पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५७६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

ईतकाद ५०६ " ईतलक इतकाद-सज्ञा पुं० [अ० एतकाद] दे० 'एतकाद' । उ०—तुम करौ यौ०-इतरदान = इत्र रखने का पात्र । ईतरफरोश = इत्रविक्रेता । तयारी मव इमवारी, मैं दिन यह इतकाई करयौ ।-सुजान०, इतरत., इतरत्र-क्रिद् वि० [सं०] १ अन्यथा । व्यतिरिक्त । २. दूसरी पृ० १४ । | जगह पर । अन्य स्थान पर को०] । इतनक-वि० [हिं० इतना + (प्रत्यo)] इतना। थोड़ा। उ०- इतरथा-क्रि० वि० [सं०] अन्यथा [को०) । (क) जानै कटा कटाच्छ तिहारे कमलेन मेरी इतनक सो इतराज-सज्ञा पुं० [अ० एतराज] ३० एतराज' । । सूर०, १०१३०५ । (ख) सदर विरहिन दुखित पवि इतराजी-सज्ञा स्त्री० [हिं० इतराज + ई (प्रत्य॰)] विरोध । विगाह । नहीं पावरी । (परि हो) इतनक विप अब वोटि सखी मुहि नाराजी । उ०-वडी मीत तुवे मिलन को, चित राजी को पावरी ।-सुदर० ग्र०, भा० १, पृ० ३४१ ।। चाव । इतरजी मत कर अरे, इत राजी है अवि-स० सप्तक, इतना -वि० [सं० इयान् इयत्, पा० इयन्त प्रा* इयतन अथवा हि० पृ० २१९ । ६० यह +तना (प्रत्य॰)] [जी० इतनी इन मात्रा का । इस इतराना-क्रि० अ० [सं० इतर अथवा स ० उत्तरण, हि० उतराना या कदर । उ०—(क) इतनासुखे जो न समाता अतरिक्ष मे, जल देय ०] १. सफलता पर फूल उठना। घमड करना । मदाध यल मे ।-प्रसू. पृ० ४९ । (ख) जनु इतनी विरंचि करतूती । होना । उ०—(क) बडो वडाई नहि तजे, छोटो बहु इतराय । तुलसी (शब्द॰) । ज्यो प्यादा फरजी भयो, टेढो टेढो जाय ।-कबीर (शब्द॰) । मुहा०-- इतने मे = इसी बीच मे। इसी समय 1 उ०-इतने में (ख) जस थोरे घन ख न इतराई ।—मानस, ४५१४ । २ रूप रन ठौर रुधिर नदी प्रगटत भई । गज हुये सुमट करारे छिन्न और यौवन का घमड दिखाना । ठसक दिखाना। ऐंठ अंग ह्व है गिरे ।-(शब्द॰) । दिखाना। इठलाना । उ०-प्रव काहू के जाउ कही जनि इतनी -वि० [हिं०] दे॰ 'इतना' । उ०-सब को न कहें, तुलसी प्रवति हैं युवती इतरात । सुर -(शब्द०) । के भते इतनी जंग जीवन को फनु है ।-नुलसी० ग्र०, पृ० २०६॥ इतराहट -सज्ञा स्त्री॰ [हिं० इतराना] इतराने का भाव । दर्प । इतफाक-संज्ञा पुं० [अ० इत्तफ़कि] दे॰ 'इत्तफाक' । उ०-हाट । घमड । गर्व । ३०--जीवन के इतराहट सौ अठिलाट अशे जिका कुल ऊबर्ट, छठवाट इतफाक ।-बाँकी० अ ०, भा० टटि ऐंठनि ऐठि -देव (शब्द०) । १, पृ० ६४ । | इतरेतर-क्रि० वि० [सं०] परस्पर । आपस में । इतवार-संज्ञा पुं० [अ० एतवार विश्वास । प्रतीति । उ०—(क) । | इतरेतरयोग-संज्ञा पुं० [सं०] १. परस्पर संबंध । २ एक प्रकार का सार शब्द से बाँचियो मानौ इतबार ।