पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५२६

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“वैस्यं ४५६ अमेजना । अमावास्य–वि० [सं०] अमावस्या से संबधित [को०] । आमिपभोगी-वि० [स० श्रमिप+भोगी] मासमक्षी । उ0---केतें प्रामाशय-सुज्ञा पुं० [स०] पेट के भीतर की बह थे की जिसमें मो जन न रक्त प्रसूननि देख फिरे बग ग्रामिपभोगी 'भुलाने ।-भिखारी किए हुए पदार्थ इकट्ठे होते और पचते हैं । ये ०, भा० (?) पृ० ८० । विशेष-सुव्रत में इसका स्थान नाम और छाती के बीच में विवाह वि० [o ग्रामिषाशिन] [वि० जी० आमिषाशिनी] मांस लिखा है, पर वास्तव में इस वैली का चौड़ा हिस्सा छाती के भक्षक । मास खानेवाला । नीचे बाईं ओर होता है और कमश पत ना होता हुप्रा दाहिनी झामिपी--सज्ञा लौ० [सं०] जटामांसी । बालछडे ।। शोर को घुमाव के साथ यकृत के नीचे तक जाता है। यह प्रामी---अध्य० [ इव० 1 एवमस्तु । ऐसा ही हो । थैली झिनी और मास की होती है। इसके ऊपर बहुत से मुहा०--ग्राम मी करनेवाले = हाँ मे हाँ मिलानेवाले । छोटे छोटे बारीक गड्ढे , इच से 3.5 इंच तक के व्यास खुशामदी। के होते हैं, जिनमें पाचन रस भरा रहता हैं । इन थैली में। अमी---संज्ञा स्त्री० [हिं० श्रम] १ छोटा ग्राम। अॅविया । उ०—पहूच कर भोजन वरावर इधर उधर लुढ़का करता है जिसमे ग्राई उधृरि प्रीति कन्नई सी जैमी खाटी ग्रामी। सूर इते पर उसके हर एक अप्त में पाचन रस लगता है। इसी पाचन रस अनखनि मरियत ऊधो पीवत भामी 1-मुर०, १०॥४२४७ । श्रौर पित्त आदि की क्रिया से खाए हुए पदार्थ का रूपातर २ एक पेड जो कद मे बहुत छोटा होता है। तु गा । भान । होता है, जैसे पित्त में मिलकर दूध पेट में जाते ही दही की। विशेप--हर माल शिशिर ऋतु मे इसके पत्ते झड़ जाते हैं । तरह जम जाता है। इसके होर की लकडी स्याही लिए हुए पीली तथा बडी मजबूत मामाहल्दी--मज्ञा झी० [सं० प्रामहरिद्वा] एक प्रकार का पौधा और कडी होती है । इममे सजावट की अनेक चीजें बनाई | जिसकी जद रग में हल्दी की तरह और गध में कचूर की तरह जाती हैं । हिमालय के पहाडी लोग इसकी पतली टहनियो होती है। यह वंगान के जगलो मे वहुत जगह श्राप से प्राप की टोकरियां बनाते हैं। शिमला, हुजारा तथा कुमाऊँ के होती है। यह चोट पर बहुत फायदा करती है । पहाडो में यह वृक्ष अधिकतर पाया जाता हैं। आमिक्षा--सज्ञा स्त्री० [सं०] फटा हुआ दूध । छेना । पनीर । मी-मझा स्त्री० [सं० श्राम = कच्चा] जौ और गेहू की भुनी। आमिख-सुज्ञा पुं० [सं० शामिप] दे० 'ग्रामिप' । हुई बाल । मिन--सज्ञा स्त्री० [हिं० श्रीम] अवध में आम की एक जाति जिसके । यौ०---मी हो । फल