पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५३८

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प्रार्यवाक् ४७१ मालव आर्यवा--वि० [म०] मार्य मापा या संस्कृत बोलनेवाला (फो। प्रायवर्त-- ० [म०] उत्तरी भारत जिगनेः ३गर में हिमान, प्रार्यवृत्त-वि० [म०] धामिक । रादाचारी (को०] । दक्षिण में विंध्याचल, पूर्व में बगान व जाडो र पश्चिम में । मार्यवेश----वि०म०] १ अायों का मा मभ्य वेश धारण करने वाला। प्रवे सागर है । मनु ने इस देश को पवित्र हा है। २ पापडी । ढोगी [को०] । प्रायवर्तीय--वि० [सं०] १. प्रायवित का रहने।। २ प्रायग्निं । आर्यशील--वि० [म०] पुग्यचरित् । धर्मात्मा [को०] । गबधी । आर्यश्वेत- वि० [म०] म माननीय । अादरणीय [को॰] । प्रायिका-मन्ना मी० [सं०] १ लीना र मदानारिंग की । २ आर्यसत्य-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ महान् सत्य । २ वौद्धधर्म के चार एक नेत्र का नाम । ३. भागवत पुराण में वग्गिने एनः नदी सिद्धात जो उसके अाधारभूत रतभ माने जाते है । वे हैं (१) का नाम [फो०] । जीवन दु खमय है, (:) जीवनेच्छा दु ख का कारण है। (३) प्रारलौ---सज्ञा पुं० [हिं० प्रड] १ | Pट । २. दिने । इच्छा की निवृत्ति दुञ्ज व निवृत्ति है, (४) अप्टमार्ग निर्वाण । अनुरोध । उ०चुप भानु को घरि जमवि पुन्यौ । पढे की ओर ले जाते हैं क्रिो०] ।। मुत फाज क्यों यहति ही नाज नजि, पाई परिकै महरि रनि आर्यसमाज-सधा पुं० [म०] एक धार्मिक समाज या ममिति जिगके रयौ ।- भूर०, १० । १३६६ । | सस्थापक स्वामी दयानद थे। शार्प---वि० [१०] १ ऋप्रिसन्नधी । २ पिप्रणीन । एन । ३ विशेप--इस समाज के प्रधान दस नियम है । इस मत के लोग | वैदिक । ४ ऋषिसेवित ।। वेदो के सहित भाग को अपौरुषेय और स्वत प्रमाण मानते यौ०.--प्रार्थन । शार्पग्र य । पंप द्वनि । प्रापंप्रयोग । है । मूतपूजा, श्राद्ध, तर्पण नहीं करते । गुण, कर्म यौर ग्चे भाव प्रार्षविवाह । के अनुसार वण मानते हैं। अर्पक्रम-सभा पु० मि०] पियों की प्रथा । ऋतिय ची प्राचीन आर्य समाजी--मझा पु० [ म० शार्यसमाजिन् ] अायंसराज TT अनु- | परिपाटी । थायी । आर्य समाज के सिद्धातो को माननेवाला [को०] । | अर्पग्रथ---मझा ० [सं० प्रार्पग्रन्थ] 7 ॥ द्वारा प्रन या रचित धर्मग्र थे । वेद । शास्त्रे । मया । पुराग [को०] । प्रार्यसिद्धात---सज्ञा पु० [न प्रार्थसिद्धान्त अर्यभट्ट की कृति का । प्रापप्रयोग---नशा ० [१०] १ श) या वह 7वहार जो कत्र करण। नाम [को०] । के नियम है यिमद्व हो । आर्यहृद्य–वि० [सं०] सज्जनो को प्रिय लगनेवाला (को०] । विशेप-प्राचीन सम्बृन ३ 4 में प्राप पर ग्रु द्ध प्रयोग आर्या- सच्चा ग्त्री० [म०] १ पार्वती । २ भास । ३ दादी । मिलते हैं। ऐसे प्रयोगों के पास की गति ने अशुद्ध न पितामही । कहर अाप कहते है। विशेष---इस शब्द का व्यवहार पद में श्रेष्ठ या वडी बूढी स्त्रियो २ छद में ववियो का दिया हुअा व्याकरणविरुद्ध प्रयोग । के लिये होता है। प्रार्पभ--वि० [म०] १. रादि ने उन्न। २ कृपभजगी । म ४ अर्धमात्रिक छंद का नाम । इसके पहले और तीसरे चरण में गोत्र में उत्पन्न । बारह बारह तथा दूसरे और चौथे चरण में १५ मात्राएँ आपंर्भि---- ० [१०] १ उभ । वन ज । २ रन में प्रथम होती हैं । चक्रवर्ती सम्राट् मरत का एक नाग [2] । विशेप-इस छद में चार मात्रा के गण को समूह कहते हैं। प्रार्पभी---गन्ना पी० [सं०] म्हगिर छ । नेवा । इसके पहले, सीमरे, पांचवें और सातवें चरण मे जगण का प्रार्पविवाह-सया पुं० [सं०] अाठ प्रकार के विवाद में तीसरा गिरी निषेध है । छठे गण मे जगण होना चाहिए । जैगे,---रामा, यर ने पन्या का बिना दो वै । पुल्क में ने गन्दा दे पा । रामा, रामा, अाठौ यामा, जप यही नामा । त्यागौ सारे य(मा, प्राय-मज्ञा पुं० [न०]१ पियो का गोम र प्रयर । २ मटा पही वैकुठ विश्रामा । प्राय के मुख्य पाँच भेद हैं--(१) ऋदि । ३. पदने पाठन, गजन वाईन, प्रायन यापन पद अाय या गाहा, (२) गीति या उग्गाहा (३) उपगीति या गाहू, अपि वगं । (४) उद्गीति या बिग्गाहा और (५) अपगीति या *कधक ग्रह त-० [गं०]पहंत या जैन सिद्धा ने माना ना ६६१, उनमें या रवधा ।। गपच अनेयो। २०] । यौ॰—चार्यासप्तशती = गोवर्धनाचार्य का भय छद मे नि अलंकारिक---वि० [ ० सालरि] १८ का दम ।। ३ । लगभग ७०० छदी का मरुत मुक्तक याव्य । | प्रदान। 2 मन र जननेता ! पायगीत, प्रायगीति--सज्ञा मी० [अ०] अाप छद का एक भेद श्रीनग'--० [न० प्रान] मान ! १६ । नः पर । जिसके विपम चरण में १२ और नम चरणो मे २० मानाएँ मान्नग'---सा : [देश॰] हि नो नो । होती हैं। विपम गण में जगणं नहीं होता तथ। अंत मे गुर | विय- नई फ। प्रग विर : । : ।। होता है । जैसे,—रामा, रामा, अमा, प्राठौवामा । जप | होना है। यही नामा को त्याग नारे काम, पैहो म नी मुनी इरि धमा को । झालंब-सा उ० [२० माभ्य] १ प ६ । परि । । । ३. ।