पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५३३

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प्राराम मारुणय ग्राम-वि० [फा०] वगा। तदुरुन्त । जैसे,—उम वैद्य ने उसे रिज-वि० [अ०1१ अडचन डालनेवाला । वाधक । २ होने या | वादे की बात में श्रीराम कर दिया। | लग जानेवाला ( रोग आदि), [को०] । क्रि० प्र०- करना । होना । अरिजी-मज्ञा पुं० [अ० पारिजह, ] १ रोग । वीमारी। २. अरामकुरमी-नश प्री० [फा०] एक प्रकार की लंबी कुरसी जिसमें कष्ट (को०] । पोटे म र कुछ लबोगरा ढानना होता है और दोनो ओर अरिजी-वि० [अ० अरिजी] १. क्षणस्थायी। नश्वर । ३ अाकस्मिक । हाय या पैर रखने के लिये लची पटरियां लगी होती हैं । इस । उ०—उसके रुखसार देख जीता है। अरिजी मेरी जिंदगानी पर प्रादमी वैठा हुश्रा आराम से लेट भी सकता है। है।--कविता कौ०, भा० ४, पृ० २६ । रामगाह-सा मी० [फा०] सोने की जगह । शयनागार। आरित्रिक-वि० [म०] अरित्र से संबधित । नाव के डाँड से मवद्ध (को०] अारामतलव--वि० [फा०] [झा आरामतलवो] १ मुख चाहने- आरिफ-संज्ञा पुं० [अ० अारिफ] साधु । ज्ञानी। उ०-प्रारिफ जो वाला । नुकुमार । जैसे,—काम न करने ने अमीर लोग प्राराम हैं उनके हैं बस रज व राहत एक 'रसा' । जैसे वह गुजरी है। तनाव हो जाते हैं। २ नुस्त । अलसी ! निकम्मा । जैसे,— यह भी किसी तरह निभ जाएगी ।—मारतेंदु ग्र०, भा० वह इतना आरामतलब हो गया है कि कही जाता अाता भी ३, पृ० ८५६ । । नही । अारिया--मज्ञा स्त्री० [स० अरूक == ककडी] एक फल जो ककड़ी के रामदान--संज्ञा पु० [फा० ग्राम + दान ] १ पानदान । २ समान होता है। यह भादौ ववार के महीने में होती है और सिरदान । बहुत ठंडी होती है। यह एक वित्ता लवो और अँगूठे के बरावर रामपाई-मझा ० [फा० आराम + हिं० पाय ] एक प्रकार की मोटी होती है। जूनी जिमे पपहले लखनऊवालो ने बनाया था। शारी-मज्ञा स्त्री० [हिं० श्रारा का अल्पा० ] १ लकडी चीरने को झारामगीतला--न पी० [८०] अनदी । गधाढ्या । महानदा । बढई का एक औजार । मगोतला । विशेष—यह लोहे की एक दाँतीदार पटरी होती है जिसमे एक विगेप-- यह उपवन में रहने के कारण शीतल होती है। शोर काठ का दस्ता या मूठ लगी रहती है । मूठ की ओर यह राजनिपटू देने तित्रत, गीतल, पित्तहारिणी, दाह और शोथ पटरी चौडी और आगे की ओर पतनी होती जाती है। इससे | को दूर करनेवानी कहा गया है । रेतकर लकडी चीरते हैं। हाथीदांत आदि चीरने के लिये श्रीरामाघिपति- पु० [भ] बगीचो का अधिकारी । जो प्रारी होती है वह बहुत छोटी होती है। विशेष- शुक्रनीति के अनुसार रामाधिपति को फल फूल के पौधे २ लोहे की एक कील जो वैल हाँकने के पैने की नोक में लगी बोने में निपुण, वाद तथा पानी देने का समय जाननेवाला, रहती है। ३. जूता सोने का मूजा । मुतारी । जही वृटियों को पहचाननेवाला होना चाहिए । आरी -सज्ञा स्त्री० [म० प्रार= किनारा] ओर । तरफ । उ०--- आरामिक-सको पु० [सं०] माली (को०] । विवाए पौरि लो बिछौनी जरीवाफन के, खिंचवाए, चाँदनी रानिक----वि० [सं०] [वि॰ स्त्री० श्रारालिका] रसोईदार पाचक । सुगध मव आरी में ।—रघुनाथ ( शब्द०)। २. कोर । अवैठ । बारी।। अरवि-मज्ञा पुं० [स०] दे॰ ' व' को०)। आरी–वि० [अ०] तग । हैरान । आजिज । जैसे,—हम तो तुम्हारी प्रास्ता --वि० [फा० भारत्तह] सजा हुआ। सुसज्जित । उ० चाल से प्रारी आ गए हैं। चमत्कृत चीजों में वह अस्तिा और पैवस्ता है। प्रेमघन, क्रि० प्र०—ाना।। | भा॰ २, पृ० २३४। आरी--संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] १ बबूल की जाति का एक प्रकार का क्रि० प्र०--करना होना । पेड जिसे जालवबुरक या स्थूलकटक भी कहते हैं । २ दृगंधखेर। राही--वि० [सं० साराघक, प्रा० राहग, अप० आराही ] बबुरी। उपाक । अाराधना करनेवाला । उ०--सुर जा पार रु'-सज्ञा पुं॰ [म०] १ कर्कट । केकडा । १ शूकर। ३ वृक्ष न पावै गोटि मुनी जन ध्याई । दादू रेतन ताकौ है रे जाको । विशेष । ४ मेढक [को॰] । मुफ़न नोन ग्राही ।--दादू० बा०, पृ० ५७३ । अरु–संज्ञा स्त्री० घडा। जलपात्र [को०] । प्रारिमा रू० [हिं० प्रड } हठ। टैक। जिद । उ०—-( क ) भारुक'-नज्ञा पुं० [स०] औषध के काम आनेवाला एक प्रकार का द्वार हौं भोर ही को ग्राजु । रटत रिन्हिा , प्रारि और न, पौधा जो हिमालय पर होती है। यह शीतलता प्रदान करता वो ही ते काजु --तुजसी ग्र०, पृ० ५६८ । ( ख ) तब है (को॰] । नकोप भगदान हुनि तीन चक्र प्रहार । घर ते सीम घर, थारुक’--वि० हानिकारक (को॰] । धरा, मरि नन्ही श्रुति प्रारि 1--गोपाल (शब्द०)। आरुण-वि० [स०] अरुण से सबंध रखनेवाला (को०] । प्रारिज-- पु० [अ० झारिज ] कपोल 1 गोल । उ॰---नगा दे अरुणि-सज्ञा पुं० [म०] १ अरुण के पुत्र । २. मूर्य के पुत्र यम, जो उए परिज ने गर वह भाग गुलशन में ।---प्रेमघन०, शनैश्चर आदि । ३ उद्दालक ऋपि [को०)। मा० ३, पृ० ४० । मारण य-मज्ञा पुं० [सं०] अरुणि ऋपि के पुत्र । श्वेतकेतु [को०] ( द)।