पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५१०

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अधारित ४४३ प्राध्मात' मुहा०-~-चार होना = कुछ पेट भर जाना । कुछ भूख मिट अधिपत्य -अझा पुं० [सं०] प्रभुत्ने । स्वामित्व । अधिकार ।। जाना । जैसे,—इतनी मिठाई से क्यों होता है, पर कुछ ग्राघार विपाल--सद्मा पु० [सं०] वह राजकर्मचारी जो जमा की हुई हो जायगा । धरोहर की रक्षा का प्रवध करता हो । याधारित --- वि० [ स ० अघोर ] दे० 'ग्राघृत' । । आधिभौग-सझा पुं० [सं०] धरोहर की वस्तु का उपयोग या उपभोग आधारी–वि० [ स० अाधारिन् ] [ श्री० अावारिणी ] १ महारा [को०] ।। रखनेवाला। महारे पर रहनेवाला । जैसे,—दुग्धाधारी। २ प्राधिभौतिक--वि० [सं०] व्याघ्र, सर्पादि जीवों द्वारा कृते । जीव या साधुग्रो की टेवकी या अड्डे के प्रकार की लकडी जिसका शरीरघारियों द्वारा प्राप्त । सहारा लेकर वे वैठते है । उ०—(क) मुद्रा श्रवण नही थिर । विशेप-सुश्रुत में रक्त और शुक्रदोप तथा मिथ्या आहार विहार जीऊ । तन त्रिसूल अाघारी पीऊ 1-जायसी (शब्द॰) । (ख) से उत्पन्न व्याधियो को प्राधि मौलिक के अतर्गत ही माना है । परम तत अाधारी मेरे, सिव नगरी घर में। ---कैबीर शालिनी धo [म०1 ज्वर की जलन । वखार की गर्मी को ग्र०, पृ० १५४। श्रीवासीमी--संज्ञा स्त्री॰ [ स० अर्द्ध + शीर्ष 1 अधकपा नौ । प्राधे सिर । आधिमोचन--सज्ञा पुं० [१०] गिरवी या वधक छुडाना । । की पीडा । | श्राधिवेदनिक-सज्ञा पुं० [सं०] वह घन जो पुरुप दूसरा विवाह करने प्राधि-भज्ञा स्त्री॰ [सं०] १. मानसिक व्यथा । चिता । फिक्र । शोच। । के पूर्व अपनी पहली स्त्री को उसके मतोष के लिये दे । यह सोच । उ०—धि अगाधा व्याधि हरि, हरि राधा जप स्त्रीधन समझा जाता है। सोइ ।- सप्तक, १० ३४३ । २ गिरो । गिरवी । बधक। ये अधिस्तेन-सा पु० [सं०] वह व्यक्ति जो धनाधिकारी की प्रज्ञा रेहन । ३ स्थीन । अावसि [को०] । ४ पास पडोस (को०)। | बिना जमा किए हुए धन का उपभोग करता है (को॰] । ५ विपत्ति । दुभग्य [को०] । ६ वर्म या कर्तव्य की चिंता अघिी-वि० जी० [म० अद्ध, प्रा० अद्ध] श्रीवा का स्त्रीलिंग रूप । (को०) । ७ परिमापा ! लक्षण [को॰] । ८ अाशा [को॰] । । उ०—प्राधौ छोड सारी को धावै । अाधी रहे न सारी पाउँ । लोक० । ९ दड (को०) । १० परिवार या कुटुव की चिता [फो०] । प्राधिक’--वि० [हिं० श्राधा+एक ] अाधा। मधे के लगभग । श्रावन)- वि० [म० अबीन ] दे० 'अधीन' । उ०—क घरी आधीन उ०—(क) प्राधिक दूर लौ जाय चितै पुनि प्राय गरे लपटाय मैं करों हरी आाधीन 