पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४९९

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आडि, डो ४३२ क्रि० प्र०––मारना = जहाज का लहराना । जहाज का डगमगाना । आढ़क-सझा मुं० [सं०] १ एक तौल जो चार मेर के बराबर होर आडि, आडी--संज्ञा स्त्री० [सं०] १ एक प्रकार की मछली । २ एक है । २ अन्न नापने का काठ का वरतन जिममे अनुमान से चा जलपक्षी जिसको शरालि भी कहते हैं। यह गिद्ध की सेर अन्न अाता है । ३ अरहर । तरह होता है। आढकिक---वि० [सं०] १ ढकवाला अाढकयुक्त । २ एक अाद आडिटर-सज्ञा पुं० [अ०] अाय व्यय का चिट्ठी जाँचनेवाला । अाय से वोया हुग्रा (खत) [को०] 1 | व्यय परीक्षक । ढिकी-संज्ञा स्त्री० [स०] १. अरहर नाम का अन्न ! २ सौर आडिवी--संज्ञा पुं० [ ४० डीविन् ] [ स्त्री० आडिविनी ] काक। मृत्तिका । गोपीचंदन । | कौया [को॰] । अाढत--सज्ञा स्त्री० [हिं० आडना= जमानत देना] १. किसी अन् डी--सज्ञा स्त्री० [हिं० प्राडा] १ तबला, मृदंग प्रादि वजाने का व्यापारी का माल रखकर कुछ कमीशन लेकर उमफी दि) करी देने की व्यवसाय । २ वह स्थान जहाँ अढ़त का है, एक ठग जिसमे किसी ताल के पूरे समय के तीसरे छठे या वारहवें भाग ही में पूरा ताल बजा लिया जाता है । २ चमारो रहता हो । ३ वह धन जो विक्री कराने के बदले मिलत; की छुट्टी। अाढतदार---सञ्ज्ञा पुं॰ [ हि० ग्राढत +फा दार (प्रत्य०) ] वही डी---सच्चा स्त्री॰ [ हिं० ] दे० 'झारी ।। व्यापारियों का माल अपने यहीं रखकर दुकानदारो के हो आड़ी-वि० [हिं० ड -+ई (प्रत्य॰)] सहायक । अपने पक्ष का । बेचता हो । अढत का काम करनेवाला । अढतिया ।।। विशेप ---जब किसी खेत में लड़को के दो दन हो जाते हैं तत्र । आढतिया-सज्ञा पुं० [हिं० ] दे॰ 'अढतिया' । । एक लड का अपने दल के लड़के को प्राडी कहता ।। प्राढ्यकर-वि० [म० श्राढ्यङ्कर अनपन्न को संपन्न करनेवाला है। आडी--वि० सी० पडी। वेंडी। ग्राढ्यभविष्णु--वि० [म० प्राढचम्भबिष्णु] घनी होनेवाला [को०] । महा०. प्राडी करना = सही सोने के वीस आढ्य--वि० [म०] १ मपूर्ण । पूर्ण । २ युक्त। विशिष्ट । ३ घन्। मे लवे पीटे हुए वर्क को चौडा पीटना । | (को॰] । यौ०-माढ्यकुलीन= घनी कुन में उत्पन्न । श्राढ्यचर, ढ्यझाडू-सञ्ज्ञा पुं० [ सं० } १ चद्रमा को०] । पूर्व = पहले का धनी। आयरोग = गठिया । वात रोग । आङ -सञ्ज्ञा पुं० [म० अंड अथवा आलु] १ एक प्रकार का फल जिसका गुणाढ्य । धनाढ्य । पुण्प्राय । सनाढये । स्वाद खटमीठा होता है । देहरादून की ओर यह फल वहुत Tढ्यता--सच्चा सौ० [ स०] घन [को०] । अच्छा होता है। इसे शफतालू भी कहते हैं। यह फन दो आढंग्ररोगी--वि० मि० आढयरोगिन् ] गठिया का रोगी कि०] । प्रकार का होता है-एक चकैया, दूसरा में लि । २ इस फन माढयवात-सज्ञा पुं० [सं०] वातरोग जनित पक्षाघात या लकवा (को०]। का वृक्ष । आणक---सज्ञा पुं० [म०] १ एक रुपये का सोलहवां भाग । प्राना । ढि--सज्ञा पुं० [सं० ढक]चार प्रस्थ अर्थात् चार सेर की एक तौल ।। २ एक प्रकार का रतिवध । पाश्व सभोग को०] । आढ –संज्ञा स्त्री० [हिं० आड] १ प्रोट । पनाह । २ सहारा । णिक-वि० अधम । कुत्सित ।। ठिकाना । उ०-ज्यौं ज्यौं जल मलीन त्यौं त्यौं जगमण मुख या मुख प्राणव-वि० [सं०] [ सी० प्राणवी I अत्यन सुक्ष्म । अणु । मलीन लहै अढ न ।--तुलसी ग्रे ०, पृ० ४६४।३ अतर। अत्यत छोटा को०] । वीध । जैसे,—(क) एक दिन अाढ देकर अना। (ख) एक प्राणव-सज्ञा पुं० अणता। अत्यंत सूक्ष्मती [को०] । कोस-याढ-देकर ठहरेंगे । अाणविक---वि० [सं०] अणु से संबद्ध । अणु सवधी । मही ०—ाढ़ आढ़ करना= वीच मे अवधि डालनी । अाजकल आणवीन--वि० [सं०] अणधान्य (साव मादि) वोने योग्य को०] । करना । टाल मटूल करना। जैसे,—उ०—(क) हरि तेरी माया को न विगोयो । शकर को चित हरयो कामिनी सेज अत-संज्ञा पुं० [स० प्रात्म, हि० तिम] अात्मा । उ०---प्रगम छाडि भू सोयो । जारि मोहिनी अाढ झाढ कियो तब नख | पथ वाटा चढ़ी सुति घाटा, गगन गैरे फाटा सो प्रति सिख ते रोयो |--सूर (शब्द०) । (ख) अढि अढ करत निअति । घट०, पृ० ३८६ । असाढ आयो, एरो अाली डर से लगत देखि तम के जमाक ते । भातक-सज्ञा० पु० मि०] १. रोब । दबदबा । प्रताप । उ०-सहित श्रीपति ये मैन माते मोरन के वैन सुनि परत न चैन वृदियान गुमान गरव अत , सुनि राजा के व वन निसक । हम्मीर हु, के झमक ते ।-श्रीपति । (शब्द॰) । पृ० १८।२ भय । शकी । क्रि० प्र०—छाना।—-जमना ।—फैनना । आढ---वि० [सं० स्नाढ्य = सपन] कुशल । दक्ष । उ6---स्वारथ लागि रहे वे सीढ।। नाम लेत जस पावक डाढ़ा ।—कबीर, | ३ रोम । वीमारी । यौ०–अातंक-निग्रह । (शब्द०)। ४ मुरचग की ध्वनि । ५ पीडा ! कष्ट उ०—हो निर्मंय नि जेय अढ़ि-सज्ञा झी० [सं० श्राढि] एक प्रकार की मछली । शक्ति के मद से यदि, पावस के प्रवाह सा फैला 'मय, तक प्राढ–सज्ञा स्त्री० [हिं० आड़ = टोका] माथे पर पहनने का स्त्रियो विषाद !-पार्वती पृ० ८६ । ६. सदेह (को०] । ७ निश्वय की एक आभूपर्ण। टीका। का अभाव (को०)।