पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५७७

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तवंत ५१० इतीत दफ्तर या वैही जिसमें दस्तक र समर्ने अदि के जारी होने पूर्णता । उ०८-- कागजी वृडदौड में है अाज दनिकांपता । और उनके तलवाने के आयव्यय का लेखा लिखा जाता है ।। --- गति०, पृ० १२५ । ३. मीमाि या ग गंवटि में पह यौ०--इतलाकनीस = वह कर्मचारी जो इतलाक में काम फरे अर्थवाद बौधित वाक्य जिसमें किसी में 1 प्रणा प्रौर उनके या इतलाक का हिसाब रखे । करने के विधान का बोध हो । इतिमात्र--वि० [न ०] इतना ही। इस प्रा डा है। [य] । इतवत-क्रि० वि० [सं० इतस्तत , प्रा० *इतवतः हि इतउत] इतिय - वि० [दा०] १० 'इतना' । उ०--- वडि मार प्रादुर इधर उधर । उ०-उझकत इतवत देखि चलत ठठकत छवि इतिय ज्यो इटूरिय दूद धर ।-१० १०, १३ । ११६ । पावत ।-व्रज० ग्र०, पृ० ६२ । इतिवृत्-क्रि० वि० [न०] इग प्रकार । इस ग १ (०] । इतवरी- सज्ञा स्त्री॰ [स०] दे० 'इत्वरी' । इतिवृत्त--संज्ञा पुं० [स०] १. पुर।वृन । पुरानी का । २ पहानी । इतवार-सज्ञा पुं० [सं० आदित्यवार, प्रा० अाइतवार = ऐतयार] शनि । | किस्म ।। और सोमवार के बीच का दिन ! रविवार । इतिश्री-सज्ञा मी० [१०] समाथि । अंत । जंगे,-परगजे नै । इतस्तत ---क्रि० वि० [सं०] इधर उधर । यहाँ वहाँ । मुगलों के राज्य की इतिश्री ३: । उ०---77 में इतनी है। इतrq--वि० [सं० इयत् प० इयन्त, प्रा० *इतन, हि० इतन, इतना] चुकी इके ग्रलि उत्कर्ष की । -भारत), १० २।। इतना । इस गाथा का । उ०-(क) बडा जु बोल मुख नन्हिया, इतिह-क्रि० वि० [१०] इम् प्रकार निश्चय ही (०) । इता बोल सिर पर धरै !--० ०, ६४।१२८ । (ख) । | इतिहास-मज्ञा तु० [सं०] १ बोती हुई प्रसिद्ध पटेनासं भर उनमें साचा मुह मोई नही अर्थ इता ही दूझ ।-दादू०, पृ० ३८५।। मध रखनेवाले पुरुषों का काले' म ने वर्णन । तयारी । इता व्रत -- सज्ञा स्त्री० [अ०] आज्ञापालन् । तावेदारी । उ०--‘इन की उ०---यद्यपि हमे इतिहास अपनी प्राप्त पूर है नही ।-- वैसे ही इज्जत और इताअत करते हैं। प्रेमघन॰, भा० 'भारत०, १० ४ । २ यह नमः जिसमें वो 5 प्रनिद २, पृ० ६२ । । पटनाग्रो गौर भूत पुरुषों का न हो । उ०---प्रब । क्रि० प्र०—करना ।---माननी। ‘लिपित मुनि' का नाति उह निप्रित ३ इनिहा। मै ।-- इताति-सज्ञा स्त्री० [अ० इताअत] दे॰ 'इताअत' । उ०----को है। भारत०, पृ० १० । १ fनी विरग में गवति तथ्यों का | जागजाल जो न मानत इताति है !---नुलसी प्र०, पृ० २५५ । आदिकन्नि से वर्तमान समय तक 7 क्रमबद्ध वन । ॐ --- क्रि० प्र०--मानना = प्रज्ञा या हुकम मानना । ३०-निमि वासर कि मी शन्त्रि , गला, सन्त मा इनिन । ४. गया । ताकहें भलो, माने राम इतीति ।