पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५३१

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प्रारण्य आरपो आरण्य-सज्ञा पुं० १ दे० 'अरण्य' । २ जगली पशु । ३ गोमय । प्रारथ--संज्ञा पुं॰ [ मं० ] एक वैन या एक घोडे से चलनेवाला गोबर । ४ मेष, वृप सिंह राशियाँ (ज्योतिष)। ५ विना वोए रथ [को०)। उत्पन्न होनेवाला एक अन्न को॰] । | आरन —संज्ञा पुं० [सं० अरग्य] जगत । वन । उ०—कीन्हेसि यौ०–अरण्यकार्ड= रामायण का तृतीय कोड । अरण्य फुकुट साउज श्रार न रहई । कीन्हेमि पनि उडमि जहें चहुई ।--- = बनमुग । अरण्य गान= सामवाद के चार गानो मे एक जायसी ग्र०, पृ० १ ।। अरण्यपर्व = महाभारत का एक पर्व । रथपशु == जगली प्रारनाल, प्रारनालक--सज्ञा पुं० [ मं० ] १ कच्चे गेहू' का वीचा पशु । रपमुगदा एक प्रकार की भू ग [को०]। श्रारण्य । हुअा अर्क । २ कॉजी ।। राशि=(१) ज्योतिष में सिंह आदि राशियाँ । (२) कर्कराशि आरपार-संज्ञा पुं० [सं० झार= किनारा+पार = दूसरा किनारा का पूर्वार्ध भाग ।। यह किनारों और वह किनारी। यह छोर अौर वह छोर । श्रारण्यक’--वि० [सं०] [ली प्रारण्यकी] १ जगल का । वन का । जगली । बनैला । अधिक । जैसे,—नाव ले उनी नदी का प्रारपार नही दिखाई देता । आरण्यक-सक्षा पु० वेदो की शाखा का वह भाग जिममे वानप्रस्थो के कृत्य का विवरण और उनके लिये उपयोगी प्रदेश है। विशंप–यह शब्द समाहार द्वंद्व मेमस है, इगमे इसके मात्र एक विशेष—वैदिक वाङमय मे सहिताग्रो के अनतर के ब्राह्मण ग्रंथो बचन क्रिया का ही प्रयोग होता है। का उत्तरवती वा " मय भाग जो उप निपदो का पूर्व बत है । भारपार i० वि० [सं०] एक छोर में दूसरे छोर तकः । एक किनार यौ०--आरण्यक संवाद = अरण्यक ग्रयो भे प्रतिपादित मिद्धात । से दूसरे किनारे तक । जैसे,—(क) इन दीवार में मारपार उ०—सुनाने आरण्यक संवाद तथागत प्राया तेरे द्वार । छेद हो गया है । (२) प्रारपार जाने में जितनी देर लगेगी ? -लहर, पृ० १२ ।। आरफनेज-सज्ञा पुं० [अ०] वह मधान ही अनाथ बच्चों की आरत -वि० [सं० प्रार्त] दे॰ 'अति' । उ०-गीधराज सुनि अारत रक्षा या पालन होता है। अनाथाय । यतीभपाना । जैसे,-- बानी । रघुकुल तिलक नारि-पहिचानी --मानग, ३।२३ । हिदू अशरफनेज । आरतहर(७)--वि० [सं० प्रातहर] दु ख दूर करनेवाला । कष्टहारी। अरवल, प्रारवला :-सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'मायुर्वल' । उ०-नाथ तू अनाथ को अनाथ कौन मोसो । मो समान अ। रत आरब्ध--वि० [मं०] ग्रार न फ़िया हुअा ।। नहि प्रारतहर तोसो। तुलसी ग्र ०, पृ० ५०० । अरन्धि–संज्ञा स्त्री० [सं०] शुरुग्रान । प्रारभ [को०)। प्रारति-संज्ञा स्त्री० [सं०] १ विरक्ति । विराग । स्थगन । रोक ॥