पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५६६

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इंद्रवधू इंद्रिय नाथ गावो । भारी मवै पापन को नसावो । साँची प्रभू क्राटहू होता है। अँगरेजी और हिंदुस्तानी दोनो दवाप्रो में इसका मते जन्मवेरी । हैं इद्रबत्रा यह सीन मेरी। छद), पृ० १५७ । काग ग्राता है । यह फ न देखने में बड़ा मुदर पर अपने कडएइ द्रवधु -- सल्ला ग्नी० [म० इन्द्रवधू] वीरवहूटी नाम का कीड । पन के लिये प्रसिद्ध है। इ इवल्ली - संज्ञा स्त्री० [सं० इन्द्रवल्ली] इद्रायन । मुहा०-इंद्रायन का फल = देखने में अच्छा पर वास्तव में बुरा । इ द्रवस्त----सच्चा स्त्री॰ [म० इन्द्रबस्ति] जाँध की हुड्डो । सूरतहराम । वोटा। इ दुवारुपल्ला पु० [सं० इन्द्रबारुणी ] इ द्रायन । इ द्रारुन । इद्रायुध ---ज्ञा पुं० [स० इन्द्रायुध] १ बजे । २. इद्रधनुष । उ०---- इ द्रवारुणी---सी स्त्री० [सं० इन्द्रवारुगो] इ द्राथन । यादवरी में वर्णित इद्रायुध से क्या डीलडौल में कम था ? इ द्रवृद्ध- सज्ञा पु० [म० इन्द्रवृद्ध] [स्त्री० इन्द्रवृद्धा] एक प्रकार किन्नर०, पृ० ३४।। की फुसी ।। इद्रावरज----सज्ञा पुं० [सं० इन्द्रावरज] विष्णु । उपेंद्र की०] । इंद्रवत---संज्ञा पुं० [स० इन्द्रवत] वह राजा जो अपनी प्रजा को । इद्रावसान--साज्ञा जी०[सा० इन्द्रावसान रेगिस्तान । मरुभूमि (को॰] । उसी तरह भरा पूरा रखे जैसे इंद्र पानी वरमाकर जीवों इद्राशन----संज्ञा स्त्री॰ [सं० इन्द्रायन] 1. भग 1 मिद्वि । विजया। ३. को प्रसन्न करता है। गुजा । घुघची 1 चिरमिट)। इद्रासन-प्रज्ञा पुं० [सं० इन्द्रासन] १ इंद्र का सिहासन । इद्रपद । इ द्रशक्ति -- सझा जी० [सं० इन्द्रशक्ति] शची । इ द्रोणी [को०] । २ राजसिंहासन। उ०—-माँझ ऊँच इंद्रामन साजा । गन्नबसेन इशत्रु-- संज्ञा पुं॰ [स० इन्द्रशत्रु १ वृत्रासुर । २. प्रहलाद [को०] । बैठ तहें राजा । जय मी ग्र०, पृ० १८ । ३ पिंगल में ठगण इद्रसारथि-सज्ञा पुं० [सं० इन्द्रसारथि] १. मातलि । २ वायु । के पहले भेद की सजा, जिसमें पाँच मात्राएँ इस क्रम से होती | पवन कौ०] । हैं-- एक लघु और दो गुम्, जैसे,-'पुजारी' । इंद्रसावर्णी---ज्ञा पुं० [सं० इन्द्रसावर्णी चौदहवें मनु का नाम ।। नाम । इद्रिजित - सज्ञा ३० [सं० इन्द्रियनित] दे० 'इद्रियभित्' । उ०-देन्द्रि इद्रमुत---मांज्ञा पुं० [१० इन्द्रसुत] इंद्र के पुत्र (१) जयते । (२) ॐ उमा क रुद्र लज्जित भए मैं कौन यह काम कीनौ । इद्रिवालि । (३) अजून वृक्ष (को॰) । जित हाँ कहावत हुतो अापु को समुझि भन माहि ह्व रह्यौ इद्रसुरस --ज्ञा पुं०० इन्द्रसुरस]निगुडी या सिंदुवार का पौधा [को०] ख़ीन ---सूर० ८१०। इद्रसेन---ज्ञा पुं० [म० इन्द्रसेन ! राजा बलि का एक नाम । इद्रिय-संज्ञा स्त्री० [सं० इन्द्रिय] १. वह शक्ति जिससे वाह्री विपयो इद्रसेनानी--संज्ञा पुं० [स० इन्द्र मेनानी] कार्तिकेय को । का ज्ञान प्राप्त होता है । वह शक्ति जिससे बाहरी वस्तुओं के इंद्रस्तोम–राज्ञा पुं० [सं० इन्द्रास्तोम]१ इद्र की प्रसन्नता के निमित्त भिन्न भिन्न रूपा का भिन्न भिन्न रूपों में अनुभव होता है ।