—कबीर श०, भा० १, द्वद्व समास जिसमे दो जाति के केवल एक एक व्यक्ति का पृ० ५०। (ब) ऐसे घर में जो बस वाको क्या इतबार । समावेश होता है । हिदी मे समास का यह भेद नहीं है। कविता कौ०, भा० ४, पृ० ३५ ।। | इतरेतराभाव-संज्ञा पु० [सं०] न्यायशास्त्र में एक के गुणों का दूसरे इतवारी-वि० [हिं० इतवार+ई (प्रत्य॰)] एतवार के योग्य ! में न होना । अन्योन्याभाव । जैसे,—गाय घोडा नहीं, क्योकि विश्वासपात्र । उ०—ोरि न रष्यो पोरिया जे इतवारी। गाय के घमं घोडे में नहीं हैं। वाम -पृ० ०, ६३ । २०४ । इतरेतराश्रय-सज्ञा पुं॰ [सं०] तर्क में एक प्रकार का दोप। इतमाम-सज्ञा पुं० [अ० इहतिमाम= प्रबव] इनाम । बदोबस्त । विशेप-जव एक वस्तु की सिद्धि दूसरी वस्तु की सिद्धि पर प्रवछ । उ०-नाहि तखत बैठारि धारि सिर छत्र जटित जर। निर्भर हो और दूसरी वस्तु की सिद्धि भी पहली वस्तु की चेंबर मोरछन ढारि कियो इतमाम ग्राम घर-सूदन (शब्द०)। सिद्धि पर निर्भर हो, तव वहाँ पर इतरेतराश्रय दोप होता है । इतमीनान-मज्ञा पुं० [अ०] विश्वास । दिलज मई । सतोप । उ० जैसे--परलोक की सिद्धि के लिये शरीर से पृथक् प्रसिद्ध दिल के लेने को जमानत चाहिए, और इतमीनान जामिन के जीवात्मा को प्रमाण मे लानी या जीवात्मा को शरीरातिरिक्त लिये । कविता को०, भा० ४ पृ० ५५६ ।। सिद्ध करने के लिये प्रसिद्ध परलोक को प्रमाण में लाना । क्रि० प्र०—करना । जैसे—नुम अपना हर तरह से इतमीनान कर लो, तव मकान खरीदों (शब्द॰) ।-कराना 1-देना । इतरेद्य-क्रि० वि० [सं०] दूसरे दिन । अन्येद्य [को॰] । होना। जैसे–'अब तुम्हारी बातो से हमें इतमीनान हो । इतरे-क्रि० वि० [सं० इत • पर] इतने में । इसके उपरात । उ०गया (शब्द०) । इतर एक माली ले प्रावी ग्रानने अागलि प्रादरस ।-वेलि०, यौ--इतमीनाने कल्व= हदय का विश्वास या सतोप ।। दू० ८३ ।' इतमीनानी-वि० [अ० इतमीनान फा० ई (प्रत्य॰)] विश्वास पात्र । इतरौहाँ-वि० [हिं० इतराना +ौहाँ] (प्रत्य॰)] जिससे इतराने का विश्वासनीय । । भाव प्रकट हो । इतराना सूचित करनेवाला । उ०—रहे परम इतर-वि० [सं०] १ दुमरा। ऊपर। और अन्य । उ०-बेटा पद साधत वीच परी चाह चकचौह । रतन खोइ के कोट्टी पाई इतर पदार्थों की क्या गणना है, मेरे शरीर की अब रक्त भी चाल चले इतरौंह ।-देवस्वामी (शब्द०) । शेष नही । भारतेंदु ग्र०, मा० १, पृ० ५१० । २. नीच । पामर । साधारण । ३०-मह परत सुमन रस फल पराग । इतलाक--ज्ञा पुं० [अ० इलाक] १. जारी करना । इजराये । २. जनु देत इतर नुय कर विभाग नुनसी अ'०, पृ० ३४९ । घघनमुक्त करना । खोलना । ३. बोलना । क्वयन । ४, बुवा तर*-सज्ञा पुं० [अ० ] दे॰ 'अतर' । के लेने की०, अपना ह क