पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५०२

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प्रतुरिया ४३५ श्रांत्मज आतुरिया--मज्ञा स्त्री॰ [स० आतुर + हिं० इया (प्रत्य॰)]प्राधिक्य । आत्मकल्याण--पज्ञा पुं० [सं०] अपना भवा । अपनी भाई । उ०-~दीपक ज्योति मलीन भई मनि भूपन जोति की आत्मकाम-वि० [सं०] [वि॰ स्त्री० त्मिकामा] १ स्वय से ही प्रेम अातुरिया है ।—भिखारी ग्र०, 'भा० १, पृ० १२१ । करनेवाला । गर्विष्ठ । २. अात्मतत्व का प्रेमी (को०] । अातुरी --सज्ञा स्त्री॰ [सं० अातुर +ई (प्रत्य०) ] १ घबराहट । प्रात्मकृत-- वि० [सं०]१ अपना किया हुप्रा । २ अपने विरुद्ध किया व्याकुलता । २ शीघ्रता । जल्दीबाजी । उतावलापन । बेसब्री। हुअा (को०] । आतुरी” (0---क्रि० वि० घबराहट से । अातुरतापूर्वक : उ०-नारि गई प्रात्मक्रीडा--संज्ञा स्त्री० [स ० आत्मक्रीडा] अात्मतत्व के साथै फिरि भवन अतुरी । नद घरनि अब भई चातुरी । क्रीडा (को०] । सूर०, १०५३९१ ।। आत्मगत--वि० [म०] १ अतरात्मा का । आतरिक । उ०—बढे आतुरी ---वि० घबराया हुआ । व्याकुन । | रहा था तेज तप का हुग्री कृशतर गात । खिजी मुख' पर आतुर्य-सज्ञा पुं० [सं०] १ रोग । वीमारी। २ एक प्रकार का दीप्नि कोई प्रात्मगत प्रज्ञान ।-- पार्वती, पृ० १४५। २ मानज्वर (को०)। सिक [को०]। तृण्ण'-वि० [सं०] १ विद्ध । विधा हुग्रा । २. कटा हुआ । आत्मगत 'संज्ञा पुं॰ [सं०] नाटक के पात्र का अपने ही मन में घायल [को०)। सोचना या विचार करना जिसे श्रोताओ को अवगत कराने के प्रातपण’--संज्ञा पुं० १ छिद्र । छेद । २ खुला हुआ धाव या जखम लिये जोर जोर से कहनी पडती है । स्वगत । । [को०] । आत्मगति--संज्ञा स्त्री० [सं०] अपनी गति (को०)। अतृप्यु-मज्ञा पुं० [सं०] मीताफन । शरीफा [को॰] । आत्मगत्या--क्रि० वि० [स०] अपनी ही गति से । अपने ही कार्य प्रतोदी--वि० [सं० अातोदिन] अाघात द्वारा बजनेवाले बाजो को। से [को॰] । | वजानेवाला [को०] । आत्मगुप्ता--मज्ञा स्त्री० [सं०] १. केवांव। २ शतावर। श्रतोद्य, श्रतोद्यक-संज्ञा पुं० [म०] श्रधात से वजनेवाला बाजा अात्मगुप्ति--मद्या स्त्री॰ [स ०] किमी जानवर के रहने की छिपी | (को० ।। | जगह । माँद [को०] । आत्त--वि० [सं०] १ लिया हुआ । प्राप्त । गृहीत । २ निकाला प्रात्मगौरव-सच्ची पु० [स०] अपनी बडाई या प्रतिष्ठा का ध्यान । हुग्रा । ३. पकली हुा । हृत । ४ अनुभव किया हुआ। उ०--सती के पवित्र आत्मगौरव की पुण्यगाथा गंज उठी अनुभूत । ५, प्रारब्ध । प्रारभ किया हुआ (को०] ।। 