पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५९२

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५२५, छ। क्रि० प्र०—लगाना । विशेष--भारतवर्ष में इसकी बुयाई चैत वैशाख में होती है। ईदर-सल्ला पु० [देश ०] अाठ दस दिन की व्याई हुई गाय के दूध कातिक तक यह पक जाती है, अर्थात् इसका रस मीठा है । को श्रौटाकर बनाई हुई एक प्रकार की मिठाई । प्योसी । जाता है और कढ़ने लगती है । इठलो को कोल्हू मे पेरकर रस ईन्नर । निकालते हैं । रस को छानकर कड़ाहे में श्रौटाते हैं । जब र । ई वन-सज्ञा पुं० [म० इन्धन] १, जलाने की लकडी, कोयला, कडा पककर सुख जाता है तव गुड कहलाता है। यदि व ५ ।' अादि । जलावन । जरवनी । उ०-विध न ईंधन पाइए सायर जुरे न नीर । पूरै उपम कुबेर घर जो वियच्छ रघुवीर - हुआ तो श्रौटाते समये काहे मे रेडी की गूदी का पुट देते : जिससे रस फट जाता है और ठढा होने पर उसमे कलमे १. तुलसी (शब्द॰) । २ किसी यत्र को गतिशील करने के लिये उसमें दी जानेवाली सामग्री या पदार्थ, जैसे-तेल, पेट्रोल, रवे पड़े जाते हैं। इसी राव से जूमी या चोटा दूर करके , कोयला अादि । ३ ऐसी बात जो क्रुद्ध व्यक्ति को और अधिक बनाते हैं। खाँड और गुड गला कर चीनी बनाते हैं। उत्तजित करने में सहायक हो । ईख के तीन प्रधान भेद माने गए हैं । ऊख, गन्ना और पौंदा।। ई--संज्ञा स्त्री० [स०] लक्ष्मी ।। (क) ऊख----इनका डंठल पतली, छोटा और कहा होता है । ई -सर्व० [सं० ई = निकट का संकेत यह। उ०—(क) कहहिं इसका कड़ा छिलका कुछ हुरापन लिये हुए पीला होता है और कवीर पुकार के ई लेऊ व्यवहार । एक राम नाम जाने विना जल्दी छीला नहीं जा सकता है इसकी पत्तियां पतली, छोटी, 'भव बुडि झुप्रा संसार |--कवीर ( शब्द०)। (ख) विरल नरम और गहरे हरे रंग की होती है। इसकी गाँठो मैं उतनी रमिक जन ई रस जान ।--विद्यापति०, पृ० ३०८ ! जटाएँ नहीं होती, केवल नीचे दो तीन गाँठो त के होती हैं। ई-न्यु० [सं० हिं०1 जोर देने का शब्द । ही । उ०पया ही इसकी अाँखें, जिनसे पत्तियाँ निकलती हैं, देवी हुई होती हैं । तिथि पइिए वा घर के चहुं पास । नित प्रति पून्यो ई है इसके प्रधान भेद धौल, मतना, कुसवार, लखडा,सौनी अादि आनन औप उजास ।-विहारी ( शब्द॰) । हैं। गुड चीनी आदि बनाने के लिये अधिकतर इसी की खेती ई-सज्ञा पुं॰ [ म० [ कामदेव [को॰] । होती है । (ख) गन्ना-यह ऊख से मोटा और ला होता है । इंकार--सज्ञा पु० [मं०] 'ई' म्वर अथवा दीर्घ ई का सूचक वर्ण [को॰] । इसकी पत्तियाँ ऊख से कुछ अधिक लवी और चौड़ी होती हैं। ईकारात---वि० [सं० ईकारान्त] (शब्द॰) जिसके अत में 'ई' हो । इमकी छिनका कडा होता है, पर छीनने से जल्दी उतर जाता वह शब्द जिसके अंत में ईकार हो । है । इसकी गाँठो मे जटाएँ अधिक होती हैं। इसके कई भेद ईक्ष---सच्चा स्त्री० [ म० इनु ] ३० ‘ईख' । उ०मयी सरकरा ईक्ष हैं, जैसे,--प्रगौल, दिकचन, पसाही, काला गन्ना, रस व्यापि मिठाई माहि । सुदर ब्रह्म मु जगत