२ अरभट--सज्ञा पुं०म०] १ माहसी व्यक्ति । २ माम् । वहादुरी । दे० 'अति' । ३ हठ । जिद । उ०—-साँझहि ते अति ही विरु ३ विश्वास (को०)। झान्यौ चंदहि देखि करीं अति अारति ।-- १ र ०,१०।२०० ।४ आरभटी-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्रोधादिक उग्र भावो की चेष्टा । अनीति । उ०-नदघर नि अजनारि विचार नि । ब्रजहि वसंत सव जनम सिरानी ऐसी करि न र ति ।-सूर०, १०४२६ । उ० --झूठौ मन झूठी मब काया, झुठी र भटी। अरु झन आरति -मज्ञा स्त्री० [सं० प्रति] मनोरथे । इच्छा । उ०-मोको को बदन निहारत मारत फिरत नटी ।- ( १०) २ एक आत्मनिवेदन करवाइए और मेरी आरति पूरन करिए । -दो प्रकार की नृत्यशैनी (को०] । ३ नाटक में एक वृत्ति का नाम सौ बावन॰, भा॰ २, पृ० १६ ।। विशेष--इम वृत्ति मे यमक न। पयोग अधिक हो का है। इसके द्वारा आरती–सच्चा स्त्री० [म० आरात्रिक] १ किमी मूर्ति के ऊपर दीपक माया, इंद्रजाल, संग्राम, क्रोध, अाधान प्रतिघात और ३ नादि को घुमाना। नीराजन । दीप । उ०—-चढी अटारिन्ह देखहि विविध रौद्र, भयानक र वी स्पि रम दिखाए जाते हैं। | नारी। लिए भारती म गल थारी ।—मानस, १।३०१ । इसके चार भेद हैं-वस्तुत्याउन, सर्फ, सक्षिदिन प्रौ' अवतन विशेष--इसका विधान यह है कि चार चार चरण, दो बार (१) वस्तूयापन = ऐसी वस्तु का प्रदर्शन या वर्णन जिसमें नाभि, एक बार में ह के पास तथा सात बार सवग के ऊपर रौद्रादि रमो की सूचना हो । जैसे,—सियारो का बौना और घुमाते हैं । यह दी है या तो घी से अथवा कपूर रखकर शमशान अादि । (२) मफेट= दो ग्रादमियो का झटपट जलाया जाता है। वत्तियो की संख्या एक से कई सौ तक की अाकर भिड जाना । (३) स क्षिप्नि = क्रोधादि उग्न भावों को होती है । विवाह में वर और पूजा में प्राचार्य आदि की भी निवृत्ति । जैसे,—रामचंद्र जी की बातों को सुनकर परशुराम आरती की जाती है । के क्रोध की निवृत्ति । (४) अवपातन = प्रवेश से निष्क्रमण नक रौद्रादि भावो का अविच्छिन्न प्रदर्शन । क्रि० प्र०——उतारना 1-—करना । रमण-सया पुं० [मं०] १ हर्ष या अनिद मनाना । २ हपं । मुहा०—आरती लेना= देवता की आरती हो चुकने पर उपस्थित । खुशी । ३ यौनसुख । ४ विश्रामम्यन । विराम [को०)। लोगो का उस दीपक पर हाथ फेरकर माथे लगाना । श्राव--सच्चा पु० [सं०] १ शब्द २ वह पात्र जिसमे घी की बत्ती रखकर अरती की जाती है। अावाज । २ अहिट । उ०— घुरधुरात हुये आरव पाए । चकित बि रोकने कान उठाए ।-- ३ वह स्तोत्र जो भारती के समय गाया या पढा जाता है । तुलसी (शब्द॰) । प्रारत्ति --संज्ञा स्त्री० [सं० आति]दे० 'अात्ति' । ३०---श्री कॅथाई प्रारो -वि० [सं० शार्ष] झार्प । ऋपियो को। उ०—भले भूप जी का स्मरन करि कै दोहोत रत्ति सो विनती करी । कहत भले भदेश नूपन सो लोक लखि वोत्रिए पुनीत रीति दो सौ बावन, भा॰ २, पृ० १०७ ।. अरषी ।---तुलसी (शब्द॰) ।