पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५७२

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इक्षुयष्टि इक्षुष्टि -सज्ञा स्त्री० [सं०] ईख [को॰] । ईखेलाक-सज्ञा पुं० [अ० अखलाक व्यवहार । आचरण । उ००५ इक्षुर--सज्ञा पुं० [सं०] १ गोखरू। २. तालमखाना । ३. गन्ना (को०] । उनका जितना सदाचार और इखलाक है, सब मर्दो का बनाया इक्षुरस----सच्चा पुं० [सं०] १ ईख का रस। २. कास । ३ राव (को॰] । हुआ -ज्ञानदान, पृ० ११७ । इक्षुरसवल्लरी-+-सज्ञा स्त्री० [ सं० 1 क्षीरविदारी । दधविदारी । इखलाकी--- वि० [ हि० इखलाफ ] आचरण या व्यवहार सवधी । | महाश्वेता । । व्यावहारिक । उ०--‘मसायव का इखलाको पहलू भी होता इक्षुरसोद-संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार सात समुद्र में से एक जो है।'----गोदान, पृ० ३६।। ईख के रस का है ।। | इखलास--सज्ञा पुं० [अ० इखला] १ मेलमिलाप । मित्रता । उ0इक्षुर्वण-संज्ञा पुं॰ [सं०] ईख का इठल [को०] । तू जा सुजान हि पास । हमसौ करे इखलास !-सूदन (शब्द॰) । इक्षुवल्लरी---सज्ञा स्त्री० [म०] १. पीले रग की ईख । २. क्षीरकद। २ प्रेम । भक्ति । प्रीति । उ० –कुल अालम इके दीदम अखाहे क्षीरविदारी को । इखलास । बद अमल वेदकार तुई पाक यार पाम ।—दादू इधुवाटिका--संज्ञा स्त्री० [म०] १. ईख की एक जाति । पृडूक । पौंडा। ( शब्द०)। ३. सबध । साविका । | १ ईख का खेत या फारम [को०] । क्रि० प्र०—जोड़ना = बढ़ाना। इशुविकार---पझा पुं० [सं०] गुड़, रवि आदि ईख के रस के छह ह । इखु स ज्ञा पुं॰ [सं० इषु ] ‘इपु' । उ ०-अमर अधिप बारन बरन २. कोई भी मीठा पदार्थ (को०] । दुसर अंत श्रृंगार । तुलसी इखु सह रोगघर तोरने तरन इक्षुविदारी-मज्ञा स्त्री० [सं०] विदारीकद । अघोर--से० सप्तक, पृ० १६ । इक्षुवेष्टन--संज्ञा पुं॰ [सं०] गन्न की एक किस्म [को०] । इख्तियार--सज्ञा पुं० [अ० इस्तियार] १ अधिकार। २ प्राधिकारक्षेत्र। ३. सामर्थ्य । काबू । जैसे,—यह बात हमारे इख्तियार के बाहर इक्षुशर-सन्ना पुं०स०] एक प्रकार का कासे और उसका जगल [को०] ।। की है । ४ प्रभुत्व । स्वत्र । जैसे,---इस चीज पर तुम्हारा इक्षुशाकट-संज्ञा पु० [स ०] गन्ना वने लायक खेत [को०] । कुछ इख्तियार नहीं है । ५ स्वीकार ग्रहण । मजूर } 10इक्षुसमुद्र--सज्ञा पुं॰ [सं०] पुराणोक्त सात महासमुद्र में एक सख्त काफिर था जिसने पहले मीर, मजहने इश्क इब्तियार नाम [को०] । | किया ---कविता कौ०, भा० ४, पृ० १३१ ।। इक्षुसार--संज्ञा पुं॰ [सं०] इक्षुविकार। गुड अादि (को॰] । क्रि० प्र०—करना= स्वीकार करना । अपनाना । ग्रहण करना । इक्ष्वाकु'.--सच्चा पुं० [सं०] १. सूर्यवंश का एक प्रधान राजा । यह ३०--ौर पेशा भी दूसरे का इख्तियार नहीं कर सकती है। पुराणों में वैवस्वत मनु को पुथ कहा गया है। रामचद्र इसी । भारतेंदु अ ०, भा० १, पृ० २४९ । के वश के थे । ३ इक्ष्वाकु के वश का व्यक्ति (को०)। यौ०---इख्तियारे समाअत= विचार करने का अधिकार । यौ०-इक्ष्वाकुनदन, इक्ष्वाकुवंशी == इक्ष्वाकु के पुत्र । । इख्तिलाफ संज्ञा पुं० [अ० इख्तिलाफ ] १. विरोघ । विभेद । । विभिन्न त। अंतर। फर्क । २, अनवन । यिगड । इक्ष्वाकु --सच्चा स्त्री० कडवी लौकी, तितलौकी ।। यौ०--इख्तिलाफे राय = विचारवं मत्थे । मतभेद ।। इक्ष्वारि--सम्रा पु० [सं०] ईख का, दुश्मन--कास को०] । इगारहG:--वि० [हिं०] दे० 'ग्यारह' । उ०—सत जो धरै सो खेलन इवालिका--संज्ञा स्त्री॰ [स] १. नरकट । नरकुल । २ सरपत । हारा | ठोरि ईगरिह जाई ने मारी ।-जायसी यू ०,१० १३७ । मूज । ३ काम ।' इगारहों-वि० [ हि० इगारह] एकादश को सख्यायाला । दस और इखद---वि० [सं० ईषत् ] दे॰ 'ईषत् । । एक की सख्यावाला । उ0-सभा सभासद निरपि पद पकरि इसफाय--सच्चा पु० [अ० इ०फाय] प्रकट न करना | गोपन । छिपाव उठायो हाथ । तुलसी कियो इगारह वमनवेप जदुनाथ । तुलसी ग्न ०, पृ० ११७ । यौ०---इखफाये जुर्म, इखफाये वारदात = कानून में किसी पुरुष का इग्यारस -संज्ञा स्त्री० [सं० एकादश] दे॰ 'एकादशी' । उ०—पाहण किसी ऐसी घटना को छिपाना जिसका प्रकट करना नियमा वरत इग्यारस पारस सामंत कुसुम कज समीर -रघु० ८०, नुसार उसका कर्तव्य हो । पृ० २५५ । इखरना--क्रि० अ० [हिं० बिखरना का अनु०] विखरना । इधर इग्यारह---वि० [हिं०] दे॰ 'ग्यारह' ।। उधर गिरना । इग्यारी -संज्ञा स्त्री० [हिं०] १• 'अय्यारी' । विशेष ---इम शब्द का प्रयोग 'विखरना' शब्द के साथ होता है। इचकना--क्रि० अ० [दश०] क्रोध से दाँत या बीन निका नना । यौ०--इखरना बिखरना = इधर उधर हो जाना । किसी भी वस्तु इचन--सज्ञा पुं० [हिं० इचना] खिचाव । तनाव । ऐ चन । उ०-- का इतन्तत , हो जाना (वोल० ) ।। नीकी नासापुट ही की इचनि अचभे भरी, भुरिगे इचनि म ईवराज-सज्ञा पुं० [अ०] १. निकास । खर्च । ३ वहिष्कार [को०] । न क्योहू मन ते मुरै ।--यनानद, पृ० ३२ । इचना--क्रि० स० [हिं०] ६० "ऐ चना' । उ०-डीfठ मिचि जात [को०] ।