सदा है लगत कान्ह की हीठि । कालि जु मो तन तक रह्यो उभरयो सुकाल !–तुलमी ग्रे २, पृ० ६८ । २ वाघा । उ०-ग्रव राधे ग्राजु सो ईठि ।-भिखारी० ग्र॰, भा॰ १, पृ० ७।३ सखी । नाहिने उजनीति । सखि बिनु मिले तो ना दनि ऐहै कठिन उ०-लोन मुहू दीठिन लगे, यौं कहि दीन ईठि। दूनी ह्व कुर जि राज की ईति ।—सूर ( शब्द०)। ३. पीडा । दुख । लगिन नगी, दिएँ दिठौना दीठि -विहारी र०, दो० २७ ।। उ०-चारुनी ओर की वायु बहै यह सीत की ईति है बीस ईठी-सला जी० [देश॰] १ भाला । बरछा । २. दड । विसा मैं। राति वडो जुग सी न सिराति रह्यौ हिम पूरि दिशा विदिशा में ।-गोकुल (शब्द॰) । ईठी-- वि० [सं० इष्ट ] प्यारी ।। ईतिभय---सज्ञा पुं० [ स० ईति + भय ] ईति नामक विपत्ति की ईठी) --संज्ञा स्त्री० [सं० इष्टि] प्रीति । १०-लागे ने वार मृनाल के अाशका । तार ज्यों टूटेगी लाल हृमैं तुम्हैं ईठी ।-के शव ग्र०, भा० १, ईथर--सज्ञा पुं० [अ०] १ एक प्रकार का अति सूक्ष्म और लचीला पृ० २५ । द्रव्य या पदार्य जो समस्त पाप स्यल में व्याप्त है। यह अत्यंत ईठादाडू)-स० पुं० [हिं० ईठी+दढ] चौगान खेलने का डहा है। घने पदार्थों के परमाणु के बीच मे 'मी व्याप्त रहता है । ईडन-सज्ञा पुं० [सं०] प्रशसा करना ।' प्रशसना [को०)। उष्णता और प्रकाश का संचार इसी के द्वारा होता है । २. एक रासायनिक द्रव पदार्थ जो अलकोहल और गधक के तेजाब ईड़ा--सम्रा जी० [सं० ईडा = स्तुति [ वि० ईडित, ईयत ] स्तुति । से बनता है । प्रशसा । ३०--(क) कोन्हि विडीजा ईडि जिमि बार बार विशेप-चोतल में अलकोहल और गधक का तेजाचे वैराबर मात्रा सिंर नाय। कहू' अभय वर दोन्ह हरि पठ्यौ त्यहि समू में मिलाकर भरते हैं। फिर च ३ र उसे दूसरी बोतल में