-ग्र ०, पृ० ११५ । वृत्त । ३० --दरी अनंत काले मामन का, यह जव उच्छ पत्र इताव--सज्ञा पुं० [अ०] क्रोध । कोप । गुस्सा [को॰] । इतिहास ---कामायनी, पृ० ३६ ।। यौ०-- इतावनामा = कोच, नाराजी या विरोध व्यक्त करनेवाला यौ०--इतिहासकार = तिहाग लिने । दनिवृत 7 । पत्र । इतिहासज इतिहास की जानका: । इतिहमने ता = इति-अव्य [सं०] समाप्ति सूचक अव्यय । इतिहास छ । इति-सहा स्त्री० [सं०] समाप्ति । पूर्णता । जैसे,—प्रब तुम्हारी इते--वि० [हिं०] ३० 'तो'। ३०--टुन घटे पटिहै कहा जो न पढ़ाई की इति हो गई । २. गति । गमन । ३ ज्ञान (को०) । घर्ट हरि नेह् !-—तुलसी ग ०, पृ० १ १ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।। इतेका--वि० [f६० इ त+एक] इतन! एक । इतना है यौ०--इतिकर्तव्यता । इतिवृत्त । इतिहास । इतिश्री । इते---फि० वि० [न० इत] इधर। इस तरफ । इरा पोर। उ० - इति-क्रि० वि० इस प्रकार । ऐसा । उ०—(क) अचर-च-रूर हरि मोहन भानि मनायौ मेरो। हीं बनिहारी नः नंदने को, सर्वगत सर्वदा वसते, इति वासना धूप दोर्जे ।--तुलसी ग्र०, पृ० नेकु इतै हँसि हेरौ ।--चुर०, १० । २१६ । ४७६ । (ख) इति वदत तुलसीदास -तुलसी ग्न ०, पृ० ७८। मुहा०---इते उत= दे० 'इतउत' । ३०---उमदे जथै मुददंदै इतिक-वि० [सं०] चलता हुआ । गतिशील (को०] ।। उछालें । तव तोरि तार इतउत्त घाल। पद्माकर ग्र ०१०२७६ । इतिक -वि० [हिं०] दे० 'इतेक' । उ०—पन किती फहरि क्रप्पन्न इतो, इतौG - वि० [सं० इयत् = इतना] [वी इतो] इतना । होइ । इतिक बिदा सजि चद को 1--पृ० रा०, ६१ । ८८६ । इस मात्रा का । निदिष्ट मात्रा की। उ०—(क) कुटिल अलक इतिकथ-fi० [२०] १ अविश्वसनीय । २ नष्ट । अश्रद्धेय (को) । युटि परत मुख, वढिगौ तो उदीत । चक धिरी देत ज्या इतिकथा--सज्ञा स्त्री॰ [सं०] अविश्वसनीय एव निरर्थक बात [को०] । दम रुपैया होत ---बिहारी (शब्द०) । (२) गेरे जाने इतिकरणोय-वि० [स०] ६० ‘इतिकर्तव्य' (को०] । इन्हे वोलिये कारन चतुर जनक ठयो ठाः इतौ री। --तुलसी इतिकर्तव्य--वि० [सं०] जिसका करना आवश्यक और उचित हो । ग्र ०, पृ० ३०८ । (ग) ले नै मोहन, चुदा ले । सूरदास प्रभु उ०—केवल प्रचलित प्रणाली का निर्वाह करना मात्र अपना इती वात को कत मेरे लाल हठ ।--मूर०, १० । १६५। इतिकर्तव्य मानते हैं। प्रेमघन॰, भा० २, पृ० ५१ । | इतौत -क्रि० वि० [हिं० इत+उत] इधर उधर । उ०—चदं इतिकर्तव्यता--सद्या स्त्री० [सं०] १. किसी काम के करने की विधि । उदौत इतौत चितौत की सयको चख चारु चकोरी ।परिपाटी । २, कर्म की पराकाष्ठा । कर्तव्य की समाप्ति या भिखारी० अ०, भा० १, १० १५०।