पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५९०

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इस्तिलहि वह अौजार जिससे वह धोने अौर सुखाने के बाद कपड़े की इस्सर -सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ईश्वर' । उ०---(क) अाई पर तह को जमाकर उमकी शिकन मिटाता है। इसके नीचे का गुरुनाथ गोमाई। पंथ वीव इस्सर की नाई । इद्रा०, पृ भाग जो कपड़े पर रगडा जाता है, पीतल या लोहे का होता १५५ । (ख) इस्सर पैरों दरिद्दर निकम -( लोक० )। है । उसके ऊपर एक खोखला ( हवादार ) स्यान होता हैं, इह--क्रि० वि० [सं०]इस जगह । इस लोक मे। इस काल मे । यहाँ जिममें कोयले के अंगारे भरे जाते हैं । इह -संज्ञा पुं॰ यह स सार । यह लोक ! ३०----हृदय के जगते उ इस्तिलाह- संज्ञा स्त्री० [अ०] १ परस्पर मधि करना । २ परिभाषा निवेदित इह के निवासी ।----हरी घाम0, पृ० १६१ सिद्ध शेर्थ । परिभापिक शब्दावली [को०] । यो०-इहामुत्र । । इस्तिस्नाय–सच्चा पु० [अ०] १ पृथक करना । अलग रखनी । २ इह-सबं० [हिं०] १० 'बहू' । उ० ते मर डाँडन अवनने माँही । अपवाद होना [को०] । | पुरुपराव इह पौरुप नाही ।—नद ग्र०, पृ० १३५ । इस्तिहकाम--सज्ञा पुं० [अ०] दृढता । स्थिरता । पायेदारी [को०] । इहइ--सर्व० [हिं० यह+ही] दे० 'यही । । इस्तीफा----सा पु० [अ० इस्तीफा नौकरी छोडने मी दरख्वास्त । इहकाल-सज्ञा पुं० [सं०] इस लोक का जीवन । लौकिक जीवन (को०] काम छोडने का प्रार्थनापत्र । त्यागपत्र । इहतिमाम--संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'एहतमाम' (को०)। क्रि० प्र०-देना। ईहतिमाल-सज्ञा पुं॰ [अ॰] [वि० इहतमाली] १ स भावना । २. इस्तेदाद--संज्ञा स्त्री० [अ०] विद्या की योग्यता । लियाकत । विद्वत्ता।। सदेह को०) । इन्तेमाल-सज्ञा पुं० [अ०] प्रयोग । उपयोग । व्यवहार । इहतियाज-सज्ञा पुं० [अ०] १ अभाव । अावश्यकता । २ अवसर! क्रि० प्र० - करना । —मे आना |---मे लाना ।—होना । इहतियात–सज्ञा स्त्री० [अ०] १ सावधानी। खबरदारी । उ० इस्त्रि, इस्त्रो -सज्ञा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'स्त्री' । ३०-~--(क) चार दिल के तई गिरह से कभी खोलती नही । है जुल्फ को भी अपने वरग जो लिग के भाषा मे नही होइ । स्त्री पुस नपु सकहि परेशाँ की इहतियात ---कविता को ०, भा० ४, पृ० १६१ । इस्त्रि नप सक जोइ ।—पोद्दार अभि० ग्रे०, पृ० ५४४ । २. रक्षा । बचाब । उ० -दागों की अपने क्यो न करे दर्द (ख) वर वृक्ष को इम्त्री भांवरि देति है 1-भिखारी० ग्र ०, परवरिया । हर वागवा करे है गुलिस्त की इहतियात ।