पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५५५

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आसवो ४८८ आसु आसवी--वि० [सं० सविन्] शराबी । मद्यप । मद्य रान करनेवाला। आसारित--संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक गीत । उ०-वे नैनन से असिवी मैं न लखेघनस्याम । छकि छकि आसा--वि० [सं०] प्रशसक । स्तुतिकारक (को०] । मतवारे रहैं, तवे छबि मद बसु जाम ।-स० सप्तक, पृ० २७२। आसावरी--संज्ञा पुं० [हिं० १] १. श्रीराग की एक रागिनी । इसका असहर)---वि० [सं० श्राशी+हर] निराश । उ०—सबै असहर स्वर घ, नि, स, म, प, ध है और गाने का समय प्रात काल तकर असा । वह न काहु के श्रास निरासी ।--जायसी १ दह से ५ दड तक । दे० 'असावरी' । २. एक प्रकार का ग्र ०, पृ० २ ।। कबूतर । ३ एक प्रकार का सूती कपडा । सा'--सज्ञा पुं० [स० प्रशा] P० श्राशा' । आसिक-वि० [सं०] तलवार चलानेवाला । अकिला में प्रवीण । आसार--संज्ञा पु० [अ० असा] सोने चाँदी का डडा जिसे केवल आसिक)---वि० [अ० प्रशिक] प्रेम करनेवाला (को०] ।। सजावट के लिये राजा महाराजो अथवा बरात यौर जुलूस के मासिक्त--वि० [सं०] अमिमिचित । मीचा हुआ । भीगा हुआ (को०) । आगे चोवदार लेकर चलते हैं । आसिख, असिखा--सी स्त्री० [हिं०] दे० 'प्राणिप' । यौ०--साबल्लेम । मासासोंटा । अासावरदार ! आसित-वि० [सं०] १ बैठा हुआ । २ मुखासीन [को०) । साइश--संज्ञा पुं० [फा०] अाराम । सुख चैन । शासित--सल्ली पु० १ असिन मुनि का पुत्र । २ णाडिल्य गोत्र का साढ--संज्ञा पुं० [हिं॰] दे० 'अपाढ' ।। एक प्रवर विप । ३ वैठने का तरीका (फो०) । ४ वैठने की प्रासादन---सज्ञा पुं॰ [सं०] १ प्राप्त करना । २ रखना। ३ झपट वस्तु । ग्रामन (को०)। | कर पकड़ लेना। ४ अाक्रमण करना को ।। प्रसिद्ध--संज्ञा पुं० [सं०]राजाज्ञा के अनुसार मुद्दई के द्वारा हिरामत प्रासादित--वि० [म०] १ प्राप्त । उपलब्ध । २ पहुचा हुआ। ३ | में किया हुया मुद्दाल, ( प्रतिवादी )। बिखेरा हुआ। ४ पुर्ण किया हुआ। ५. आक्रात [को॰] । आसिन-सज्ञा पुं० [सं० आश्विन] कार का महीना। अासान-वि० [फा०] महज 1 मरन । सीधा । सहन । आसियसच्चा स्क्री० [फा०] चक्की । जाता । पेपण (को॰) । आसानी-संज्ञा स्त्री॰ [फा०] सरलती । नुगमता । भुवीता ।। सिरवचन--सभा पु० [सं० आशीर्वचन] अशीर्वाद । असीस उ०--वदि वदि पंग सिय सवही के । अासिरवचन नहे प्रिय प्रासापाल-सज्ञा पुं॰ [देश०] एक पेड का नाम । जी के |--मानम, २१२४५। साम--सझा पु० [दश०] भारत का एक प्रात या राज्य जी बगाल के उत्तर पूर्व में है ।। सिरवाद(५-सझा पु० मि० अाशवद] दे॰ 'आशीर्वाद' । सिरा--सज्ञा पुं० दे० 'आसरा' । ३०-दादू मैं ही मेरे सिरे, विशेष--इसको प्राचीन काल में 'कामरूप' देश कहते थे । इस | मैं मेरे अधिार !