पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५३४

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ओरुण्य ४६७ अारोह १ मिश्रित को०] ! रोधना --क्रि० स० सोपालहि । अति । प्रारुण्य- संज्ञा पुं॰ [स०] अरुणता 1 लन्नाई (को॰] । प्रारुष्कर-सझा पुं० [स०] फलविशेप । 'भल्लातक (को०] । रू-सज्ञा पुं० [सं०] पिगल वर्ण । पीला रम [को॰] । मारु’---वि• पिगल वणवाला । भूरे और लान्न रग से मिश्रित [को॰] । अरूक-सज्ञा पुं० [सं०] १ एक जड़ी जो हिमालय पर में आती है। ग्राड ! २ आलूबुखारा ।। श्रारूढ़-वि० [स० प्रारूळ] १ चढा हुअा । सवार। उ०-~-वर प्रारूढ नगन दसमीसा । मुडित सिर खडित भुज वीसा !-- मानस, ५॥११ । २. दृढ । स्थिर । जैसे,—हम तो अपनी बात। पर प्रारूढ हैं । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ---अरूढयौबना । अश्वारूढ । गजारूढ । महासनारूई ।। प्रारूढयौवना--सज्ञा स्त्री० [स० अढ़ियौवना] मध्य नायिका के चार भेदो में से एक। वह स्त्री जिसे प्रतिप्र स ग अच्छा लगे । शारूढि- सज्ञा स्त्री० [सं० आरुढ़ि] १. कढाव । चढाई । २. प्रारूढ | होने का भाव । ३ तत्परता (को०] । मारेक-सज्ञा पुं० [सं०] १. घटना । २ खाली करना । ३ मदेह । ४ अाधिक्य [को॰] । आरेचन--सझा पु०म०]१ स कोचन । २ खाली करना या कराना। ३ वहिष्करण । वाहर करना या निकालना [को॰] । रेचित--वि० [सं० 1 १ सकुचित । २. रिक्त । ३ घटाया हुआ कि०] । आरेवत--संज्ञा पुं० [सं०] अमिलताम ! आरग्वधे । रेस---सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] डाह । ईष्र्या । उ०—कबहु न किएउ | सुवति रेमू । प्रति प्रनीति जान सव देसू ।--मानस, २५४६।। आरो--मज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'प्रारव' । आरोग'--वि० [३० मारोग्य] दे॰ 'आरोग्य' ।। आरोगना--क्रि० स० [सं० + रोग (5 = हिंसा)] खाना । उ0--(क) शबरी परम भक्त रघुवर की चरण कमन की दासी । ताके फने आरोगे रघुपति पूरण भक्ति प्रकामी ।-- सूर (शब्द॰) । (ख) ग्रारोगते हैं श्रीगोपाल । पटरस सौंज वनाइ जसोदा, रचिके कचन थाले ।-सूर०, १०/१०१ । आरोगाना-क्रि० स० हि० आरोगना का प्र ० रूप] भोजन कराना ।। जिमाना । उ०--ताते अाजू जो ए अपने घर 'भैसि ले के ग्रावेंगे तो मैं एक दिन की माखन आरोगाउँगी ।—दो सौ वाबन, भा० २, पृ० ३ ।। आरोग्य-वि० [म०] नीरोग । रोगरहित । स्वस्थ । तदुरुस्त ! शारोग्यता-सच्चा स्त्री० [सं०] स्वास्थ्य । तदुरुस्ती । ग्रारोग्यप्रतिपदृव्रत--सज्ञा पुं० [स०] स्वास्थ्यलाभ के निमित्त किया जानेवाला एक व्रत [को०] । मारोग्यशाला-सज्ञा स्त्री० [सं०] चिकित्सा । अस्पताल (को॰] । औरोग्यस्नान-सज्ञा पुं० [स०] बीमारी दूर हो जाने के बाद पहले पहल किया जानेवाला स्नान [को०] । पारोचक-वि० [स०] चमकीला । प्रकाशवान् [को०] । रोचन--वि० [सं०1०' चक्र' । उ0-मोह पटले मोवन प्रारो | चन, जीवन कभी नहीं जनतोचन ।