पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५१८

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प्रापा श्रत ४५१ झापा--मज्ञा स्त्री० [हिं० अप] वडी वहिन ( मुसलमानी ) । समस्त चरण के समस्त वर्ण लधु होते हैं, केवल अल के दो आपा--सच्चा पु० वडा माई ( महाराष्ट्र )। वर्ण गुरु होते हैं । झापाक-मज्ञा पुं० [म०] १ आवा। २ मट्ठी [को॰] । श्रापीड़-वि० १ कष्ट देनेवाला। पीडक । २ दवानेवाला [को०]। श्रापात- संज्ञा पु० [म०] १ गिराव । पतन । २ किमी घटना का श्रापीडन--संझा पु० [सं० प्रापीडन] १ दाना या मनना । ३. अचानक ही जाना । ३. शारभ । ४ अत । ५ पहनी झनक। दुख देना । कष्ट देना [को०)। प्रथम दयान (को०)। ६ गिराना । अध पतित करना (को०)। आपति'—सा पुं० [सं०] सोनामाखी ।। ९७ हाथ पकडने के लिये उसे गड्ढे में गिराना (को०) । ८ प्रपात आपीत--वि० [4] सोनामाखी के रग का । कुछ पीला । नरक [को०] । पीन--वि० [म०] १ मोटा । २ मजबूत ! बलवान् (को०] । ग्रापातत. क्रि०वि० [सं०] १ अकस्मात् । अचानक । २ प्रत को । पीन-सद्मा पु० १ थन या छीमी । २ कुन्न । कूप (को०] । पानसभा पु० १ थन अाखिरकारे । ३ ऊपर ऊपर से । उ०—सहानुभति और उदा- श्रापु)---सर्व० [हिं०] १० 'आप' । उ०—प्रापु गए अरु तिन्हह रता अादि-प्रपातत अभासित होते हैं ।--शैनी, पृ० ११६ । | घालहि जे कहु सन्मारग प्रतिपानहि।---मानस, ७॥१०० । पातलिको---संज्ञा पुं० [सं०] एक छद जो वैताली छद के विपम अपुन–सर्व० [हिं०] दे० 'अपना'। चरणो में ६ र सम चरणों में ८ मात्रा के उपरात एक पुनः---सर्व० [ भ० अात्मन्, प्रा० अप्पण, हि० आप ] खुद । स्वय । ३०---योपुन चढे कदम पर धाई। बदन सकोरि भगण ग्रौर दो गुरु रखने मे बनता है । उ०—हर हर भज 'भौंह मोरत हैं, हाँक देत करि मद दुहाई ।-मूर०, १०1१४१८ । रात दिना रे, जजालहि तज या जग माहीं । तन, मन, धन सो आपुनो –सर्व० [हिं०] दे॰ 'अपना' । जपिही जो, हुरधाम मिलव इशय नाहीं । अापुस श्रीपाद --अव्य० [म०] पैर तक [को०)। –सञ्चापु० [हिं०] १० अापस' । उ०-देखि हमें सब अपुस मे जो कछु मन मावे सोई कहती हैं ।-इतिहास, पृ० २६३ ।। यौ०.- श्रीपादमस्तक = मिर से पैर तक। अापूपिक--- वि० [सं०] १ बढिया पुश्रा वनानेबाला । २ पुप्रा खाने ग्रापादमी पुं० १ प्राप्ति । २ पुरस्कार । इनाम । ३ पारिश्रमिक |" मे अभ्यस्त । पुग्ना खाने का शौकीन । ३ पुप्रा वेचनेवाला ।। [को०] ।। आपूप्य-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १. अटा । २ बेसन । ३ मंदा । ४. आपाधापी --सज्ञा स्त्री० [हिं० श्राप + घाप] १ अपनी अपनी सत्त, (को०] । चिता । अपने अपने काम को ध्यान । अपनी अपनी धुने । प्रापर-सञ्ज्ञा पुं० [सं०][वि० श्रापूरित, अपूर्ण] १ वाढ । बाढ़ का जैसे,—आज मव लोग आपाधापी में हैं। कोई किसी की । वेग । बहाव । २. जो भरा हो [को॰] । सुनता ही नहीं । श्रापूरण-सल्ला पु० [सं०] पूर्ण होना । पूरी तरह भर जाना [को॰] । क्रि० प्र०—करना ।