पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५५०

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मामी ४६३ भदिलायन जैगे,—कुटी या मठ। ३. विश्रामस्थान । ठहरने की जगह । । अविद्याथव । ६. अग्नि परे पकते हुए चावल के बुदबुद उ०—अाश्रय दो ग्रामवासिनि, मेरी हो तुम्हीं सहारा 1 या फेन (को०) । ७. मरितः । नदी (को०) । ८. प्रवाह् । गीतिका, पृ० ६३ । ४ विष्णु [को०] ! ५ गुरुकुल [को०] । ६. धारा (को॰) । स्मृति में कहीं हुई हिदुग्रो के जीवन की भिन्न भिन्न अवस्थाएँ । आश्रिमज्ञा स्त्री० [स०] असिधा । तन्नवार की धार [को०] । ये अवस्थाएँ चार हैं ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रम्य और अाश्रित--वि० [म०] १ सहारे पर टिका हुग्रा । ठहरा हुआ । उ०सन्याम । उ०—(क) देहि अमीस भूमिमुर प्रमुदिक्ष प्रजा यहि विवि जग हरि अाश्रित रई ---तुननी (शब्द०)। २. प्रमोद बढाए । अाश्रम धर्म विभाग वेद पथ पाथन लोग चलाए । भरोसे पर रहनेवाला । दूसरे का सहारा लेनेवाला। अधीन । (शब्द॰) । शरणागत । जैसे,—वह तो आपका अाश्रित ही है, जैसे चाहिए, यौ ०-~-आश्रमगुरु । प्रश्नमधर्म । आश्रमपद, श्रममंडल = तपो उसको रखिए ! ३ मेवक । दाम । वैन । अाश्रमवास । गृहस्थाश्रम ! वर्णाश्रम । शाति-सज्ञा पुं० न्याय मृत में प्रकाश शौर परमाणु नित्य द्रव्यों को आयमी–वि० [ मं० श्रमिन् ] १. प्रथममवघी । २ अाश्रम में छोड दुसरे अनित्य द्रव्यो का किसी न किसी अश में एक दूसरे रहनेवाला । ३. ब्रह्मचर्यादि चार श्रीश्रम में से किसी को से साधम्र्य । प्रतित्व । साधर्म्य वारण करनेवाला । विशेप----भिन्न भिन्न नित्य द्रव्य परमाणु ही में बने हैं अत प्रश्रय-सज्ञा पुं॰ [सं०][ वि० श्राश्रयी, अमित 1 १ ग्राधार ।। रुपांतर होने पर भी उनमे किसी न किमी अश में समानता सहारा । अवलव । जैसे,--छत स्वभो के अर्थ पर है। रहेगी । पर नित्य द्रव्य पृथक् हैं इममे उनमे एक दूसरे से यौ०--अश्रयाश । साधम्यं नही । ३ अाधार वस्तु । वह वस्तु जिसके महारे पर कोई वस्तु आश्रितत्व--सज्ञा पुं० [4] श्राश्रित रहने पर होने की 'भाव। हो । ३. शरण । पनाह ! ठिकाना । जैसे,—(क) वह चारों आश्च त--वि० [सं०] १. गृहीत । अगीकृत । स्वीकृत । ३ अकिणित ! और मारा मारा फिरता है, उसे कही अभय नहीं मिलना। | श्रुत । सुना हुआ [को०] । (ख) राजा ने उसको अपने यहाँ आश्रय दिया है। श्राश्च ति---सझी स्व० [सं०] १ स्वीकृति । वचनदान। २ अाकर्णन । क्रि० प्र०—-चाहना !~-ठूढ़ना !