पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५३०

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प्रारंभना' ४६३ मारण्य -- प्रारभना--त्रि० स० प्रारंभ या शुरू करना । प्रारक्तिम---वि० [सं०] योहा लाल । हल्की नाली लिए हुए को०] । रिमनिष्पत्ति--सच्चा दी० [म०] १ उपलब्धि । माल की मांग पूरी श्रीरक्ष-सच्ची पुं० [न०] १ रक्षा । २ सैन् । फौज । ३ हाथी के करना। २. माल पैदा करने या बनाने की लागत । (को०] । कु भ का सधिम्युन (को॰] । प्रारंभवाद----सज्ञा पु०[स० प्रारम्भवाद] न्यायशास्त्र का वह सिद्धात अारक्ष–वि० सुरक्षित । में मानकर रखा है। [को०] । जिमके अनुसार विश्वसृष्टि परमाणु के योग में परमात्मा के आरक्षक-सधा पुं० [म०] १ पहरेदार । रक्षक । २ सिपाही (को०)। इच्छानुसार हुई [को॰] । श्राग्क्षण--संज्ञा पुं० [म.] निर्धारित करना । निश्चित करना 1 अं० आरभशूर----वि० [सं० प्रारम्भशुर] किसी काम को ठान देने में रिजर्वेशन । आगे रहनेवाला । र ०---अपने सहयोगियों में हास्यास्पद वन आरक्षिक, प्रारक्षी ---सझा पु० [म०] दे० 'रक्षक' (को०] । जाएँगे, प्रारंभशूर कहवाय लेंगे ।--प्रताप ग्र०, पृ० ७१२ ।। प्रारग्व--सज्ञा पुं० [म०] प्रमिलतास ।। आरंभिक-वि० [सं० प्रारम्भिक ] प्रारंभ में मवध रखनेवाला । श्रारचित--वि० [अ०] पूर्ण रूप से सज्जित ! अच्छी तरह बनाया शुरू का कि०] । हुअा (को०] । प्रारंभी----वि० [सं० प्रारम्भिन्] १ प्रारंभ करनेवाला । २ नए ग्रौर प्रारचेस्ट्रा--सच्चा पु० [सं० आरकेस्ट्रा] १ श्रियैटर यदि में सामने कठिन काम को करने के लिये सर्वप्रथम वढनेवाला । वैठकर वाजा व जानेवालो का दल । २ थियेटर में वह स्थान प्रार--सज्ञा पुं० [सं०, तुल० अ ० ‘ोर'] १ वह लोहा जो खान से । जहाँ बाजा बजानेवाले एक मथि बैठकर बाजा बजाते हैं । निकाला गया हो, पर माफ़ न किया गया हो । एक प्रकार ३ थियेटर में सबसे आगे की मोटे या मन । का निकृष्ट लोहा । ३ पीतन्न । ३ किनारा । ४ कोना ।। शारज - वि० [सं० अर्य ] २० 'अ' । उ०--फूटहि मो जयचंद यो०--द्वादशीर चक्र 1 पोडसार चक्र ।। बुनायो जयनन भारत धम् । जाको फ7 अब त भोगत सब विशेप--इम प्रकार के द्वादश कोण और पोडश कोण के चक्र अारजे होत गुलाम (-मारतेंदु ग्र०, 'भा० १, पृ० २३६ । बनाकर तात्रि के लोग पूजन करते हैं । अारजपथ ---संज्ञा पु० [म० मार्य +पय अार्य मार्ग । मदावार का ५ पहिए का अारा । ६ हृतान ।। मार्ग । उ०----अरजपथ मूली भने विमि परी हित फः ।