पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५०४

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मात्मविक्रय भी ग्रामविक्रयी---वि० [म० ग्रामविकयिन] अपने को बेचनेवाला । आत्महिमा-संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अात्महत्या' ।। अात्मविक्रेता-सच्चा पुं० [म० अत्मिविक्र तृ] वह दास जो अपने ग्रापको प्रात्मा-सज्ञा झी० [सं०] [वि० श्रात्मक, आत्मीय ] १ जीव । ३ वेचकर दास हुआ हो । चित्त । ३ बुद्धि। ४ अहकार ! ५ मन । ६. ब्रह्म ।। आत्मविचय----सज्ञा पुं॰ [मं०] अपनी तलाशी या नगाझोली देना ।। विशेप--इम शब्द का प्रयोग विभोपकर जीव और ब्रह्म में अर्थ आत्मविद् सन्ना पु० [सं०] १ बुद्धिमान व्यक्ति । आत्मज्ञानी । २. में होता है। इसका यौगिक अर्थ 'व्याप्त है। नीव शर के अपने तथा अपने कुटुंब परिवार को जाननेवाला व्यक्ति ३. प्रत्येक अग में व्याप्त है और ब्रह्म मनार, के पत्येक अण शौर शिव का एक नाम (को०] । अवकाश में। इसीलिये प्राचीनो ने इसका व्यवहार दोनों के अात्मविद्या--सज्ञा स्त्री० [स०] १ वह विद्या जिससे अात्मा और लिये किया है। कहीं कहीं ‘प्रति' को भी पापों में इन शब्द परमात्मा का ज्ञान हो। ब्रह्मविद्या । अध्यात्मविद्या । २. से निर्दिष्ट किया गया है । साधारणत जीव, ब्रह्म और प्रकृति मिसुमेरिज्म । तीनो के लिये या यो कहिए, अनिर्वचनीय पदार्थों के लिये इम अात्मविश्वास--- संज्ञा पुं० [म०] अपनी शक्ति पर विश्वास। अपनी शब्द का प्रयोग हुआ है । इनमें 'जीव' के अर्थ में उसका प्रयोग मुख्य अौर ‘ब्रह्म' और 'प्रकृति के अर्थों में क्रमश गौण है । योग्यता का भरोसा । आत्मविस्मृत--वि० [सं०] स्वय को भूला हुआ। दार्शनिको के दो भेद हैं-एक प्रात्मवादी और दूसरे अनाम वादी। प्रकृति ने पृथक् अात्मा को पदार्थ चिशेप माननेवाले अात्मविस्मृति-सज्ञा स्त्री॰ [सं०] अपने को भूल जाना । अपना ध्यान अात्मवादी कहलाते हैं । अात्मा को प्रवृति-विकार-विशप मानने न रम्बना । अात्मविस्मरण।। वाले अनात्मवादी कहलाते हैं, जिनके मत में प्रकृति के अतिरिक्त आत्मशल्या--संज्ञा स्त्री॰ [म०] सतावरी । अात्मा कुछ है ही नही । अनात्मवादी अाजकन्न योरप में पहुत श्रात्मशासन--सज्ञा पुं० [म० प्रात्स + शासन] दे० 'स्वराज' (क्व०) । हैं । अात्मा के विपय में इनकी धारणा यह है कि यह प्रकृति अात्मश्लाघी-मज्ञा पुं० [म०] [वि॰ आत्मश्लाघी] अपनी तारीफ ! के भिन्न भिन्न वैकारिक अगो के नयोग से उत्पन्न एक विप अात्मश्लाघी--वि० [म० प्रात्मश्लाघिन्] अपनी प्रशसा करनेवाला । शक्ति है, जो प्राणियों में गर्भावस्था में उत्पन्न होती है और आत्मसभव--- वि० [सं० आत्मसम्भव 1 [ वि० जी० धात्मसंभावे ] मरणपर्यंत रहती है। पीछे उन तत्वों के विश्लेपण मे, जिनसे | अपने शरीर से उत्पन्न । यह उत्पन्न हुई थी, नष्ट हो जाती है । बहुत दिन हुए