२. यज्ञ । २ इद्र की प्रार्थना [को०] । शरीर के वे अवयव जिनके द्वारा यह शक्ति विपया का ज्ञान इद्रा--ज्ञा स्त्री० [स० इन्द्रा] तुपार। हिम [को०] । प्राप्त करती हैं। इद्राग्निधूम-संज्ञा पुं० [सं० इन्द्रनिघून! तुपार। हिम (को०] । विशेप-साखय ने कर्म करनेवाले अवयवों को इष्ट्रिय मानकर इद्रियो के दो विभाग किए हैं--ज्ञानेंद्रिय और कमेंद्रिय । इद्राणिका-संज्ञा स्त्री० [सं० इन्द्राणिका निमुडी (को०]।। इंद्राणी संज्ञा स्त्री० [सं० इन्द्राणी १ इद्र की पत्नी, शची । २ ज्ञानेंद्रिय वे हैं जिनमें केवल विषयों के गुणो का अनुभव होता है । ये पाँच है चक्षु (जिनसे हा का ज्ञान होता है, श्रोत्र वडी इनाय च । ३ इद्रायन । ४. दु देवी । ५ बाई प्रबि (जिसमें शब्द का ज्ञान होता है ।), नासिका (जिससे गव का की पुत नी । ६ सिधुवार वृझे । सेनान् । निर्गुडी । ज्ञान होता है), रसना (जिमसे स्वाद का ज्ञान होता है) और इंद्रानी -ज्ञा स्त्री० [सं० इन्द्राणी] दे॰ 'इंद्राणी' । त्वचा (जिसस स्पश द्वारा कडे और नरम आदि का ज्ञान होता इंद्रानुज-सज्ञा पुं० [ स० इन्द्रनुज] विष्ण, जिन्होने वामन अवतार है)। इसी प्रकार कर्मेंद्रियाँ भी, जिनके द्वारा विविध कर्म किए लिया था । उपेंद्र । जाते हैं, पांच है-वाणीवो नने के लिय), हाथ पकड़ने के लिये) इंद्रायण-ज्ञा पु० [हिं० ] दे० 'इद्रायन' । उ०-कट इंद्रायण मे पैर (चलने के लिये), गुदा (मलत्याग करने के निय), उरस्य मुदर फन, मधुर ईख में एक नही !-कविता की, 'भा०, २, (मूत्रत्याग करने के लिये) । इसके अतिरिक्त उभयात्मक अद्रिय पृ० १५१ ।। ‘मन’ भी माना गया है जिसके मन, बुद्धि, अहंकार और वित इंद्रायन--सज्ञा पुं० [सं० इन्द्राणी ] एक लता जो विनकुन तरबूज की चार विभाग करके वेदातिया ने कुन १४ इद्रिय माना है। इनके पृथकू पृथकू दवा कहि उत किए हैं, जैसे, कान के देवता लता की तरह होती है। इनाह। उ० -इंद्रायन दाडिम विपम दिशा, त्वचा के वायु, चक्षु के मूर्य, नि ह्वा के प्रचा, नाति का जहाँ न नेकु विवेक ।--भारतेंदु ग्र०, मा० २, पृ० ६६६ । के अश्विनीकुमार, वाणी के अग्नि, पैर के पिप्णु, हथि के विशेष-सिध, हेरा इस्माई नख, मुलतान, बहाव नपुर तथा दक्षिण इद, गुदा के मित्र, उरस्थ के प्रजापति, मन क चद्रमा, बुद्धि के और मध्य भारत में यह अापसे आप उपजती है। इसका ब्रह्मा, चित्त के ग्रच्युत, अकार के शकर । न्याय के मत से फन नारगी के बरावर होता है जिसमें खरबूजे की तरह फाँके पृथ्वी का अनुभव ब्राण से, ज न का जिह्वा म, ते ३ का च कटी होती हैं । पकने पर इसका रग पीला हो जाता है । लाल से, चायु का देवेचा से और आकाश का कान से होता है । रंग का भी इन्नयन होती हैं। फुल विषैला और रेचक्ष