पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५२२

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मार्गस ४५५ आभिहारिक श्रावेस(--संज्ञा पुं० [भ० अविश] दे॰ 'ग्रावेश' । उ०——ामा के तगण का होता है, जैसे,-वोल्यौ तबै शिष्य अाभार तेरो अवैम अगोचर अव कौ ल भटकही।—घनानंद, पृ० ५२२ । | गुरु जी न भूलो जप ग्राठहू' जाम । हे राम हे राम हे राम है। आवेहयात--संज्ञा पुं० [फा० अब+ अ० हयात ] जीवनजाल । राम हे राम हे राम हे राम हे राम । (शब्द०)। ४, एहसान । | अमृत । मुधी । उ-प्राबैह्यात जाके किम ने पिया तो वा । उपकार । निहोर ।। मानिंद खिजर जग में अकेला जिया तो क्या !-- कविता कौ० आभारी-वि० [स० भारिन्] एहसाने माननेवाला। उपकार मा० ४, पृ० ४१ ।। माननेवाला । उपकृत। उ०—कितना ग्रामारी हैं, इतना ब्द - वि० [सं०] वादन से उत्पन्न या सवद्ध (को॰) । सुवेदनमय हृदय हुअा - कामायिनी, पृ० २२६ ।। प्राब्दिक---वि० [सं०] वापिक । मालाना । मावत्मरिक । आभाष---संज्ञा पुं० [सं०]१ संबोधित करना। २ परिचय । 'भूमिका । आन्नत -संज्ञा पु० [ म० आवर्त ] दे॰ 'ग्रावर्त' । ३०---विमर मुधि । ३ भापण । केयन (को०] । उन मद गति फिरे । नन्न। निधि अावन मन घिरे ।—घनानंद प्राभापण--संज्ञा पुं० [म०1 स भाषण । बातचीत करना। २. पृ० २६१ । सवोधन [को०)। ग्राभ'--मझो भी० [सं० भाभर] शो भी । काति । अ म । घुति। आभास- सज्ञा पुं० [सं०] १ प्रतित्रिव । छायी । झलक । जैसे,— अभिG-सज्ञा पुं० [फा० आव वा ५० अम्भ प्र० अन्भ] पानी । हिंदू समाज में वैदिक धर्म का आभास मात्र रह गया है । २ जल । उ०-- जिन्ह हरि जैसा जाणिय निन । तैमा नाम । पता । सकेत । जैसे,—उनकी बातो मे कुछ प्रामाम मिलेगा। ग्रोमो ध्यान में भाजई ज; लेग में न न भ ।- व दीर कि वे किमको चाहते हैं । गू 0 पृ० ६ ।। क्रि० प्र० देना |--पानी ।--मिलनी ।। प्राभ–मशा पु० [म० अन्न] अाकाश ! (डि०) । ३ मिथ्या ज्ञान । जैसे,---सर्प मे रस्मी का अामास । आभय-भ्सच्चा मुं० [सं०] १ काना अगर । २ कुट नाम की ग्रोपछि । यो ०--प्रमाणभाप । विरोधाभाप । रसाभास । हेत्वाभास । अभिरण--मा पु० [म०] गहना । भूपण। ग्राभरी । जेवर । प्रभासन-मज्ञा पुं० [म०] स्पष्ट करना । । नासिन करना। अनदार। प्रकाशित करना (को॰] । विशेप-नकी गणना १२ है- (९) नूपुर । (२) किंकिणी । अाभास्वर नि० [म०] पुर्णरूप से भासित होनेवाला । चमकीला । (३) चूदी । (४) अॅगृठी । (५) कवण । (६) विजयठ ।