भारतवर्ष अात्मसभर्व-सज्ञा पुं० पुत्र । में यही बात 'वृहस्पति' नामक विद्वान ने कही थी जिमुके अत्मिसमनि--संज्ञा पुं० [सं० आत्मसम्मान] प्रात्मगौरव । अपने गौरव विचार चार्वाक दर्शन के नाम में प्रख्यात है और जिसके का भाव । मत को चार्वाक मत कहते हैं । इनका कथन है कि 'तरुचैतन्य अात्मसंयम--सज्ञा पुं० [सं०] अपने मन को रोकना । इच्छाओं को विशिष्टदेह एव अात्मा देहातिरिक्त अात्मनि प्रमाणाभावात् । | वश में रखना। देह के अतिरिक्त अन्यत्र अात्मा के होने की कोई प्रमाण नही है, अत चैतन्य विशिष्ट देह ही ग्राम है। इस मुल्य मत के प्रात्मसवेदन-मज्ञा पुं० [सं०] अपनी आत्मा का अनुभवे । पीछे कई भेद हो गए थे और वे मग शरीर की स्थिति और अत्मबोध । ज्ञान की प्राप्ति में कारणभूत इद्रिय, प्रणि, मन, बुद्धि और अात्मसंस्कार--सज्ञा पुं॰ [सं॰] अपना सुधार । अहकार को ही अात्मा मानने लगे। कोई इसे विज्ञान मात्र अात्मसमुद्भव'- वि० [सं०] [वि० जी० आत्मसमुद्भवा] १ अपने अयत् क्षणिक मानते हैं। वैदिक दर्शन में प्रारमा को एक गरीर से उत्पन्न । २ अपने ही अप उत्पन्न । द्रव्य माना है और लिखा है कि प्राण, अपान, नि मैप, उन्मैप, आत्मसमुद्भव’- संज्ञा पुं० १ ब्रह्मा । ३ विष्ण। ३ शिव ।४ जीवन, मन, गति, इद्रिय, अतविकार जैसे-भूत, प्यास, ज्वर, कामदेव । पीडादि, मुख, दुःख, इच्छा, देव प्रौर प्रयत्न अामा गै नगे हैं। अर्थात् जहाँ प्राणादि लिग वा चिह्न दे7 पदे व अारमा ती आत्मसमुद्वा --संज्ञा स्त्री० [सं०] १ कन्या। २. बुद्धि। है । पर न्यायकार गौतम मुनि के गत ने 'छा' टूप, प्रयत्न, अात्मसाक्षी-सज्ञा पुं॰ [स० आत्मसाक्षिन्] जीवो का द्रष्टा । सुख दुख और ज्ञान ( इच्छा-द्वेप-प्रयत्न-57-57-जानान्याश्रात्मसिद्ध---वि० [म०] अपने श्राप होनेवाला । विना प्रयास ही त्मनो लिङ्गम) ही यात्मा के चिह्न है । सायगाग्त्र के अनुसार होनेवाला। प्रात्मा एक प्रकर्ती सीधी भूत प्रगग और प्रकृति ने भिन्न एक अात्मसिद्धि-सज्ञा स्त्री० [सं०] अात्ममाव की प्राप्ति । मुक्ति। मोक्ष। अतीद्रिय पदार्थ है। योगशास्त्र के अनुसार यहू यह प्रताद्रिय अात्महत्या----मज्ञा स्त्री० [स०] १ अपने ग्रापको मार डालना। पदार्य है जिसमें क्लेश, कर्मविपा प्रौर अशय हो । ये दोनों | खुदकुशी २ अपने आपको दुख देना। ( साम्य शौर योग ) आत्मा के म्यान पर गुरु शब्द का ऋत्मिन्-वि० [सं०]१. जो अपने आप को मार डाले । आत्मयाती। प्रयोग करते हैं। मी मासा के अनुनार कर्मों का फ़क्ष प्रौर फर) का 'भोक्ता एक स्वनत्र अतौद्रिय पदार्य है। पर मोमासु फा में २ जो अपनी भन्नाई के प्रति उदासीन हो या उसकी उपेक्षा प्रभाकर के मत से 'अजान' और कुमार भट्ट के मन से करे (को०)। ३ अविश्वासी (को०) । ४. मदिर आदि में नौकरी करनेवाला (सेवक या पुजारी) (को०)। ‘अज्ञानोपहत चैतन्य' ही मारमा हैं। येदात के मत से निदर,