पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५४४

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अधियै श्रावसति विय--सज्ञा पुं० [सं०] १ ग्रीगमन । २ प्रागंतुक १ ग्रानेवानको०} । प्रवर्तकी- सच्चा सौ० [सं०] एक प्रकार यो त। जिने चमंग और मावर--अव्य० [म० अपर] प्रार। उ०-सखी सिग्बाइ केंदला भगवद्वनी 4 वाले हैं। | गई । अविर मदिर ठाढ़ी भई ।--माधवा०, पृ० १६७ } प्रावर्तन- सज्ञा पुं० [म० शान्तंन] १ चवर देना । घुमाव । अवरक'---वि० [सं०] छिपानेवाला। आवरण डालनेवाला (को०] । फिराव । उ०----बहू अनग पीडा अनुभव-सा अंग भगियो का अविक-संज्ञा पुं० [सं०] परदा । चिक [को॰] ।। नतन, मधुकर के मरद उमप मा मदिर भाव में प्रवर्तन । अविरखावो-- संज्ञा पुं० [ वै० झावर == श्रीर+बं० खाबो = खाऊगा ] - कामायनी, पृ० ११ । विलोडन । गथन । हिनाना । एक प्रकार की वंगला मिठाई। उ०—-सीर चक्र में प्रवर्तन या प्रनय निगा का होता प्रात । आवरण- सच्चा पुं० [मं०] १ अाच्छादन । ढकना । २ वह कपडा ---कामायनी, पृ० २० । ३ धातु इत्यादि का गलाना । ४. जो वि स व तु के ऊपर रपेटा हो । वेठन । ३. परदा । उ0 दोपहर के पीछे पदाय की छाया का पश्चिम में पूर्व की ओर सब कहते हैं खोलो खोलो छवि देगा जीवनधन की, श्राबरण पहना । ५ तीसरा पहर । पराए । स्वय बनते जाते हैं भीड़ लग रहो दर्शन की ।-- कामायनी, | श्रावर्तनी-सच्चा झी० [सं०] १. वह कुल्यिा या घटिया जिगमे धातु पृ० ६८ । ४. ढाल । ५.दीवार इत्यादि का घेरा । ६ ज्ञान । गलाई जाती है । २ कनछी । चमच । चमचा यो०] । ७ चाए हुए अस्त्र शस्त्र को निष्फल करनेवाला ग्रस्त । अविर्तनीय--वि० [सं०] १ घुमाने योग्य । २ मथने योग्य । वरणपत्र--सच्चा पु० [सं०] वह कागज जो किसी पुस्तक के ऊपर आवर्तमणि--संज्ञा पुं० [4] राजावर्त मणि। नाजवदं पर । उसकी रक्षा के लिये लगा रहता है और जिस पर पुस्तक प्रौर प्रतित- वि० [सं०] १ घुमाया हु प्रा। २. मेथी हुआ । पुस्तककर्ता के नाम इत्यादि भी रहते हैं। कवर। श्रावतिनी-- सज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ वर । जलावतं । मौरी । २ अजविरणशक्ति--संज्ञा स्त्री॰ [स०] वेदात में प्रात्मा या चैतन्य की | शृगी नाम का पौधा (को०) । आवत--वि० [स० श्रावतन्] १ चक्कर काटनेवाला । घूमने या फेरा दृष्टि पर परदा डालनेवानी शक्ति । श्रावरिका--संज्ञा स्त्री॰ [स०] क्षुद्र अापण । छोटी दुकान [को०] । लगाने वाला । २ विघन्ननेवाला । ३ घुलमिल जानेवाला (को०)। वरित–वि० [स०] ढका हुअा अावृत (ौ] । प्रावद -वि॰ [फा०] १ लाया हुआ।। २ कृपापात्र । विरिता--वि० [स ० अावरित ढकने या प्राच्छादित करनेवालाको प्रावद -सज्ञा स्त्री॰ [हिं॰] दे० 'मायुदय' । आवरा-- वि० [स० प्रावरीत) अाचरीता ढग हुई। ग्राच्छादित । श्रावपे---सा पुं० [म०] चप | बरसात । वृष्टि (को०] । उ०-~-मोह में प्रावरी ह्व वुधि वावगे सीख सुनै न दसी दुग्न अावाला अवलिशा रो० [सं०] पंक्ति । पाँन । अनुमिकता । श्रेणी । जा० [सं०] पा छीजै ।