'भारत के कोने कोने जिस दिन ।-लहर, पृ० ६३ । आत्तगध--वि० [सं० आत्तगन्य] १. सूघा हुआ। २ तिरस्कृत । आत्मग्राही--वि० [सं० श्रामग्राहिन् ] स्वार्थी । खुदगर्ज (को०] । अपमानित । ३ पराजित । पराभूत [को॰] । आत्मघात--सया पुं० [सं०] अपने हाथों अपने को मार डालने की अत्तिगर्व---वि० [सं०] गलितगर्व । जिसका गर्व हर लिया गया हो। काम । खुदकुशी 1 अात्महत्या ।। प्रात्तदड-वि० [म० प्रतिदण्ड] दहित । सजायाफ्ता [को०] ।। अात्मघातक'--वि० [सं०] अपने हाथो अपने को मार डालनेवा ना। प्रात्तप्रतिदान–सच्चा पुं० [सं०] पाई हुई वस्तु को लौटाना या आत्मघाती---वि० [सं० श्रात्मघातिन्] [वि० जी० आत्मघातिनी] जो फेरना (को॰) । अपने हाथो अपने को मार डाले । उ० --ग्रामघाती बने अत्तमनस्क--वि० [म०] हपित । तुष्ट [को॰] । प्रकृति के रमण में खो शक्ति मारी ।--पार्वती, पृ० २।। अत्तमना--वि० [सं० श्रात्तननस्] प्रसन्न । हृष्ट [को०) । अत्मिघोष --संज्ञा पुं० [सं०] १ अपनी भोपा में अपना ही नाम त्तिलक्ष्मी - वि० [स०] धन से वचित [को०]। पुकारनेवाला-कौग्रा । २ मुर्गा। ३ वह व्यक्ति जो अपनी त्तिवचस्--वि० [सं०] वाक् या वाणी से रहित [को०] । प्रशंसा ग्राप करे (को०)। आत्मभरि--सज्ञा पुं० [स० अात्मम्भरि] १. जो अकेले अपने को आत्मघोष-वि० अपने मुह से अपनी वडाई करने वाला। पाले । २ जो देवता पितर अादि को विना अपित किए ही प्रत्मिचिंतन-सझा पुं० [सं० आत्मचिन्तन ] अात्म या अात्मा मग्री भोजन करे । उर्दर मरि [को०] । चिंतन । उ०-हृदय नही है परिचित मन से, मन है विमुख आत्म-- वि० [ म० श्रात्मन्] अपना । स्वकीय । निज का। अात्मचिंतन से --प्रेभाजनि, पृ० ४५ । आत्मक--वि० [सं०] [स्त्री० त्मिका] मय । युक्त' ।। आत्मचतुर्थ- -वि० [म०] तीन हिस्सेदारी के अतिरिक्त चौथे माग या विशेप---यह शब्द अकेले नही आता, केवल यौगिक बनाने के हिस्सेवाला। चौथाई का हिम्मेदार [को०] । काम में किसी प्राब्द के अंत में प्राता है । जैसे-गद्यात्मक = आत्मचरित--सज्ञा पुं० [सं०] अपने जीवन का वृत्त या हान । उ०गद्य मय । पद्यात्मक = पद्यमय । पुराने हिंदी साहित्य में यही एक ग्राम वरित मिलता है ।-- अात्मकथा-संज्ञा स्त्री० [सं० अात्म+कथा]अपने ही मुख से कहा हा इतिहाम०, पृ० २२२ । या अपनी लिखा हुया जीवनवृत्तात । आत्मचरित । अापबीती । आत्मज'--'बच्चा पु० [म०] [स्त्री० परिमजा] १. पुन । लइका । ३. उ०—-मुन कर क्या तुम भला करोगे ?--मेरी भोली । कामदेव । ३ रक्त । खून । अात्मकथा ?--लहर, पृ० ११ । मात्मजः--वि० [ १० ] स्वप उत्पन्न (को॰] ।