पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५४१

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प्रालिंग ४७४ | मालू प्रालिग-सच्ची पु० [सं० आलिङ्गन] दे० 'लिगन' । उ०--विन देने श्राली'.-[वि० शाल] अन्न के रंग का । जैसे,—-प्रा रम् । मन होत वाहि कैसे कर देखे । देखे ते चित होत अग प्रालिग प्राली-संज्ञा स्त्री० [सं० प्रालि] पक्ति । अवली। उ० - बरनै दीन- विखे ।-व्रज ग्र०, पृ० ६० । दयान वैठि हुमन वो अाती, मद मद पग देत अहो यह छल आलिंगन---सज्ञा पुं० [सं०] [वि॰ अलगित, लगी, लग्य] गले की चाली -दीन0 ग्र0, पृ० २०९ । से लगाना । हृदय से लगाना । परिरमण । उ०----अजहू न प्रालीजा-वि० [अ० प्रालीजाह] १० 'ग्रा जा' 1 30-ग्रानीजा लक्ष्मी चद्रगुप्तहिं गाढ आलिंगन करे ।--भारतेंदु ग्र ०, भा० इक वार, हम मन्त्री ने गाय मैं । जग नै हुर नि मिरर, मेनौ १, पृ० १ । ये आरजे करे । हम्मीर०, पृ० २ ।। विशेष—यह सात प्रकार की वहिरतियो में गिना गया है, भालाजाह-वि० [अ०] ऊचे दज का । उच्चपद जैसे—प्रालिंगन, च वन, परस, मर्दन, नख-रद-दान । अधर- श्रीलोढ़-सज्ञा पुं० [म०] दाहिनी जीव को फेनारे गौर वा जब पान सो जाहिए, बहिरति सात मुजान ।--केशवं ग्र० को मोड़कर बाण चलाने की मुद्रा ०३ ।। भा० १, पृ० १४।। आलीढ--वि० १ खाया हुआ।। भुक्त। २ वाटा दृ 1 2. घायन । आलिंगना -क्रि० स० [R० आलिङ्गन] ग्रैकवार भरना । भेटना। चोट पाया दृग्रा (को० ।। नपटान । हृदय से लगाना । गले लगाना । उ०-पिये चुम्यो आलीढक- सज्ञा पुं० [सं०] 7 के व्याए हुए बटई की इन कूद मुह चूमि होन रोमाचिन संगवम् । अानगत मदमानि पीय [को०) । अगनि मैले अग --ब्याम (शब्द०)। शालीन'- वि० [सं०] १ परिति । प्रतिदिन । २ चिपरा हुवा। प्रालिगित-वि० [म० अलिङ्गित गले लगाया हु प्रा। हृदय से लगाया विट। ३. द्रवित । पिघा ग्रा (को०) । हुा । परिरभित । उ०-प्रतिजन प्रनिम्न लिगित तुमसे आलीन-: मज्ञा पु० १ टीन । २. नीना। ३. मप (को०) । हुई सभ्यता यह नूतन ।—प्रनामिका, पृ० २१ । अली कृ--संज्ञा पुं॰ [म.] ० 'ग्रानीन' यो०] । प्रालिगी–वि० [सं० मालिङ्गिन्] ग्रनिगन करनेवाला । आलीशान--वि० [अ०] भव्य । उकना । शानदार। विज्ञान । आलिग्य---वि० [सं० प्रालिड ग्य] गने लगाने योग्य । हृदय से लगाने अालु चन-- संज्ञा पुं०म० शालुञ्चन] फाडना । वरना । घेदन।]ि । योग्य । परिर गण करने योग्य ।। शालु ठन--सज्ञा पुं० [सं० आलुण्ठन] चोरी करना । छीनना । अपर्ण श्रालग्य--मज्ञा पु० एक प्रकार का मृदग ।। | करना । लूटना [को॰) । अालिंजर---संज्ञा पुं० [म०] वडा घडा या झंझर (को०] । शालु'-सज्ञा पुं० [स०] १ एक प्रकार या मून । २ ग्राबनूस । ३ प्रालिद, प्रालिंदक--सज्ञा पुं० [ मे० प्रालिन्द, आलिन्दक ] दे० | नाव या बे।। ४ पेचप । उल्लू [को०) । 'अनिद’ (को०] ।। आलु-सा ही० पानी रखने की झारी । मटकी फो०] । आलिपन--सज्ञा पु०[स० ग्रालिम्पन]}१. दीवार, फर्श ग्रादि की सफेरी प्रालुक—सज्ञा पुं० [म०] १ लूकद । २. शेषनाग । या लिपाई पुताई काम ! २ लीपना । पोतना [को०)। आलुल--वि० [सं०] करित । हिनता हु प्रा [को०] । अलि–सझा वी० [सं०] १ सखी ! महेनी । वयस्या। २ विच्छ। अलुिलायित-वि० [म.भालुलित) अनुसायिन = हिलता हुआ । कपित। ३ भ्रमी । ४ पक्ति । अवनी । ५ सेतु। बाँध । ६. रेखा। उ०—-बजी निशा के बीच भानुनायित केशौ के तम में । शालिखित-वि० [सं०] १ चारो ओर रेखाकित । २ चित्रित । ३ -नील०, पृ० १० । लिखित । लिखा हुआ (को०] । आलुलित- वि० [म०] १ विचन्तित । २ क्षुब्ध (को०] । अलिप्त-वि०म० श्रालिप्त अलेप । निर्लेप । ०--लिप्प नाहिं प्राप्ति अलि-- संज्ञा पुं० [सं० अनु] एक प्रकार प्रसिद्ध कद । | रहूत हैं ज्यो र वि जोति समावे --जग० बानी पृ० ११६।। विशेप-वार कार्तिक में क्यारियों के बीच मैड़ वनकिर अलू आलिम--वि० [अ०] विद्वान् । पडित ! जानकार । वोए जाते हैं जो पूस में तैयार हो जाते हैं। एक पौधे की जड झाली–वि० [सं०] सखी । सहेली । गोइयाँ। उ० - एक कहइ में पाव भर के लगभग आलु निकलता है । मारतवर्ष में अव लूि की खेती चारो ओर होने लगी है. पर पटना, नैनीताल नृपसुत तेइ ग्रानी । सुने जे मुनि सँग अाए काली ।—मानस, और ची पूची इसके लिये प्रसिद्ध स्थान हैं । नैनीताल के १।२२६ । पहाही आलू बहुत बड़े बड़े होते हैं । अालू दो तरह के होते आली- सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] चार विस्वे के बराबर का एक मान । हैं लाल और सफेद । यह पौधा वास्तव में अमेरिका । विशेष—यह शब्द गढवाल और कुमाऊँ मे वोला जाता है । का है। वहीं से सन् १५८० ई० में यह यूरोप में गयी । आली* --वि० जी० [म० श्राद्ध ] भीगी हुई । गीली । तर । भारतवर्ष में इसका उल्लेख सवसे पहले उस भोज के विवरण झाली--वि० [अ०] वड़ा 1 उच्च । श्रेष्ठ। माननीय । मे प्राता है जो सन् १६९५ ई० मे मर टामस रो को असफ यौ०.-.-प्रालीशान । लीजाह । जनाब आली । खाँ की ओर से अजमेर में दिया गया था। जब पहले पहल विशेष-इम शब्द का प्रयोग प्राय यौगिक शब्दों के साथ होता है। आलू भारतवर्ष मे आया या तव हिंदू लोग उसे नहीं खाते थे,