-घनानंद, पृ० १४ ।। कतार । ३०-वन उपवन जिन ग्राई कलियाँ, रवि छवि दर्शन यी अवनियां ।—प्राराधना, पृ० ३ । आवर्जक---वि० [स०] अर्पक (को०] । विलित- वि० [स०] वन खाया हुअा । कुछ मुडा या जुका [को०] । वर्जन--संज्ञा पुं० [म ० १ प्राकृप्ट करना । २ संतुष्ट करना । ३ नीचा दिखाना। ४ दान की क्रिया [को०] । श्रावली - सच्चा रसी० [न०] पक्ति । वेणी । यतार। २ वह युक्ति या अविर्जना-संज्ञा स्त्री॰ [सoj१ अाकर्षण । २ तिरस्कार । अवमानना । विधि जिसके द्वारा विम्बे की उपज बा अदाज होता है । जैसे, विस्वे की उपज के सेर का अाधा करने में बीघे की उपज का उ०—में देव सृष्टि की रति रानी निज पचवाण से वंचित हो, मन निकलता है । वन अवर्जन मूति दीना अपनी अतृप्ति सी सचित हो । --कामायनी पृ० १०२ । श्रावल्गित--वि० [म०] धीरे धीरे हिनता है । ईकपित को०] । प्रविजित'-वि० [स०] १ त्याग किया हुआ । जिसे छोड दिया गया वल्गी--वि० [सं० बिल्गिन्] नाचनेवता [को०] । हो । छोड हुआ। पराभूत । परास्त । अावश्--मक्षा पुं० [सं०] १ जबरन । अावश्यकना । २ अनिवार्य अविजित--सज्ञा पुं० [सं०] चद्रमा की स्थिति विशेप [को०] 1 काम या परि गाम (यो०] । प्रवर्त- वि० [सं०] १. पानी का मेंबर । २ चार मेधाधिपो में में आवश्यक-वि० [सं०] १. जिसे अवश्य होना चाहिए। जरूरी । एक । ३ बह बादल जिसमे पानी न बरसे । ४, एक प्रकार या गापेक्ष्य । जैसे,—(क) ग्राज मुझे एक अविश्यक कार्य है । रत्न । राजतं । लाजवदं । ५ सोना माखी । ६ रोएँ की (7) तुम्हारा वहां जाना यावश्यक नहीं । २ प्रयोजनीय । भंवरी । ७ सोच विचार । चिता । ६ ससार । काम का । जिनो [वना काम न चले । जैसे,—इने प्रायः अविर्त--वि० घूमा हुम्रा । मुडा हुआ । वर्तुग्रो का इट्टा कर दो । यो०--दक्षिणावर्त शख = वह शख जिनकी गीरी दाहिनी नरफ अावश्यकता--मक्षा दी० [१०] १ भरत । प्र. । प्रयोजन । | गई हो। यह गन्न बहूत मगलप्रद ममझा जाता है । मत 7व । उ०---भाना मावश्यता ना चार बन गया, रे प्रवर्तक--राज्ञा पुं० [अ०] योगियों के योग में होनेवाने पाँच प्रकार मनुष्य तू कितना नीचे गिर गया ।—'करणी', १० २६ ! के विघ्नो में से एक प्रकार या विघ्न या उपसर्ग । माकड आवश्यकीय---वि० [सं०] प्रयोजनीय । शहरी ।। पुराण के अनुसार इस विघ्न के द्वारा ज्ञान अकुिन्न हो जाता है वसति--सा ग्नी [सं०] १. रान । निशा । ३. रात में देने के पौर उनका चित्त नष्ट हो जाता है । लिये विश्रामन फ०] ।