-- प्रार--सज्ञा स्त्री० [सं० श्रल =डक १ लोहे की पतनी कील जो घनान, पृ० २३८ । सौटे या पने में लगी रहती हैं। अनी। पैन । २ नर मुर्गे के पंजे का कोटा जिससे लडते समय में एक दूसरे को घायल करते | अरिजा--सा पुं० [अ० अारिजह] रोग । वो मारी । हैं । ३ विच्छ, भिड और मधुमक्खी आदि को डक । उ०—-बीछी । शार जु-संज्ञा स्त्री॰ [फा०] इच्छा । वाछा । जैसे,—(क) मुझे बहन अर सरिस टेई मूॐ सवही की 1--प्रेमघन, भा० १, पृ० १० । दिनो से उनके मिलने की प्रारजू है । (ख) बहुत दिनों के बाद और--संज्ञा स्त्री०=० श्राराचमड़ा छेदने की सूया या टेकु । मुतारी। मेरी अरिजू पूरी हुई । और--सज्ञा पु० [देश॰] १ ईख का रस निकालने का कलछा । यौ०--आरजूमद । पल्ली । तवी । २ वर्तन बनाने के साँचे मे भीतरी भाग के महा०-- श्रारजू बर माना = इच्छा पूरी होना । अाशा पूरना । ऊपर मुह पर रखा हुआ मिट्टी का लोदा जिसे इस तरह जैसे,---बहुत दिनो मे अशा थी, आज मेरी प्रारज वर प्राई । बढाते हैं कि वह अंवठ के चारों ओर बढ ग्राता है । आरजू मिटाना = इच्छा पूरी करना । जैसे,—-म भी अपनी आर--ज्ञा पुं० [हिं० अड़] अडे । जिद । हठ । उ०—-(क) अरिजू मिटा लो । अँखियाँ करत हैं अति आर। सुदर श्याम पाहुने के मिम २ अनुनये । विनय । विनती ।। मिलि न जाडू दिन चार ( शब्द०) ! प्रारजूमद-वि० [फा०] इच्छुक । अभिलपी । क्रि० प्र०—करना--जिद करना । उ०—केवहुक अार करत अारट-वि० [सं०] चार बार रट लगानेवाला । मोर करने माखन की कवहुक मैख दिखाइ विनानी - -मूर (शब्द०)। वाला [को०) । –ठानना । उ॰—हरीचंद वलिहारी र नहि थानो ।-- अारट-- सच्चा पु० विदूषक (को०) । भारतेंदु ग्र०, मा० २, पृ० ४६८ । आर-1 मी० [अ०] १ तिरस्कार । घृणा । अारट्ट-सज्ञा पुं० [सं०] १ पजाब के उत्तर पूर्व का एक भूगि । क्रि० प्र०—करना । जैसे, भले लोग बदचलनी से प्रार करते हैं। २ प्रारट्ट के निवासी । ३ प्रारट्ट जनपद का घोडा (को०)। २ अदावत । वैर जैसे,—न जाने में हममे क्यो प्रार रखते हैं । औरण---संज्ञा पुं॰ [देश॰] दे० 'अहरन' । मo-fजब सारण हा ३. गर्म । हृया । नउज । उ०—यूछ तुम्हीं मिलने से वेजार पाहीजे तर्प भन्ने भावाय !-प्राण०, पृ० २११ । हो मेरे, वन, दोस्ती नग नही, ऐवे नही, अार नही ।-शेर०, प्रारणि--सच्चा पु० [सं०] जलविर्त । भेवर (को०] । मा० १, पृ० ११। । श्रारणेय-सफा पुं० [सं०] शुकदेव मुनि [को०] । क्रि० प्र०----भाना । जैसे,—इतने पर भी उसे अार नहीं मानी। भार णेय-वि० [म०] १ अर राि दामन यत्र नै उत्पन्न ५ नबद्ध । प्रारक्त---वि० [सं०] १. ललाई लिए हुए । कुछ लाल । २ लाल । रिण्य–वि० [२०] १ जमली । वन ना । २ गान का । बन का। भारत--संज्ञा पुं॰ [सं०] लाल चंदन । यी--अरण्ये फुकुट । प्रारण्प गान । भारण्य पर्छ ।