-- दादू० वानी, पृ० ।। देश में हाथी अच्छे होते हैं। यहाँ पहले ‘अहस' वशी क्षत्रियो का राज्य था । इसी से इस देश का नाम 'हम' या 'साम' प्रासिषा--ससा सी० [हिं०]दे० प्राशिप। उ०—ौरो एक असिषा पड़ गया है । मनीपुर के राजा लोग अपने को इसी वश का | मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी !-मानम, ७।१०९। दतलाते हैं । असिस -संज्ञा पु०[हिं॰] दे० 'आशिप'। उ०-.-दछिना देत नद पग | लागत आसिस देन गरन सब द्विज वर {--नद ग्र०, पृ० ५७१ । असामी-सज्ञा पु०, स्त्री० [हिं०] दे॰ 'अमामी' । असी- वि० [सं० प्राशी] दे० 'अशी' । असामी-वि० [हिं० आसाम] असाम देश का। अासाम देश सवधीं। आसीन-वि० [सं०] बैठा हुआ । विराजमान ।। आसामी--सझा पु० अासाम देश का निवासी । असिनपाख्य---सच्ची पुं० [सं०] नाट्यशास्त्र के अनुसार लान्य के दस आसामी--संज्ञा स्त्री० अासाम देश की मापा । अगों में से एक । शोक और चिता से युक्त किसी भूपितागी सामुखी--वि० [सं० शा+मुख+हि० ई (प्रत्य०) ] किसी नायिका का बिना किसी बाजे या माज के यो ही गाना । के मुख का असर देखनेवाला । मुखापेक्षी । उ०—(क) प्रावट उ०—(क) अासीर्वाद-संज्ञा पुं॰ [ स० आशीर्वाद ] ४० 'आशीर्वाद' । उ०—जो जाकर अस असामुखी । दुख महें ऐस ने मार दुखी --- कोऊ वैष्णव को सीवाद तो नहि भयो ?--दो मौ बावन०, जायसी ग्रे ०, पृ० ६७ । (ख) पाहन कू का पूजिए जे जैन म भा॰ २, पृ० ४९ । म देई जीव । प्राधा नर अामामुखी, यों ही खीव अाव |-- मासीवन--सज्ञा पुं० [सं०] मीने की क्रिया। तागे डालना । टकि कवीर ग्र० पृ० ४४ ।। लगाना [को॰] । आसार--सज्ञा पुं० [अ०] १ चिह्न। लक्षण । निशान । उ०- " सीस--संज्ञा पुं॰ [सं० या+शीर्ष] तकिया । उमीसा । उ0-तिस १. बारिश के थासार पाए जाते हैं --श्रीनिवा संग्र०, पृ० । पर फैन से बिछौने फूलों से संवारे विशाल गड्डवा और ग्रामीसे २ चौडाई । ३ नीव । बुनियाद [को०] । ४ खडहर (को०] । | समेत सुगध से महक रहे थे ।---लभू (शब्द०)। आसार--सज्ञा स्त्री० [म०1१ धारा 1 संपान । मूसलाधार वृष्टि । सीस-सज्ञा पुं० [सं० लाशिष] दे० 'आशिष' ।। २ कौटिल्य के अनुसार लडाई मे मित्र आदि से मिलनेवाली प्रासु --सर्वं [म० अस्य, प्रा० अस्स, अामु जैसे “यस्य से जासु सहायता । ३ मेघमाली }--(दि०) ४ हमला। हुला तस्य' मे तासु] इसका। उ०—जानि पुछार जो भय वनवासू । आक्रमण (को०)। ५ शत्रु की सेना को घेरने की क्रिया [को०] । रोवे रोवू परि फौद न आसू !-—जायसी (शब्द॰) ।