—पड़ना ।—होना । पूरना--क्रि० अ० [स० अपूरण] भरना । २ खींचतान । लामडाँट । जैसे,—उन लोगों में खूब आपाधापी है। अापूरित, पूर्ण ---वि० [सं०] पूरी तरह भरा हुआ (को०)। ग्रापान, झापानक-सज्ञा पुं० [म०] १ वह गोष्ठी जिममे शराब पी अापूति--सज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ भरना । मरण । २ मतुष्टि । पूति जाय । शराबियो की गौष्ठी । उ०—रिक्त चुपक मा चद्र लुढक [को०] । कर है गिरा, रजनी के श्रापानक का अब अंत है ।—झरना, अपूप--सच्चा पु० [सं०] १ राँगा । २ सीसी । पृ० २५ । २ शराब पीने का म्यान ।। अपृच्छा---संज्ञा स्त्री० [म०] जिज्ञासा । औत्सुक्य । २ वार्तालाप । यो०--पानोत्सर, श्रापानकोत्सव = शराब पीने का समारोह । वातचीत [को०] । श्रापापथी- वि० [हिं० श्राप के सं० पन्थिन् ] मनमाने मार्ग पर प्रापेक्षिक--वि० [सं०] १ सापेक्ष । अपेक्षा रखनेवाला । २ अब नवन चननेवाला ! कुमार्गी । कृपयी। | पर रहनेवाला । निर्भर रहनेवाला ।। शापायन -वि० [५० छाप्यायित = बधित ] प्रबल । जोरावर - श्रापोक्लिम-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] [यू० एपोपिलमा जन्मकुछ नी का तीसरा | ( हिं० ) ।। | छठा, नवाँ और बारहवाँ स्थान । आपालि-सद्मा पु० [म०] जू। किनन [को०] । प्रपोजीशन--सच्चा पु० [अ० अॅपोजीशन] पार्लमेट (समद) या व्यव- प्रापिंजर--वि० [म० पिञ्जर] कुछ लाल रंग का [को०] । स्यापिकी सभाओं (विधानपरिपद्) के सदस्यों का वह ममूह या श्रापिंजर-भज्ञा पु० स्वर्ण । सोना [को०)। दन जो भत्रि मडल या शासन का विरोधी हो । जैसे,—पा नमेट प्रापो)--स; पु० [सं० श्राप्य] वह नक्षत्र जिसका देवता जन है की कामस स,मा में प्रपोजीशन में 'नीडर ने हमें मेवर पर | पूर्वापाट नत्र । वोट अफ मेंसर या निदात्मक प्रस्ताव उपस्थित किया। प्रापीड़-सज्ञा पुं० [सं० श्रापीड] १ सिर पर पहनने की चीज, अप्ति'-वि० [सं०] १ प्राप्त । प्रामाण्य रूप में लब्ध । उ००-इसका जैमे,--पगडी, सिरगह, सिरपेच, वेनी इत्यादि । २ घर के अाधार 'प्रत्यक्ष अनुभव नहीं रह गया, 'प्राप्त' शब्द हुआ । वाहर पात्र में निकले हुए वेडेरे की माग ! मैंगरोरी । मॅगीरी। रस, पृ० १२६ ।। ३ एक प्रकार का विषम वृत्त जिसके प्रथम चरण में ८, दूसरे विशेष—इसका प्रयोग इम अर्थ में प्राय मस्त पदो में मिलना मे १२, तीसरे मै १६ और चौथे में २० अक्षर होते हैं। इसमे | है, जैसे,—प्राप्तकाम् । प्राप्तगर्मी । प्राप्त काल ।