(७) तेजोमय । उ०-- हम माम्वर देवतश्रो की तरह प्रीति का हार । (८) कश्री । (६) वैमर । (१०) विरिया । (११) भोजन करते हैं । भस्मावृत० पृ० १०५ ।। टीका। (१२) सीम फुन्न । अभिग्ण के चार भेद हैं--(१) प्राभिचारिक-वि० [म०] १ अभिचार मवधी । होना या जादू ग्रावेध्य अर्थात् जो छिद्र द्वारा पहने जायें, जैसे,—कर्णफूल, सबधी (को०] । वाली इत्यदि । (२) वधनीय अर्थात जो वाँधकर पहनी जाउँ, श्राभिचारिक-सज्ञा पु० अमिचोर सबधी मात्र [क]। जैसे----बाजूबंद, पहुंची, सीसफर, पुपादि । (३) क्षेप्य अर्थात् आभिजन--सज्ञा पु० [१०] कुलीनता को०] । जिमम आग हान्न कर पहनें, जैमेकडा, छडा, चूडी, मदरी अभिजात्य-संज्ञा पुं० [१०] १ उच्च कुन में पैदा होने का माव । इत्यादि । (४) अप्य अर्थान् जो किमी अग में लटकाकर कुलीनता। ३ श्रेणी । ३ विद्वत्ता ! ४ सौंदर्य (को०) ।। पहने जायें, जैसे--- हार, कुटथी, चपाकली, सिकरी अादि । ग्राभिजित--वि० [ ० ] अभिजित मुहर्त या नक्षत्र में पैदा होने२ पोपण । परवरिश ।। | बाला को॰] । भाभरन(g--सज्ञा पुं० [सं० श्राभारण1 दे० ' भरण' । ३०-जटिल ग्राभिचा--मना जी० [सं०] १ ध्वनि । शब्द । २ नाम । ३ जवाहिर आ भरने छवि के उठत तरग ।-स० सप्तक, पृ० ३७३। व्याख्या । उल्लेख (को०] । ग्राभरित-वि० [सं०] सजाया हुआ अभूपित । अलकृत । २ पोपिन। भिवानिक'---वि० [सं०] कोश विधी या कोश में प्रयुक्त होनेअाभा- सच्चा स्त्री० [म०] १ चमक। दमक । काति। उ०—यी कामक। दमक, काति। उ०—यी वाला [को०] । अग सुरभि के सग तर गित आमा ।--साकेत, पृ० २०४। भाभिधानिक’- संज्ञा पु० कोशकार (को०] । २ दीप्ति । यति । प्रभा । उ०—-उस धुधले गृह में अभी से अभिप्रायिक--वि० [म०] अभिप्राय सवधी । ऐच्छिक [को॰) । तामस को छलती थी । कामायनी, पृ० ११८३ झनक | ग्राभिमुरूप्र–सझा पु० [सं०] १ आमने सामने होने की अवस्था या प्रतिविय । छाया । ४ ववून का पेड । । | भाव । २ अनुकून होना (को०] । भाक--सज्ञा पुं०स०]१ एक प्रकार के नास्तिक । २ कहावत । ग्राभिरामिक-वि० [सं०] सुदर । अच्छा [को०] । मंसल । अहाना ।। श्राभिरूपक, प्राभिरूप-सा पु० [सं०] मुदरता । नौदर्य [को०] । आभात-वि०म०1१ चमकता हुआ । २ कातिपूर्ण । ३ दृश्य [को॰] । अभिपेचनिक-दि॰ [स०] अभिषेवन सबछी। राजति नक अवधी श्रीभार--संक्षा पुं० [सं०] १ बोझ । २ गृहस्थी का वोझ । गृहप्रबंध (को०] । की देखभाल की जिम्मेदारी । ३०--चलन देत ग्रा मारु मुनि, अभिहारिक'--वि० [नं०] १ उपहार में दिया हमा। २. छल उही परोमिहि नहि । ल स तमासे की दृगनु हाँसी अमुनु या बलपूर्वक लिया हुआ (को०] । महि ।--विहारी २०, दो ५५१ । ३ एक बर्णवृत्त जो प्राठ आभिहारिक’---सच्ची पुं० १ उपहार । भेट । २. कमरा (फो०] ।