पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५४६

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भावार ४७९ प्रवृत्ति विशेष-कौटिल्य ने कहा है कि परवा तथा प्रत्यावार्य से जो विभूत--वि० म०] १ प्रकाशित । प्रकटित । ३ उत्पन्न । सेना तीन गुनी ने अाठ गुनी तक हो, उसका अावाय बना विमुखी--संशा री० [सं०] चक्षु । अखि [को०] । देना चाहिए । आविमूल--वि० [सं०] (वृक्ष) जिम की जड या मूल खुदा हो (को०] । अवार--संज्ञा पुं० [सं०] रक्षण । बचाव | शरण [को०] । विहित--वि० [सं०] प्रत्यक्षीकृत । देा हुया [को०] । आवारगी- सच्चा स्त्री॰ [फा०] भावारापन । शोहदापन । प्रावित्रि--सच्चा पु० [सं०] एक ऋपि का नाम । आवारजी-मज्ञा पुं० [फा० श्रावारजह, ]जमा खर्च की किताब । वि० दे० आविल--वि० [सं०] १ कलुपिन । मैला । पकि 3 । २ मिला ‘अवारजा' ! हुग्रा । मिश्रित । उ०-दुख में ग्राविल सुख में पकिल । प्रावारा--वि० [फा० अवारह] [सहा अविरगी] १ व्यर्थ इधर --नीरजा, पृ० १ । । उधर फिर नेवाला । निकम्मा । २ बेठौर ठिकाने का । उठल्लू। ग्राविपकर्ता-वि० [सं०][विकार करनेवाला । अाविष्कारक[को०) क्रि० प्र०--घूमना --फिरना --होना । अाविष्कत--संज्ञा पुं० अाविष्कार करनेवाला व्यक्ति । ३ बदमाश । लुच्चा ४ कुमार्गी ! शुदा । झाविष्कार- सज्ञा पुं० [म०] [वि० प्राधिकर्ता, प्राविष्कृत] १. वारागर्द-- वि० [फा॰] व्यर्थ इधर उधर घमनेवा: । उठल्न । प्राव टच । प्राण । २ बोई एसी वस्तु तैयार करना जिसके निकम्मा । बनाने की युक्ति पहले किसी को न मालूम रही हो । ईजाद । आवारागर्दी--सज्ञा स्त्री० [फा०] १ व्यर्थ इधर उधर घूमना । २ जैने,-- रेल का अविष्कार इन डि देण में हुआ। ३ किमी बदमाश । लुच्चापन । गुदापन । तत्व का पहले पहल ज्ञान प्राप्न करना । किमी बात का पहले वाल--संज्ञा पुं० [सं०] थाल।। पहन पता लगाना । साने त्किरण । जैसे,--उम विद्वान ने आवास--सद्मा पुंर (म०] १ रहने की जगह । निवासस्थान । २ विज्ञान में बहुत से अाविष्कार किए। | मकान । घर। प्राविष्कारक--वि० [स०] दे० 'प्राविष्कर्ता । प्रवासी-मज्ञा स्त्री० [हिं० श्रीसना] अन्न का हरा दाना, विपोपत अाविष्कृत- वि० [सं०] प्रकाणित । प्रकटित । २ पता लगाया | जौ का दाना । | हुआ । जाना हुआ। । ३ ईजाद किया हुआ । निकाला हुआ । आवाह--सधा पुं० [सं०] १ परिणय सस्कार । बिवाह । २ ग्राम प्रविष्क्रिया--सज्ञा स्त्री० [२०] १० 'अविष्कार' । श्रण (को०] ।। अाविष्ट---वि० [सं०] १ प्रवेश में आया हुआ । २ भूत प्रेतादिग्रस्त । आवाहन--सज्ञा पुं० [सं०] १ मत्र द्वारा किसी देवता को बुलाने का ३ तत्पर । सनद्धः । ४ अगिभूत । अाक्रात । ५ प्रवेश किया कार्य । २ निमत्रित करना । बुनना। हुआ । प्रविष्ट [को०] ।। क्रि० प्र०—करना । प्रावी--सज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ प्रसवकालीन पीडा । २ अतस्त्वा । श्रावहिना- क्रि० स० [ मं० अावाहन ] तुनाना । आमत्रित । गर्भवती। ३ रजस्व । स्त्री (को०] । करना (को०)। श्रावीत- वि० [म०] पहना हुआ । धारिन । २ गया हुप्रा । गत आवाहनी--सज्ञा स्त्री० [सं०] देवता के आवाहन के अवसर पर की। कि०] । ३ उपनीत [को०] । | जानेवानी एक मुद्रा (को॰] । श्रावती--वि० [ स० अरवीतिन् ] दाहिने कधे पर जनेऊ रखे हुए । विक-सवा पुं० [सं०]कवल या ऊनी कपडा । भेड के रोएँ का वस्त्र ।। जनेऊ उलटा रखे हुए । अपसव्य । विक_-वि० [सं०] १ ऊन का । ऊनी । २. भेड से सबधित [को०]। अवस-सज्ञा पुं० [सं० अायुष्मन्, पालि-प्रा० आवुस] हे आयुष्मन् । यौ०--प्राविकसत्रिक= ऊनी तागे से निमित (को०)। प्रिय । उ०---पंचवर्गीय साधम्रो ने कहा - ग्राम गौतम हम अविन-वि० [सं०] उद्विग्न । व्याकुल [को०] । जानते हैं'।-वै० न०, पृ० ५० ।। विद्ध-वि० [सं०] १ छिदा हग्रा । भेदा हुआ। २ फेंका हुआ । | ३ कुटिन । वक्र। [को०] ।४ मूर्ख । जड (को०)। ५ निराश । वृत-व० [म०] १ छिपा हुप्रा । ढका हुअा। उ०-या प्रेमलता हताश [को०] । ६ असत्य । झा (को०] । में ब्रावृत वृप धवल धर्म का प्रतिनिधि ।-कामायनी, पृ० यौ०--विद्धकर्ण == जिमका कान छिदा हुअा हो । विदु २७५ । २ लपेटा हुअा । अाच्छादित । उ० --अपने को अ. वृत कणिका, अविद्धकण = एकलता पाढा या पाठा । किए रहो, दिखना निज कृत्रिम स्वा ।--चामायनी, पृo १६६ । ३ घिरा हुआ । छेका हुप्रा । उ०--में शक्ति की विद्ध’- सच्चा पुं० [सं०] तलवार के ३२ हाथो में से एक, जिममै विफता की विपादमयी छाया से लोक को फिर आवृत दिखा | तलवार को अपने चारो ओर घुमाकर दूसरे के चलाए हुए वार को व्यर्थ या खाली करते हैं । कर छोड दिया ।---रम०, पृ० ६१ ।। श्रावृति--संज्ञा स्त्री० [सं०] ढक्कन । अावरण को०] । आविध-संज्ञा पुं॰ [स०] वडइयो का औजार । बरमा को०] । आविर्भाव--सा पं० [सं०] [वि० विर्भत] १ प्रकाश । प्राकटय । श्रावृत्त--वि० [सं०] १ दुहराया हुआ।। वृत्ति किया है। २ लौटायी या फिराया हुत्रः | ३ पढा हुप्रा [को०) । २. उत्पति । जैसे,--रामानुज का प्राविभव दक्षिण मे हुमा यो में क्रोध का अविर्भाव आवृत्ति--संज्ञा स्त्री० [सं०] १ वर वार किन बात का ऋम्यान । एक ही काम को बार बार करना । जैसे,--पाठ की प्रवृत्ति नहीं होता।