-अर्चना, पृ० २। शारोध-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ अवरोध । वावा । घेरा । २ कैंटीली झाडौं की वाड (को०] । आरोधना)---क्रि० स० [स० अरोघ] रोकना । ॐना । अडिना । ३०--देखन दे पिय मदनगोपालहि । अति अातुर आरोधि अधिक दु ख तेहि कहूँ उरति ने श्री यम कालहि । मन तौ पिय पहिले ही पहुंच्या प्राण तही चाहत चित चालहि ।-- सूर० (शब्द॰) । अारोप-सज्ञा पुं० [सं०] १. स्थापित करना । लगाना । मढना । उ० कवियो को उनपर अपने भावो के अरोपण की अविण्यकता नहीं होती ।—रस०, पृ० १४ । २ एक पेड को एक जगह मे उखाड़कर दूसरी जगह लगाना । रोपना। वैठाना । ३ मिथ्याध्यास । झूठी कल्पना । ४. एक पदार्थ मे दूसरे पदार्थ के धर्म की कल्पना । जैसे,—अमग जीवात्मा में कर्तृत्व धर्म का प्रारोप । ५ एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ के प्रारोप से उत्पन्न मिथ्या ज्ञान । ६ ( साहित्य में ) एक वस्तु में दूसरी वस्तु के धर्म की कल्पना । विशेप-यह आरोप दो प्रकार का माना गया है। एक प्रहार्य | और दूसरा अनाहार्य । श्राहावं वह है जहाँ इस बात को जानते हुए भी कि पदार्थों की प्रत्यक्षता से श्रम की निवृत्ति हो सकती है, कहनेवाला अपनी इच्छा के अनुसार इसका प्रयोग करता है । जैसे 'मुखचद्र'। यहाँ ‘मुख’ और ‘चद्र' दोनो के धर्म के साक्षात् द्वारा भ्रम की निवृत्ति हो सकती हैं। दूसरा 'अनाहार्य है जिसमे ऐसे दो पदार्थों के बीच अारोप हों जिनमें एक या दोनो परोक्ष हो । श्रारोपक-वि० [स०] दोप था अपराध नगानेवाल।।। अारोपण-सच्चा पुं० [सं०] [वि० अारोपित, अारोप्य[ १ लगाना । स्थापित करना । मढना। २ पौधे को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगाना । रोपना । वैठाना । ३. किसी वस्तु में स्थित गुण को दूसरी वस्तु में मानना । ४ मिथ्याज्ञान । भ्रम । आरोपना--क्रि० स० [सं० अारोपस] १ लगाना । उ०—भानु देखि दल चूरन कोप्यौ । तजि अनिलास्त्र अनिल अारोप्यो । गोपाल० (शब्द) । २ स्थापित करना । ३०---सो सुनि नद सवन दै थोपी । शिशुहि सप्यार अक आरोगी ।--गोपाल (शब्द०)। आरोपित-वि० [सं०] १ लगाया हुआ । स्थापित किया हुआ । मेढा हुा । उ०—–जहाँ तथ्य केवल अारोपित या संभावित रहते हैं। वहीं वे अबकार रुप में ही रहते हैं |--रम०, पृ० १४ । २. रोपा हुआ । वैठाया हुआ। रोप्य–वि० [म०] १ लगाने योग्य । स्थापित करने योग्य । २. रोपने योग्य । वैठाने योग्य । आरोप्यमाण–सच्चा पु० [४०] १ वस्तु जिसपर किसी अन्य वस्तु का आरोप किया जाय । १ साहित्य में उपमान या अप्रस्तुत [को०] । आरोह–समा पु० [सं०] [वि० झारोही] १. ऊपर की ओर गमन । चढ़ाव । २. आझमण । चदाई। ३. घोड़े, हायी अादि पर