पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५२३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

श्राम अभिीर आभीर--संज्ञा पुं० [सं०][सौ० आभीरी] १ अहीर । ग्वाल । गोप । आभ्यंतर आतिथ्य---सज्ञा पुं० [म ० म्यन्तर प्रातिथ्य] देश के भीतर उ०-- भीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अध पाया हुआ विदेशी माल । जे --मानस, ७॥१३० । आभ्यतरकोप--सच्चा पु०स० श्राभ्यन्तरकोप] मत्री, पुरोहित, सेनापति विशेप-ऐतिहासिको के अनुसार भारत की एक वीर और प्रसिद्ध युबराज शाति का विद्रोह (को॰) । जाति जो कुछ लोगो के मत से बाहर से आई थी। इस अभ्यतरिक--वि० [म० श्राभ्यन्तरिक] अतर ग । 'भीतरी ।। जातिवालो का विशेष ऐतिहासिक महत्व माना जाता है। कहा ग्राभ्युदयिक-वि० [स०]अभ्युदय सववी । मगन या कल्याण सवधी । जाता है कि उनकी सास्कृति का प्रभाव भी भारतीय भास्कृति पर प्राभ्युदयिक-संज्ञा पुं० [सं०]एक श्राद्ध जिसे नादीमुख भी कहते हैं । पडा । वे आगे चलकर अायों में घुमि न गए । इनके नाम पर विशेप----इस श्राद्ध मे दही, वैर और चावल को मिलाकर पिइ अभी नाम की एक अपभ्रंश (प्राकृक्ष) भापा भी थी । देते हैं और इसमे माता, दादी और पग्दादी को पहले तीन यौ०--भीरपल्ली = अहीरो का गाँव । ग्वालो की वस्ती ।। पिड देकर तप वाप, दादा, परदादा, मातामह और वृद्ध प्रमाता २ एक देश का नाम । ३ एक छद जिसमे ११ मात्राएँ होती हैं। मह अादि को पिंड देते हैं। इनके अतिरिक्त नीनो पक्षो के और अत मे जगण होता है । जैसे,—यहि बिधि श्री नीस विश्वेदेवा होते हैं। उन्हें भी पिइ दिया जाता है। यह रघुनाथ । गहे 'भरत के हाथ । पूजत लोग अपार । गए राज श्राद्ध पुनजन्म, जनेऊ और विवाह आदि शुभ अवसरों पर दरवार । ४ एक रोग जो भैरव राग का पुत्र कहा जाता है। होना है। इसमें यज्ञ करनेवाले को अपमन्य नही होना पड़ता । अभीरक'--वि० [म०] ग्रामीर या अहीर सवधी [को०] । ग्रामऊ--वि० [सं० आमजु] अच्छा। मनोरम [को०] । अभीरक-सज्ञा पुं० १ आभीर या अहीर जाति । २ ग्रामीर या ग्रमित्रण--मज्ञा पु० [सं० आमन्त्रण] [मत्रित] १ सवोधन । | अहीर जीति का कोई सदम्य (को०] । बुलाना । पुकारना । आह्वान । २ नि म त्रए । न्योता। बुलावा । अभीरनट--सज्ञा पु० [म० Jएक सकर राम जो नट और अभीर से उ०--खुलै मसृण भजमूनो से वह मिश्रण था मिलता । मिलकर बनता है । --कामायनी, पृ० १२५ । भाभीरी--मज्ञा स्त्री० [सं०] १ एक संकर रागिनी जो देशकार, मित्रयिता-संज्ञा पुं० [सं० झामन्त्रयितु] वह जो निमत्रण देता कल्याण, पयाम गौर गुर्जरी को मिलाकर बनाई गई है। है (को॰] । अवीरी । २ भारतवर्ष की एकप्राचीन भाषा जो ईमवी दूसरी मत्रित--वि० [स०अामन्त्रित ]१ बुलाया हुआ । पुकारा हुआ । २. या तीसरी शताब्दी में पंजाब में बोली जाती थी। अागे निमत्रित । न्योता हुपा । उ०---विस्तृत वसुधा की विभुता चलकर ईसवी छठी शताब्दी में यह 'भापा अपभ्र म के नाम से कल्याणसघ की जन्भूमि मित्रित करती आई थी ।