--- 'मा० २, पृ० १५७ । कविता कौ०, भा० ४, पृ० १६१ ।। इस्त्री-मज्ञा स्त्री० [स० स्तरी, हि० इस्तिरी] दे० 'इस्तरी' । यौ--इहतियाती कार्रवाई = अनिष्ट को रोकने के निये किया इस्त्रीजित–वि० [म० स्त्रीजित्] स्त्रियों का गु नाम । श्री मक्त । जानेवाला प्रयास । उ०---कोड कहै ये परम धर्म इस्त्रीजित पूरे । लछ लाघव इहतियातन्-क्रि० वि० [अ०] सावधानीपूर्वक [को । सान घरे अायुध के सुरे।–नद० ग्र०, पृ० १८१ । इहतिलाम-संज्ञा पुं० [अ०] स्वप्नदोष (को०]। इस्थिर)---वि० [म० स्थिर] दे० 'स्थिर । ३०---(क) कहै कबीर इहलीला--संज्ञा स्त्री० [सं०] इस लोक का जीवन था उससे संबद्ध सुनो भाई साधो करो इमियर मन ध्यान |--कवीर शा०, ६० समस्त क्रियाकलाप (को०] । ३. प० २० । (ख) बढा बारा ज्वान नहीं है कोई इस्थिर।-- इहलोक-संज्ञा पुं० [सं०] यह संसार । जगत् । दुनिया । उ०—कित पलटू०, भा० १, पृ० ५४ ।। वह शीघ्र ही इहलोक मे अाने के लिये विवश है। -रगइस्नान--संज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'स्नान' । उ०--प्रा जा क्या त भूमि, पृ० ४७३ । मयमो क्या व्रत वया इस्नान --कबीर ग्र०, पृ० ३२९ । इहलौकिक-वि० [म०] इहलोकसंधी । इम नोक का । ससारिक । इस्पज-- संज्ञा पुं० [हिं० इसपंज] दे॰ 'इसपन' ।। २ इस लोक में सुख देनेवाला। इस्पंद--सज्ञा पुं० [फा०] राई । । इहवाँ--क्रि० वि० [स० इह] इस जगह । यहाँ। मुहा०-इस्पंद करना= बुरी नजर दूर करने के लिये गई जलाना! इहवै--क्रि० वि० [स ० इह] यही । इसी स्थान पर। • [अ० स्पीच] वक्तृता । 'भापण । लेववर ! उ०- इहसान--संज्ञा पुं॰ [अ॰] दे० 'एहसान' । करनी कछ नहि देत जग सिच्छा की इस्पीच |---प्रेमपन०, इहाँ’---क्रि० वि० [हिं०] दे० 'यहाँ । उ०-कहइ फरहू किन कोटि भा० १, पृ० १६१ । उपाया । इहाँ न लागि हि राउरि माया |--मानम्, २ । ३३ । इस्म--सज्ञा पुं० [अ०] नाम । सज्ञा । इहामुत्र-- -सज्ञा पु० [सं०] यह लोक और परलोक । ३०- म्वगदिक यौ०-इस्मनवीसी =(१) गवाहों की सूची । (२) किमी गवाही, की करिय न इच्छा इहामुत्र त्यागै मुख दोइ ।—मु दर० ग्रे ०, नौकरी या जगह के लिये नामजद करने का कार्य । ३ पटवारी 'भा० १, पृ० ४० । की जगह के लिये जमीदार की किसी व्यक्ति का नाम चुनना। इहामृग---संज्ञा पुं० [स० ईहामृग ] ६० 'हामृग' । । इस्लाम--सज्ञा पु० [हिं०] १० ‘इमनाम' । उ०—–बुतपरम्ती को तो इहि सर्व० [हिं०] ६० 'यह' । उ०-कहने लगे इहि भवन कौन इस्लाम नहीं कहते हैं।--कविता की, 'मा० ४, पृ० १२६ } के ।-नद० ग्र ९, १० २१४ । २ ३० इस' । ३०--निह काल इस्लोक----संज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'लोक' । उ०--कथा हो कवित मैं प्रगट प्रभु प्रगट न इहि कलिकाल --नद० ग्र०, पृ० १४३ । इस्लोक रसरी बर्ट वर्क बहू वाय मुज मूढ़ मारी -कवीर रे०, इहै--सर्व० [हिं०] दे॰ 'यही' । उ० •घरनी धन धाम सरीर भा॰ २, पृ० ५। भलो सुरलोकहुँ चाहि इहै सुख स्वं ।-तुलसी प ०, १० २०७।