पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५३७

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अदिता ४७३ प्रार्थव आद्रता -संज्ञा स्त्री॰ [स०] गीलापन । शीतलता । ठढक । शब्द का व्यवहार करते हैं। छोटे नोम बटे वो जने,--श्री श्राद्र पत्रक--सज्ञा पुं० [सं०] व ई । वाँस [को०] । पति को, छोटा भाई बहे गाः १, रिप गुरु से प्रार्य या आर्द्र माषा--संज्ञा स्त्री॰ [सं०] मापपर्णी । वनमाप । मसवन । प्रायपुत्र कहकर गंधित करते हैं । भट। | नटी भी अाद्र शाक--संज्ञा पु० [स ०] हरी अदरक । हुरी शादी [को०] । मूत्रधार को अयं या अर्यपुत्र हनी ।। अद्रि--सज्ञा स्त्री० [स०] १ सत्ताईस नक्षत्रो में छठा नक्षत्र । २ मनुष्यों की एक जाति निमुने नगर में बहन ने मन विशेष--ज्योतिषियों ने इसे पद्माकार लिखा है, पर कोई कोई इसे प्राप्त मी यो । मणि के अकिार का भी मानते हैं । इस नक्षत्र में केवल एक विशेप-ये नोग गोरे, जिम का न के बने होते हैं । ही उज्वल तारा है। इनका माया ऊँचा, वान धने, ना उठी और नुररानी हो | २ वह समय जब सूर्य प्रार्द्रा नक्षत्र का होता है। प्राय झापाढ हैं। प्राचीन काल में इनका निम्तार ५ निया तथा के प्रारंभ में यह नक्षत्र उगता है। इसी नक्षत्र से वप का कम्पियन सागर में गिर गगा सगुन नि तय था । प्रारंभ होता है। किसान इस नक्षत्र में धान बोने हैं । उनको इनमा शादियान योः मध्य ए1ि, कई दिने दिया विश्वास है कि इस नक्षत्र का धान अच्छा होता है । ठौर कोई उत्तीय ध्र वत ? ? । य ग मी परते थे, उ०---शाद्र घान पुनर्वसु पैया । गा किसान जव चोया पशु पालते थे, धातु । गार बनाने में, पडा बुनते थे चिरैया (शब्द॰) । ३. ११ अक्षरों को एक वर्णवृत्त और रच ग्रादि पर बनने में ।। जिसके पहले और चौथे चरण में जगण, तगण, जगण और ३. मावणि मनु का एक पुत्र []। ४ बौद्ध धर्म र पाउन दो गुरु (ज त ज ग ग) दूसरे और तीसरे चरण में दो करनेवादा व्यक्ति (को०) । तगण, जगण और दो गुरु ( त त ज ग ग ) होते हैं । वृत्ति यौ०-- प्रार्य अष्टागमार्ग = बौद्ध दर्शन के अनुमवह मार्ग जिनमें उपजाति के अतर्गत है । उ०-साधो भलो योगन पै वढा ।। निवणि या मोक्ष मिलता हैं । ये प्रा5 -(९) गम्यग्दृष्टि, खड़े रहो क्यों न वचे पचाो । टीके से छापे बहुत लगायो । (२) गम्यक् सकल्पना, (३) सम्यक जना, (८) गम्य वृथा सवै जो हरि को न गो (शब्द॰) । कर्मणा, (५) नभ्यगाजीव, (:) नव्यायाम, (:) मन्पर् यौ०----आलुब्धक = केतु ।। स्मृति प्रौर (८) गम्य, मुमाधि । ४ अदरक । अादी । ५ अतोस । यौo----अर्यक्षेत्र । प्रायपुत्र । भयभूमि । वीर--संज्ञा स्त्री॰ [सं०] वाममार्गी । झार्यक-मज्ञा पुं॰ [ग] १ अादरणीय जन । पृज्य व्यक्ति 1 3. अशिनि--सज्ञा