पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५६८

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| ईंटाई ५०१ इंटाई -संझा स्त्री० [हि ई ट] एक प्रकार का पड्क। पेडुकी । निश्चय । निश्चय करके । अवश्य । उ०--जे तेव होत दिखाइँइहर--सञ्ज्ञा पुं० [सं० पिप्ट+हि० हर (प्रत्य०) ] उर्द की दाल से दिखी, भई श्रमी एक अकि । देगे तिरछी दीठि अव ह्व बोळी बना हुअा एक सालन । उ0--अमृत ईंडहर है रम सागर । को डाँक |--विहारी र०, दो० ६१५। (ख) यदपि लोग वेसन सालन अधिक नागर (--सूर०, १०। १२१३ । ललित तऊ तु न पहिरि इक अक। सदा साँक वढियें रहै। विशेष—यह इस रीति से बनता है उर्द और चने की दाल । रहें चढ़ी सी नॉक |--विहारी र०, दो० ६८५ ।। एक साथ मिगो देते हैं, फिर दोनों की पीठी पीसते हैं। पीठी इकइस(--वि० [हिं०] दे॰ 'इक्कीस' । में मसाला देकर उसके लबे लवे टुकड़े बनाते हैं। इन टुकडो इकचोविया- सज्ञा पुं० [हिं० इक+चोब] एक चोव अर्थात् वल्लीको पहले अदहन में पकाते हैं, फिर निकालकर उनके और वाला तंबू या डे। वह तबू जिसमे एक ही चोय लगती हो छोटे छोटे टुकड़े करते हैं । अत में इन टुकडो को घी मे तन्नते (बोल०) । हैं और रस लगाकर पकाते हैं । इकछत--वि० [स० एकच्छत्र दे० 'एकछत्र' उ०---जो नर इंदुप्री -मज्ञा पुं॰ [देश॰] दे॰ 'इंडूवा' । इकछत भूप कहावै । महासन पर बैठे जतही चेंबर इंडरी - सा ही० [सं० कुण्डली] ] डरी 1 विडई । विडवा । दुरावे ।- चरण० वानी०, पृ० ९४ ।। गेंडरी । इकजोर---क्रि० वि० [स० एक+हि० जोरना = जोड़ना] इकट्ठा। इंड्या(f-सज्ञा पुं० [म० कुण्डल] कपडे की बनी हुई छोटी गोल गद्दी । एक साथ । उ० --देखु सुखि चारु चंद्र इक जोर । निरखत वैठि जिसे वोझ उठाते समय निर के ऊपर रख लेते हैं । गेंडरी । नितदिन पिय सँग सार सुता की ओर ।-सुर (शब्द॰) । इणिपु–सर्व० [देश २] ६० 'इन' । ३०-साई दे दे सज्जुना, रातइ इकट--संज्ञा पुं॰ [सं०] सरकडे का गोप्फा मा को रल को०] । ईणि परि रुन - ढोला० ८० ३७७ ।। इकटक---क्रि० वि० [हिं० एकटक] एक दृष्टि से । लगातार । बिना ईदासज्ञा पुं० [म० प्रन्यु, या मं० ईद =जल +घर = घारण करने दुष्टि हटाए । उ०—इकटके प्रतिबिंव निरखि पुकत हरि | वाला] कूअ । कूप । हरपि हरपि, ले उग जननी रसभंग जिय विवारी ।-तुलसी इंदारुन-सा पु० [सं० इन्द्रवारुणी] इद्रायन । माहुर । ग्र ०, पृ० २८१ । इधुप्री--सच्चा पुं० [देश॰] इंदुरी। गेंड्री । वे ड्ड । इकटग -क्रि० वि० [हिं॰] दे॰ 'इकटक' । उ०--इकटग ध्यान रहे इंदोर-सञ्ज्ञा पुं० [म० इन्द्रवारुणी] दे॰ 'इँदाऊन' । उ०-~-बहुत त्यो लगै छाकि परे हरि रस पी 1--दादू० वानी, पृ० ५६६। जतन भेख रचो बनाये बिन हरि भजन ईदोधन पाय ।