सफेदे की तरह मीठे पर बहुत छोटे होते हैं । ग्रामीलन-संज्ञा पुं० [सं०] १ अाँखें बंद करना। २ बंद करना (को०] । आमिर--संज्ञा पुं० [अ०] हाकिम । अधिकारी। उ०- नव । मुक्त-वि० [सं०] १ मुक्त किया हुआ। छुटकारा पाया हुआ । नागरितन मुन्नुकु लहि जोबन ग्रामिरे जौर। घटि वढि नै बढि | २ फेंका हुग्रा या त्यागा हुआ । ३ स्वीकार किया हुमा । घटि रकम की अौर की और ।-विहारी र०, दो० २२० ।। | अपनाया हुआ (को०] । आमिल-ज्ञा पुं० [अ०] १. काम करनेवाला । अनुष्ठान करने प्रामुख-सुज्ञा पुं० [सं०] नाटक का एक अंग । प्रस्तावना । वाला । २. कर्तव्यपरायण । ३. अमला । कर्मचारी । ४. प्रामुखता--संज्ञा पुं० [फा० आमोख्तह,] दे० 'ग्रामोसा'। उ०-(क) हाकिम । अधिकारी । उ०—लिये सकल सुख छीन, बिरहा। कुछ दिन कहीं जाकर प्रमुखता सुनाइए, तवे कहीं अकिर बातें अामिल अाइके ।--नट०, पृ० १०१ । ५. अोझा । सयाना । वेनाइए ।--प्रेमघन०, भा॰ २, पृ० २९६ । (ख) कोउ। ६. पहुचा हुप्रा फकीर । सिद्ध । प्रामुखता पढत जोर सौं सौर मचावत ।--प्रेमघन०, भा० १, मामिल - वि० [स० अम्ल] खट्टा । अम्ल । उ०—प्रहै सो कडून पृ० २० । अहै सो मीठा । अहे मो अामिल अहै सो सीठा ।--जायसी प्रामुचे --सर्व० [मरा० आमुचा= हमारा] हमारे । उ०--तुम्ही (शब्द०)। प्रामुचे देव, तुम्ही अमुचे ध्यान |--दादू० वा०, पृ० १७४। आमिश्रा-संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भूमि या राज्य जिसमें राजभक्त मौर। प्रामुष्मिक-वि० [सं०] [वि० जी० प्रामुष्मिकी] पारलौकिक । परलोक राजद्रोही समान रूप से हों ।। | मबधी । विशेप---कौटिल्य ने कहा है कि राज भक्त जनता के भहारे ही मुल–क्रि० वि० [१०] प्रारम मे अत तक । प्रायंत । उ०-देखा मिश्रा भूमि पर शामन किया जाय । विवाह आमूल नवन्न । तुझ पर शुभ पटा कनपा का जल ।-- आमिप-सज्ञा पुं० [म०] १ मास । गोश्त । उ०—उनकी ग्रामिप अनामिका, पृ० ३२।। | मोगी रमना अखिो से कुछ कहती -कामायनी, पृ० १११ । श्रामेज---वि० [फा० पामेज] मित्र हुग्रा । मिश्रित । यौ०--अमिपप्रिय । अमिपाशी । प्रामिपाहारी । निरामिष ।। बिशेप--इस शब्द का प्रयोग प्राय यौगिक शब्द बनाने के २ 'भोग्य वस्तु । ३ नोभे । लाच । ४ वह वस्तु जिससे लोग लिये होता है, जैसे,—-इदंग्रामेज । पनियामेज ( दही वा उत्पन्न हो । ५ जैवीरी नीबू । | अफीम ) । ग्रामिपप्रिय-वि० [सं०] जिसे माम प्यारा हो। अमेजना--क्रि० स० [फा० अमेज+हिं० ना (प्रत्य॰)] मिलाना। अामिपप्रिय--सक्षा पुं० गिद्ध, चील और बाज अादि पक्षी जो माँम सानना । उ०—भीजो अरगजे मे भई ना मरगजे सजी अमेजे पर टूटते हैं। सुगध से तजी शुभ्र शीत रे ---देव (शब्द॰) ।