पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५४९

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आश्रम प्रशिता ४८२ शिता–वि० [म० श्राशितृ] अधिक भोजन करनेवाला व्यक्ति । यो०--आशुकवि । आशुतोष । आशुव्रीहि । श्रीमत। पेटू (को०] । आशुकवि–संज्ञा पुं॰ [सं०] वह कवि जो तत्क्षण कविता कर सके। आशिमा--सज्ञा स्त्री॰ [म० अाशिमन्] त्वर । तेजी । वेग [को०]। अाशुकोपो—वि० [स० अाशुकोपिन्] शीघ्र ही क्रुद्ध हो जानेवाला । आशियाँ--सक्षा पु० [फा०] १. चिडियो का बसेरा । पक्षियों के रहने झगडालू । चिडचिडा (को०) । का स्थान । घोसला। उ०—गिरी है जिस पे कुल विजली वोह श्राशुग'--वि० [सं०] जल्दी चलनेवाला । शीघ्रगामी । मेरा श्राशियाँ क्यो हो !--शेर ०, पृ० ५२४ । २ छोटा सा शुग---सज्ञा पुं० १. वायु । २. बाण । तीर । ३ रवि (को॰) । घर । झोपडा । उ०- क्या करे जाके गुलसित मे हम, श्राग शुगामी-वि० [सं० शुगामिन्] १ तेज चलनेवाला । तीव्रगामी । रख आए आशियाँ मे हम ।—शेर०, पृ० २०३ ।। | २, त्वरान्वित [को॰] । आशियाना----सच्चा पु० [फा० आशियानह.] दे० 'आशिय' । । आशुगामी--सृज्ञा पुं० सूर्य [को॰] । आशिष--सच्चा स्त्री॰ [सै० आशिष, आशिस्] १ आशीर्वाद । असीस । श्रीशुतोष-वि० [सं०] शीघ्र संतुष्ट होनेवाला । जल्दी प्रसन्न दुआ । उo--गुरुजेन की अशिप सीस घरो,-अाराधना, होनेवाला । पृ० ५१ । २ एक अलकार जिसमे अप्राप्त वस्तु के लिये श्राशुतोप-सज्ञा पुं० शिव । महादेव । प्रार्थना होती है। उ०--सीस मुकुट कटि काछनी, कर मुरली, आशुशुक्षणि-मज्ञा पुं० [सं०] १ अग्नि । २. वायु । उर माल । इहि चानक मो मन सदा, वसो विहारीलाल ।- श्राशुव्रीहि—संज्ञा पुं० [म०] एफ घान्य । साउन । माठी [को०] । विहारीर०, दो० ३०१ । ३ दे० 'अशी' (को०] । | शिव--सज्ञा पुं॰ [फा०] १ ग्रांव की पीडा । ३ भय । इर। खौफ अाशिषाक्षप-सच्चा पु० [सं०] वह काव्यालकार जिसमें दूसरो का को०] । ३ झगडा फमाद । गोरगुन (को०] । हित दिखलाते हुए ऐसी बातो को करने की शिक्षा दी जाय क्रि० प्र०—-उठना । होना ।। जिनसे वास्तव में अपने ही दु ख की निवृत्ति हो। उ०—मग्री प्राशोपण--सज्ञा पुं० [सं०] पूरी तरह गोख लेने का काम [को०)। मित्र पुत्र जन केशव कलश गन सोदर सुजन जन भट सुख माज श्राशौच-राज्ञा पुं॰ [सं०] अशुद्धि । अशौच का भाव कि० ।। सो । एतो सव होत जात जो पै है कुशल गात, अवही चलो अशिौची–वि० [सं० श्राशचिन्] अपवित्र । अशौच । अशुद्ध को०)। के प्रात, सगुन समाज सो। कीन्हो जु पयान बाध छमि सु श्राश्चर्य-संज्ञा पुं॰ [सं॰] [वि० प्राश्चयत] १ वह मनोविकार जो अपराध, रहि न पल प्राध, वैधि न लाज सो । हौं न कहो, किसी नई, अभूतपूर्व, असाधारण, वहुत बडी अथवा समझ कहत निगम सव अवै तव, राजन परम हित अपने ही काज मे न आनेवाची वात के देखने, सुनने या ध्यान में न आने से सो ।—के शव ग्र ०, ५० १, पृ० १५६ । । उत्पन होती है। अचमा १ विस्मय । ते प्रज्जुर । आशी–सच्चा स्त्री० [स०] १ मर्प का विषैला दाँत । २ बुद्धि नाम क्रि प्र०—करना ।—मानना (--होना। की जडी जो दवा के काम में आती है। ३. सर्प का य०-आश्चर्यकारक ! आश्चर्यजनक । विष (को०)। | २ रस के नौ स्थायी भावो में से एक । माशी.--वि० [सं० आशिन्] [वि०सी०आशिनी] खानेवाला। 'भक्षक ।। अाश्चर्य...-वि० ग्राश्चर्ययुक्त । अद्भुत । विस्मयपूर्ण [को०] । | यौ०---वाताशी । फलाशी । श्राश्र्चायत-वि० [म०] विस्मित । चकित । । विशेष—इसका प्रयोग समास के अत ही में होता है । श्राश्च्योतनकर्म-वि० [स०] अाँख में दिन के समय किसी प्रौपघ की आशीर्वचन-सझा पु० [सं०] आशीर्वाद । असीस । दु । आठ बूंद डालना । आशीर्वाद-सम्रा पुं० [स०] किसी के कल्याण की कामना प्रकट शाश्म–वि० [सं०] अश्मरचित । पत्यर का बना हुआ। [को॰] । | करना । मगलकामनासूचक वाक्य । आशिप । दु । अश्मि-संज्ञा पु० पत्थर की बनी वस्तु को०] । क्रि० प्र०--करना --देना है--मिलना ।—लेना । अश्मन'–वि० [सं०] दे॰ 'आम' । यौ०- आशीर्वादात्मक । अश्मन-सी पुं० [स] गरुडाग्रज अरुण जो सूर्य का सारथी पाशीविष-सज्ञा पुं० [सं०] १ वह जिसके दाँतो में विप हो (को॰) । है [को॰] । २ सर्प । साँप । आश्मरिक-वि० [सं०] अश्मरी-रोग-ग्रस्त । पथरी का रोगी (को०] 1 आशीष—सज्ञा स्त्री॰ [स० आशिष दे० 'आशिष' । उ०- देते अाकर आश्मिक–वि० [सं०] १ पत्थर ढोनेवाला । ३ प्रस्तर निर्मित शीप हमे मुनिवर हैं ।—माकेत, पृ० २०४ । कौ] । आशु-संज्ञा पुं० [सं०] बरसात में होनेवाला एक घान ! सावन आश्यनि-वि० [सं०] जमकर कुछ सूखने या ठोस होनेवाली [को०] । | भादो में होनेवाला । व्रीहि । पाटल । उस । साठी । आश्र--सज्ञा पु० [सं०] अश्रु। असू [को०] । अशु--वि० तीव्र । तेज । त्वरित [को०) । प्रश्रपरा--संज्ञा पुं० [सं०] पाचन क्रिया । पाक क्रिया [को०] ।। आशु- क्रि० वि० शीघ्र। जल्द । तुरत । आश्रम--सज्ञा पुं० [स०] [वि० प्रश्रमी] ऋपियो और मुनियो का विशेष-गद्य में इसका प्रयोग यौगिक शब्दों के साथ ही होता है । निवासस्थान । तपोवन । २ साघु सत के रहने की जगह ।