-—देना । ---पाना । ----मिलना । श्रवण किो०] ।। --लेना । अश्लिष्ट-वि० [सं०] १ अलि गित । हृदय में लगा हुआ । २. लगी ४ जीवन निवहि का हेतु । भरोमा । सहारा । जैसे,—-हमें | हुआ । चिपकी हुग्रा । सटा हुआ । मिला हुआ । तुम्हारा ही अाश्रय है कि और किसी का । ५ राजाग्रो के छह गुणों में से एक । ६. घर । मकान ७. तरकस । माथी । अश्लेिप-सज्ञा पुं० [१०] १ अलिगन । २ नागाव । नृणीर [को॰] । ६. अभ्यास [को०] । ६ व्याकरण में उद्देश्य । अश्लेिषण-मझा पु० [सं०] मिलावट । मेन । १० वौद्ध मत से मन और पच ज्ञानेंद्रिय (को०)। ११ सामीप्य । यौ०--अश्लेषण विश्लेषण = कई दवाओं को एक साथ मिलाना सनिकटता । संनिधि (को॰] । और मिली हुई दवाग्रा को अलग अलग करना । श्रयण--सज्ञा पुं० [स०] सहारा लेने का कार्य । २ अथियण । नर्वे नात्र की नाम । अश्रियणीय--वि० [१०] अवलवन के योग्य । सहारा लेने योग्य ! श्राश्लेपी--सझा जी० [सं०] नवे नक्षत्र वा नाम । आश्रयभृक्----सज्ञा पुं० [सं० आश्रयभुज] १ दे० 'प्राथयाश' । २ । श्राश्लेपित--वि० [सं०] लगा हुम्रा । चिपका हुआ । अनगिन् । कृत्तिको नाम का नक्षत्र कि०) । अश्व--संज्ञा पुं॰ [स०] १. घोडो का झुड) २ घोडे की स्थिति या माश्रयाश---सुधा पु० [१०] अग्नि । अाग । दशा । ३ वह रथ जिमे घोड़े बीचते है ।। मात्रयासिद्ध-वि० [म० १ न्यायशास्त्र के अनुसार वह तर्क जिसका | शाश्वत्थ-सझा पु० [म०] माश्यत्य या पीपल का फन (को०] । | प्राधार असत्य हो । एक हेत्वाभास । २. असत्य या मिथ्या ।। अश्वत्थ-वि० [सं०] १ अश्वत्थ या पीपल सबधी । २ वपन्न में ३ अमान्य [को॰] । फल झाने के ममय में मवद्ध (यो । अभिया- वि० [ म्० भार्थायिन् 1 ग्राश्रय लेनेवाला । श्रश्रय पाने अश्वत्था--सहा जी० [सं०] अश्विनी नक्षत्र की रात्रि (३०] । वाला । सहारा लेनेवाना। सहारा पानेवाला । शाश्वमेधिक--वि० [म०] अश्वमेध यज्ञ या अश्वमे मधी (०] । श्रवसा पु० [म०] १ विमी के कहे पर चलना। वे चन ।। स्थिति । २ प्रकार । ३. नेश । ४ जनमत के अनुसार श्राश्वयुज-माग पु० [सं०] वह महीना जिगरी पूणिमा अश्विनी नक्षत्र युक्त हो । अश्विन । क्वार। मन, वाणी और शरीर से किए हुए कर्म का सस्कार जिसे जीव ग्रहण करके वृद्ध होता है। यह दो प्रकार का है--- माश्वलक्षणिक--सी पुं० [म०] घोडा के भले बुरे नक्षगग पहचानने वाला । शालिहोत्र (को०] । पुण्यश्रव और पापाव । ५. बौद्ध दर्शन के अनुसार विपप जिसमें प्रवत्त होकर मनुष्य वधन में पता है । यह् अाश्वलायन-मेशा पुं० [सं०] अश्वनयन पत्र प्रौर श्रीतम के रचयिता ऋषि का नाम [को०)। र प्रकार का हैं- कामाश्रव, 'भावाथवे, दृष्टाश्रव और पु० [१०] १ श्राइवे 7 द्रिय (को०)। ११६ श्य।