ली० [सं०] १. विद्युत् । बिजली । २. एक अस्त्र । पिता मह । ३ एक श्राद्ध जो पितः । म मानार्थ किया जाना आधिक-सज्ञा पुं० [सं०] १ खेत की आधी उपज लेने की शर्त पर है [को०] । खेत जोतने वोनेवाला । २ पाराशर स्मृति के अनुसार वेश्या प्रार्यका-सज्ञा सी० [स ०] १ श्रेष्ठ एव अादरणीय महिला . माता मौर ब्राह्मण पिता से उत्पन्न एक सकर जाति । एक नत्र का नाम [को०] । विशेप--ये लोग ब्राह्मणों की पक्ति मे भोजन कर सकते है । भार्यकाव्य--संज्ञा पुं० [ग] ब्रायं जातीय । भारतीय प्रायों का मनु के अनुसार यह वर्ण शूद्र माना गया है और भोज्यान है। हान्थे । उ-त्रात्मीकीय रामायरा को मैं मार्य काव्य का अर्नव@--वि० [सं० प्रार्णव] अर्णव या समुद्रसबधी । उ०-- अादर्श मानता है ।-रम०, पृ० ११० । । अर्नव नाव विहग जिमि, फिरि अावं तिहि ठौर ।-नद प्रार्यदेश-सज्ञा पुं॰ [सं॰] वह देश जिम में अायों का निवास है (०] । ग्र 0, पृ० १३२ । प्रायवर्म--सज्ञा पु० [सं०] मदाचार । उ०—वह प्राधिर्म, वह | आर्म-संज्ञा पुं० [अ०] हथियार । अस्त्र शस्त्र । जैसे,—-अाम्ही ऐक्ट ।। | शिरोधार्य वैदिक समता ।--प्रणिमा, पृ॰ ३५ ।। आर्मपुलिस---संज्ञा स्त्री० [अ० आम्र्ड पोलिस] हथियारबद पुनिम । प्रार्यपुत्र---सी पुं० [स०] अादरसूचक ३० । ६० ‘ार्य' । । सशस्त्र पुलिस । प्रार्यभट्ट---मज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष शास्त्र के एक प्राचीन विद्वान् का आर्मर्डकार---सज्ञा स्त्री॰ [अ॰] एक प्रकार की गाड़ी जिसपर गोलियो । नाम, जिन्होंने भारत में सर्व प्रयम बीजगणित का प्राविष्कार से बचाव के लिये लोहा मढी रहता है। बलरदार गाडी । किया था । ये ईसा की पांचवी शताब्दी में हुए थे (को॰] । विशेप-ऐसी गाडियां सेना के साथ रहती हैं ।। श्रार्यभाव-सुज्ञा पुं॰ [स०] सदाचार । गिटाचार (०] । प्रा--सज्ञा स्त्री० [अ०] सेना । फौज । जैसे,—-इडियन ग्राम । अर्यमिथ'--राज्ञा ५० [सं०] १ सरून नट हो मै गौरवान्वित या विशेप--आर्मी शब्द० देश की समूची स्थन सेना का योधक है। पूज्य गुरुप के ये इस शब्द का प्रयोग करते हैं । पार्य-वि० [सं०] [स्त्री० आर्या] १ श्रेष्ठ । उत्तम । २ बडा। अयं मिथ-वि० [सं०] पूज्य । गौरवान्वित [नो । पूज्य । ३. श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न । मान्य । ४ आर्य जाति आर्य रूप-वि० [सं०] ढोगी। पाखो (को०) । सबंधी । आर्य जाति का । भार्यलिंगी-वि० [सं० आर्यलिङ्गिन्] दे॰ 'आर्या ' [को॰] । आर्य-सज्ञा पु० [सं०] १. श्रेष्ठ पुरुष । श्रेष्ठ कुन में उत्पन्न । आर्यव--सज्ञा पुं॰ [सं०] १ उत्तम अाचार । सदाचार । २. न्यायोचित विशेष—स्वामी, गुरु और सुहृद् आदि को सुबोधन करने में इस व्यवहार [को॰] ।