पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५०८

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आदिवल प्रादेष्टा आदिवल--संज्ञा पुं० [म०] उत्पादक या जनन शक्ति (मुश्रुत) प्रादीचक---सचा पुं० [सं० द्रिक + चक्र]एक प्रकार की अदरक जिमको [को०] । भाजी बनती है । अदरक की एक प्रकार की खट्टी चटनी । आदिभूत-वि० [सं०] अादि मे उत्पन्न [को०)। आदीनव-मज्ञा पुं०सि०]१ दोष । २ क्लेश । विपत्ति । ३. दु ख । श्रादिभूत-मज्ञा पुं० [सं०] १ ब्रह्मा । २ विष्णु (को॰] । | वेचैनी (को०)। आदिम--वि० [सं०] पहले का । पहला । प्रथम । उ०--आखेट के आदीपक-वि० [सं०]१ अाग लगानेवाला । २.दाहक । ३ उत्तेजक लिये उक्त प्रादिम नरो का झड बीच बीच में मिलता |-- [को॰] । इद्र०, पृ० ८८ ।। प्रदीपन-----संज्ञा पुं॰ [सं०] [वि० माबीपित, मादीप्त, प्रदीप्य] १. मादिमत--वि० [स०] जिसका अर म अादि हो [फौ] । उत्तेजित करना । २.अग लगाना । ३ उत्सव अादि के अवसर अादिभूल-संज्ञा पुं० [भ] मूल कारण (को०] । पर दीवार, फर्ण प्रादि की सफाई या पुताई करना (को०]। आदियोगाचार्य----संज्ञा पु० [सं०] शिव [को०] ।। आदीपित--वि० [सं०] प्रज्वलित । जलती हुमा (को॰] । आदिरस----सज्ञा पुं० [सं०] शृ गाररस ( माहित्य शा० ) । दोप्य--वि० [सं०] जनने योग्य [को०] । अादिराज-सज्ञा पुं० [म०] १ मनु । २ पृथु कि]। आदीर्घ-वि० [सं०] कुछ लंबाई युक्त अडाकार (को०] । आदिरूप-सा पुं० [सं०] प्रथम रूप या लक्षण ( रोग का ) आदीर्य-वि० [सं०] फटा हुआ । दरका हुआ (को०] । [को०] । श्रादृत-वि० [स] आदर किया हुग्रा ! समानित। दिल--वि० [अ०] न्यायी। न्यायवान् । उ०-नौसेरव जो आदृत्य--वि० [सं०] अादरणीय (को०)। | अादिल कहा । सहि अदल-सरि गोउ न अहा।- जायसी ग्र०, शादृष्टि--संज्ञा स्त्री० [सं०] दृष्टि । नजर [फो०] । पृ० ६ । यौ०--आदृष्टिगोचर, यादृष्टिप्रसार = दृष्टि की सीमा के भीतर। आदिलुप्त--वि० [म०] (शब्द) जिमको प्रथम अक्षर लुप्त हो (को०)। प्रादेय'--वि० [म०] लेने योग्य । अादिवराह-सल्ली पु० [म०] वराहुरूप विण । विष्णु [को॰] । । यौ॰—उपादेय । अनादेय। आदिवारा--वि० [म०] आदि बराह मवधी [को०] । | आदेय--सज्ञा पुं०[सं०]वह लाभ जो सुगमता से प्राप्त हो, सुरक्षित दिविपुला--संशा १० [सं०] छदविशेष । वह प्राय जिसके प्रथम । रखा जा सके तथा शत्रु द्वारा न लिया जा सके (को॰) । दन के प्रथम तीन गणो मे पाद अपूर्ण हो । प्रादेयकर्म---मता पुं० [सं०] जैन शास्त्रानुसार वह कर्म जिससे जीव को श्रादिविपुलाजघनचपला---सल्ली पु० [सं०] छेदविशेष । वह आर्या वाक् सिद्धि होती है, अर्थात् वह जो कहे वही होता है । जिसके प्रथम पद के गणत्रय में पाद अपूण हो, दूसरे दल में अादेव'--संज्ञा पुं० [सं०] देव सहित पूरी सृष्टि (को॰) । | दूसरा और चौथा गण जगण हो । प्रादेव--वि० [सं०] देवभक्त। देवपूजक [को०] । आदिशक्ति--संज्ञा स्त्री० [भ०] १ मूल था अादि स्थानीय शक्ति । श्रादेवक---वि० [स०]१ खेल या क्रीडा करनेवाला । २. जुम्रा खेलने| महामाया । २ दुर्गा [को०] । वाला (को०] । शादिशरीर-संज्ञा पुं० [सं०] १ मूल शरीर ) २ सूक्ष्म शरीर को०]। देवन----सा पुं० [सं०] १ खेल का स्थान । २ खेल का माधन या आदिश्यमान-वि० [म०] ग्रादेश पाया हुअा। जिसको आज्ञा दी सामग्री । ३ खेल (जूए) में होनेवाला लाभ (को०] । | गई हो। आदेश-सा पुं० [स०] [वि० श्रादिष्ट, श्रादिश्यमान, श्रादेशक] १. श्रादिष्ट-वि० [म०] अादेश पाया हुा । जिसको आज्ञा दी गई हो। अाज्ञा । ३ उपदेश । ३ विवरण (को०)। ४. प्रणाम । नमअज्ञप्न । अादेश प्राप्त । स्कार । उ०--शेख वडो बढ़ सिद्धि बखाना । किय अादेश आदिष्टसधि-सज्ञा स्त्री० [सं० श्रादिष्टसन्धि] वह सघि जो प्रबल सिद्धि बढे माना ।--जायसी (शब्द॰) । ५ ज्योति शास्त्र में शत्रु को कोई भूमिखड देने की प्रतिज्ञा करके की जाय । ग्रहो का फल । ६ भविष्यकथन (को०)। ७ व्याकरण मे एक ( कामं ६० )। अक्षर के स्थान पर दूसरे अक्षर का शाना । अक्षरपरिवर्तन । ग्रादिसर्ग-संज्ञा पुं० [म०] मून या ग्रादि की सृष्टि (को०] । श्रादेशक-वि० [सं०] १ अाज्ञा देनेवाला । २ उपदेश देनेवाला । दो'--वि० [अ०] अभ्यस्त । उ०-अव उतर आए हैं वो तारीफ अदिशकारी-वि[से 6 आदाकारिन्]प्रज्ञा पालन करनेवाला (को॰] । आदेशन--सज्ञा पुं॰ [सं०] प्रज्ञा देना। निर्देशन किो०)। | पश् । हुम जो ग्रादी हो गए दुश्नाम के।--कविता कौ०, भा० । देशी--वि [सं० श्रादेशिन] १ आदेश देनेवाला । २ भविष्यकथन | ४, पृ० ५५३ ।। मादी -सच्ची स्त्री० [सं० श्राद् क] अदरकः । करनेवाला । ३ (वह वर्ण या अक्षर) जिसके लिये कोई अन्य श्रादी ----क्रि० वि० [अ० अादि] बिन्नकुन्न । नितात । जरा भी । | वण' या अक्षर रखा गया हो (को०] । उ०--(क) मातु न जानमि वालक अादी । हौं वादना सिंध आदेश्य---वि० [सं०] अादेश के योग्य (को०] । रनवादी । जायसी ग्र ०, पृ॰ २८ । श्रादेष्टा--वि० [सं० श्रादेष्ट्ट] अादेश देनेवा ना [को०] । ५६