-- प्रसिद्ध हुई थी। उम ममय इस भाप मे साहित्य का भी लहर, पृ० ३३ ।। निर्माण होने लगा था। क्रि० प्र०—करना । —होना । भील--सज्ञ पु० [सं०] दु ख । कष्ट । अभद्र'–वि० [सं० अनन्द्र] थोडा गभीर स्वरवाला [को०) । अभूत--वि० [सं०] उत्पन्न । अस्तित्ववाला (को॰] । अमद्र--सझा पु० थोडा गनीर स्वर [को॰] । प्रामपण-संज्ञा पुं० [सं०] [वि० श्राभूपित] गहना । जैवर। भरण। मृ--अव्य ० [सं०] अगीकार, स्वीकृति और निश्चयसूचक शब्द । अलकार । उ०-उधर धातु गनते, बनते हैं आभूषण यौ अस्त्र नए हाँ । इसका प्रयोग नाटको की वोलचान में अधिक है । कामपनी, पृ० १८१ ।। श्राम--सा पुं० [सं० शाम्र] एक बड़ा पेड और उसका फल। प्राभूषन--संज्ञा पुं॰ [स० आभूषण] ३० ‘अभूपण' । रसाल । भूत--वि० [सज्ञा] १ अच्छी तरह से भरा हुआ। ३ बँधा हूँ । विशेष-यह वृक्ष उत्तर पश्चिम प्रात को छोड और सारे भारत वर्ष ३ उपादित [को०] । में होता है । हिमालय पर भूटान से कुमाऊँ तक इसके आभेरी---संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी [को०] ।। जगली पेड मिलते हैं। इसकी पत्तिय नबी लवी गहरे हरे भोग----सज्ञ [सं०] १ रूप की पूर्णता । रूप में कोई कसर न रग की होती हैं । फागुन के महीने में इनके पेड म जरियो रहना । किसी वस्तु को लक्षित करनेवाली सब बातो की या मौरो से लद जाते हैं, जिनकी मीठी गध में दिशाएँ विद्यमानता। जैमे-यहाँ भोग से वस्ती का पास होना जाना मर जाती है । चैत के प्रारभ में मौर झड़ने लग जाते जाता है । २ किसी पद्य के बीच में कवि के नाम का उल्लेख। हैं और 'सरसई' ( सरसों के बराबर फन ) वैठने लगते ३ बरुण का छत्र । १, सुख अादि का पूरा अनुभव । हैं । जव यच्चे फन वैर के बरावर हो जाते हैं। सर्वे भोजी--वि० [सं० भोजिन् ] खानेवाला (को०)। वे 'टिकोरे' कहलाते है। जब वे पूरे बढ़ जाते हैं और अभ्यतर-वि० [सं० आभ्यतर] भीतरी । अतर का । उ-काव्य का उनमे जाली पडने लगती है, तब उन्हें 'अॅवियाँ' कहते हैं । | प्राम्यतर स्वरूप या अामा भाव या रस है !-म०, पृ० १०५। फन के भीतर एक बहुत कडी गुठली होती है जिसके ऊपर यो०--आभ्यतर तप = भीतरी तपस्या । यह तपस्या छह प्रकार कुछ रेशेदार गूदा चढ़ा रहती हैं। कच्चे फल का गूग सफेद की होती है-(१) प्रायश्चित, (२) वैयावृत्ति, (३) स्वाध्याय, और कडा होता है और पक्के फन का गला और पीला ! (४) विनय, (५) व्युत्मर्ग और (६) शुभ ध्यान । किसी किसी मे तो विल कुल पतला रस निकलता है। अच्छी