-- इकट्ठा--वि० [सं० एकस्थउ प्रा० इकट्ठा एकत्र । जमा । गुनाल०, पृ० ५ । क्रि० प्र०-~~-करना ।—होना । इंघरौड़ा-सा पुं० [सं० इन्धन+हि० श्रीड़ा (म० अालय] ई धन इकठा -वि० [हिं०] दे॰ 'इकट्ठा' । उ०—ती ये नाना कर्म विचित्र । | रखने की कोठरी । इधनगृह । गोठला ।। इकठे रहन न पावे मित्र {-नद० ग्र०, पृ० २३६ । नारुन --संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'हुँदारुन', उ०-विनु हरि भजन इकठाई -वि० [एक-+ठाई = स्थान] एक स्थान पर या एकत्र । ईनारुन के फल तजत नही करुझाई -तुलसी ग्रे ०, पृ० ५४६ । उ०- जव सव गाइ भई इकठाई --सूर०, १०। ६१४ । ई-संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव । २. १०० की सय [को०] । इकठेन --वि० [हिं० इकठा ] इकट्ठा । एकत्रे । उ० • सुनते ही सब इ-अव्य० क्रोध, तिरस्कार, सहानुभूति, संबोधन, आश्चर्य दु ख प्रादि हाँकि ल्याए गाइ करि इकठेन ।—सूर०, १० १ ४१७ ।। का व्यंजक अव्यय (को०] । इकठौर-वि० [हिं० इक + ठौर= स्थान एक स्थान पर । एकत्र । इक्रक--क्रि० वि० [अ० एक, प्रा० इक्क + स ० 9 क] निश्चय । उ०----(क) जेंवत कान्ह नद इकठौरे !--सूर०, १०। २२४ अवश्य । उ०--राम तिहारे सुजम जग, कीन्हो सेत इकक । (ख) जब पांडे इत उत कहूँ गए । बालक सव इकठौरे भए । --भिखारी ग्र०, भा० २, पृ० ५७ । । सूर०, ७।२ । इकग'-वि० [स० एकाङ्क] एकतरफा । एक अोर का । उ०-दुखी इकडाल---सज्ञा पु०, वि० [हिं०] दे० 'एकडाल' । इकगी प्रीति सौं, चानक, मीन, पतग । घन जल दीप न इकतन --क्रि० वि० [हिं० ६ क + तन = ओर, तरफ एक तरफ । जानहीं, उनके हिय को अंग !-मनिधि (शब्द०) । एक छोर । उ०—इकतन नर एकतन भई नारी। खेल मच्यो ईकग - सुज्ञा पुं० शिव । महादेव । अर्धनारीश्वर । व्रज के विच भारी ।—सूर०, १ol२६०१ । इकग ----क्रि० वि० मिश्रित । एक में मिला । उ०न अमृत इकतर --वि० [हिं०] १० ‘एकत्र' । उ॰—(क) मुन को पवन दृकग करि राखे । भिन्न भिन्न के विरर चाख्ने ।-नद ग्र ०, पृ० होत जव इकतर नाही वी व बराव |--जग० वानी, पृ० ७५ । ११८ । (ख) दई वाई ताहि पच यह सिगरे जानी । दे कोल्हू इकत --वि० [सं० एकान्त] दे॰ 'एकात' ।। में पेरि, करी हैं इकतर घनी |--गिरिधर (शब्द०) । (ग) प्रथम पुत्र चमेली अने । ताको कुटि लेइ रस इक ---वि० [हिं०] दे॰ 'एक'। उ –इक करहि दाप न चाप छाने । कूट सोहागा मनसिल लीजै । मीठे तेन में इकतर ' सज्जन वचन जिमि टारे टरे ।--नसी ग्र०, पृ० ५३ । काँक(G--क्रि० वि० [सं० एक, प्रा० इक+हि० अक] कीजै }~~-(शब्द॰) । ३५