है, जगत ब्रह्म केतारा, बडौखा, तक्रा, गोडारा । इमसे जो चीनी बनती है। द्वै नाहि --सदर ग्रं॰, भा॰ २, पृ० ८०९ । उसका रंग साफ नहीं होती । (ग) पौंढा---यह विदेशी है। ईक्षक-मज्ञा पुं० [सं०] १ देखनेवाला । दर्शक । २ विचार या विमर्श चीन, मारिशस (मिरच का टापू), सिंगापुर इत्यादि से इसकी करनेवाला [को०] ।। भिन्न भिन्न जातियाँ अाई है इसका डंठल मोटा और गुदा ईक्षण---संज्ञा पुं० [म०] [ वि० ईक्षणीय, ईक्षित, ईक्ष्य ] १ दर्शन । नरम होता है । छिलका कडा होता है और छीलने से बहुत देखना । २ अखि । उ०—पंकज के ईक्षण शरद हॅमी (-बेला, जल्दी उतर जाता है । यह यहां अधिकतर रम चूसने के काम पृ० २२।३ दो (२) की सस्या का सूचक मान्दै (को॰) । ४. विवेचन । विचार । जाँच ।। में अतिा है । इसके मुख्य भेद शून, काला गन्ना और पौंछा है । विशेष—इसमे अनु, नि, परि, प्रति, अभि, अप, उप, या सम् राजनिघट में ईख के इतने भेद लिखे हैं-पौंड्रक (पढा) भीरुक, उपसर्ग लगाकर अन्वीक्षण, निरीक्षण,परीक्षण, प्रतीक्षण, अमी वंशक (बडौखा), शतपोरक ( मराठी ), कातार (कतार), | क्षण, अपेक्षण, उपेक्षण, समीक्षण अादि शब्द बनाए जाते हैं । तापसे, काष्ट्रेक्षु ( लखडी ), सूचिपके, नेपाल, दीर्घपत्र, ईक्षणिक, ईक्षणीक-सवा पु० [सं०] [स्त्री० ईक्षणिका] १ दैवज्ञ । नीलपोर (काला गैडा), कोणकृत (कुशवार या कुसियार) । ज्योतिषी । २. सामुद्रिक जाननेवाला । ईखत ---वि० [सं० ईषत् ] दे॰ 'ईपत्’ -नेद० अ०, पृ० १०० । ईक्षा अक्षा बी० [ स०] १ दृष्टि । दर्शन । २. विवेचन । ३. ईखना---- क्रि० स० [सं०, ईक्षण प्रा० इक्ख] देखना । अवग्रामज्ञान [को॰] । लोकना ।--( हिं० ) ।। विशेप - इसमें परि, अप, मम्, उर, प्र, वि श्रादि लगाकर पक्षिी , ईखराज-सज्ञा पुं० [हिं० ईख + राज ] ईख चने का प्रयम दिन । समीक्षा, अपेक्षा, उपेक्षा, वीक्षा अादि शब्द बनाए जाते हैं । ईच्छा-सा सी० [ स• इच्छा ] दे॰ 'इच्छा' । उ०--जो प्रमुन की ईसळा-या स्त्री० [ स० इच्छा 1 दे० 'Pr' । ईक्षिका–सझो लो० [सं०] देखने की इद्रिय । अछ । दृष्टि (को०] । | ईच्छा भई सो सही ।-दो सौ बावने, मा० १, पृ० २२६ ।। ईक्षित----वि० [सं०] १ दृष्ट । देखा हुा । २. विवेचित [को०] । ईछन-सा पू० [सं० ईक्षण = अखि, प्रा० ईच्छन] अाँख । उ०ईक्षितवि० [ ईक्षितृ ] देखनेवाला [को०] ।। दृगनु लगत वेधत हियहि, दिल करत अंग अनि । ये तेरे ईख-सच्चा स्त्री० [सं० इक्षु, प्रा० इक्षु शर जाति का एक प्रकार जिसके सवते विपम ईछन तोछने वान ई-विहारी र०, दो० ३४६ । । इठल में मीठा रस भरा रहता है । इसके रस से गुड़ चीनी ईछनापु)---क्रि० स० [सं० इच्छ7] इच्छा करना । चाहना । वृ०और मिस्त्री आदि बनती है। डेठल में ६-६ या ७•७ अगुल पर बाहिर 'मीतर भीतर बाहिर ज्यौं कोउ जाने त्या ही करि ईछो । गाँढे होती हैं और सिरे पर वहुत लबो लबी पत्तियां होती हैं। जैसी ही प्राप्नो भाव है सुदर तैमोहि है दू खालि के जिन्हें कृढ़े हैं। छो -सुदर० ३ ०, भा॰ २, पृ० ५७९9 ।