1-भिखारी ग्र ०, भा०, १, पृ० १८ । के रोई -मुवारक (शब्द०)। (ख) अधिक रात उठे रघुवीर प्राचीनता---संज्ञा स्त्री० [म० अधीनता दे० 'अधीनता' । कह्यो सुनु वीर प्रजा सब सोई हनुमान० (शब्द॰) । आधीरात--सज्ञा स्त्री० [स० अर्धरात्रि] वह समय जब रात को अधिक-क्रि० वि० अधेि के समीप । अधेि के लगभग । थोड़ा। अधिा भाग बीत चुका हो । उq----लवि लखि अँखियनु अधखुलिनु, अाँगु मोरि अँगराई। अधुनिक-वि० [सं०] वर्तमान समय का । हाल का । अाजकल का । अधिक उठि, लेटति लटकि, आलस भरी जें माइ ।- बिहारी वर्तमान काल का । साप्रतिक । नवीन । २०, दो० ६३० । अाधुनिकतम -वि० [सं०] अद्यतन । नवीनतम ।। श्राविकरणिक---संज्ञा पु० [सं०] १ न्यायाधीश । २ सरकारी आवृत--वि० [ स०] १ कति । कांपता हु प्रा। २ पागन । ३. अधिकारी [को०] । | व्याकुल । श्राधिकारिक-सज्ञा यु० [ ५० ] दृश्यकाव्य की वस्तु के दो भेदो मे प्राधप आधूपन - संज्ञा पुं० [ म० ] घुए या कुहरे मे आवृत (को०] । एक। मूल कथावस्तु । वि० दे० 'वस्तु' । धूम्र -- वि० [सं०] बुए की तरह काले रगवाला (को॰] । अाधिकारिक--- वि० १ मुख्य या प्रधान १ उ०-एक दने मनुष्य | प्राधृत-वि० [सं०] किसी आधार पर टिका हुग्री । अाधार पाया मनुष्य के बीच भ्रातृप्रेम को ही काव्यभूमि का एकमात्र । हुग्रा [को० । । अधिकारिक 'भाव मानती हैं -रस०, पृ० ७७ । २ अधिकार या अधिकारी से सवन्न । अधिकारियुक्न । साधिकार । श्रावक--वि०, ब्रि० वि० [हिं०] दे० 'अधिक' । उ०--राधिका प्राधिक्य - सज्ञा पुं० [ म०] वहुतायत । अधिवाती। ज्यादती। अधेिक नैननि मू"दि हिए ही हिए हरि की छवि हेरनि ।आधिदैविक---वि० [म०] देवता प्रो द्वारा प्रेरित । यत, देवता, भूत, भिखारी० ग्र०, भा० १, पृ० १५८ । | प्रेत आदि द्वारा होनेवाला । देवताकृत । | आधेय--सज्ञा पुं० म०] १ अाधार पर स्थित वस्तु । जो वस्तु किमी विशेप--गुश्रुत में सात प्रकार के दुःख गिनाए गए हैं, उनमें से के आधार पर रहे । किमी महारे पर टिकी हुई चीज । तीन अर्थात् कालबलकृत ( बर्फ इत्यादि पहना, वर्षा अधिक २ स्यापनीय । ठहराने योग्य । रखने योग्य । ३ गिरी रखने होना इत्यादि ), देववलकृत ( विजली पड ना, पिशाचादि योग्य । लगना ), स्वभावबलकृत ( भूख प्यास का लगनी ) अधि- श्रावोरण-- भज्ञा पुं० [७] हायीवान । महावत। पीनबान ।। दैविक कहनाते हैं । आध्मात'- वि० [सं०] १ फूला हुआ । २ गर्व से मरी हुपा। ३. प्राधिधर्ता-सहा पु० [सं०] जिसके पास कोई वन्तु गिरवी यी रेहून जला हुअा। ४शव्दमुक्त। ६वनिर्वान्ना ! बर वायु से ग्रस्त रखी जाय [को०] । [को०] ।