पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४९६

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प्रामुर्दा झिा जुर्दा-वि० [फा० श्राजर्दह] खिन्न । दु खी। उ०—-वे लोग कैसे आज्ञापित-वि० [सं०] सूचित । जाना हुआ। । कुछ अजुर्दा खातिर हैं !--प्रेमघन, भा० २, पृ० १०१। प्रज्ञाप्य--वि० [सं०] प्रज्ञा या निर्देश के योग्य [को०] ।। अजू-संज्ञा पुं० [सं०] १ बेगार । २ विना वृत्ति लिए काम करने- प्रज्ञाप्रतिघात--संज्ञा पुं० [सं०] १ अाज्ञा का उल्लघन । २. | वाला नौकर (को०) । ३. नरक निवास या वास (को॰) । विद्रोह (को०] । आजू -- संज्ञा पुं० [अ० वजू] दे० 'वजू' । उ०---ज्ञान का गुसल आज्ञाभंग-सज्ञा पुं० [स० ज्ञभिङ्ग] शाज्ञा न मानना ! हुक्म उद्ली । कर पाक का अाजू कर पक तकवीर परतीत पाई--कवीर० क्रि० प्र०—करना --होना । २०, पृ॰ २४ ।। माज्ञायी-वि० [ स० प्रज्ञायिन् 1 वोध या ज्ञानवाला । समझनेश्राज्ञप्त- वि० [सं०] १ अादेश दिया हुआ । २ सूचित [को०] । | वाला [को०] । प्राज्ञप्त--सच्चा स्त्री॰ [म०] १ अाज्ञा । प्रदेश । २. सूचना । प्रज्ञाविधेय-वि० [सं०] प्राज्ञी माननेवाला । अज्ञाकारी [को॰] । यौ--प्राज्ञप्तिहर= संदेशवाहक । दूत ।। प्राज्य-- संज्ञा पुं० [सं०] १ घृत । घी । ३०-नौकरशाही दे चुकी, शाज्ञा--मज्ञा स्त्री० [म०] १ वडो का छोटो को किसी काम के लिये भारत तुझे स्वराज्य । डोल न आशा आग में असहयोग कहना । प्रदेश । हुक्म । जैसे,—राजा ने चोर को पकड़ने की का प्राज्य ।--शकर०, पृ० २०६ । २ ( व्यापक भाव मे ) शाज्ञा दी । २. छोटो को उनकी प्रार्थना के अनुसार वड़े का घृत की जगह तेल, दूध आदि हवनीय पदार्य [को॰] । उन्हें कोई काम करने के लिये कहना । स्वीकृति । अनुमति । ३ प्रात कालिक होत्र के मंत्र (को०] 1 ४ वह सूक्त जिसमें उक्त जैसे,--बहुत कहने सुनने पर हाकिम ने लोगो को जुआ खेलने मत्र है (को०)। की आज्ञा दी। | यौ०–म्राज्यग्रह, ज्यघानी = घृतमात्र । श्राज्यदोह। श्राज्यप = क्रि० प्र०—करना ।:-देना ।—मानना ।—लेना ।---होना । घुत पीनेवाला । प्राज्यपा। ज्यभाग। प्राज्यभुक् । यौ०--प्रज्ञाकारी । आज्ञावर्ती । आज्ञापफ । आज्ञापालन । ज्यस्थाली । अज्ञाभंग । आज्यदोह- सज्ञा पुं० [सं०] सामवेद की तीन ऋचाशो का एक सूक्त प्राज्ञीकर-वि० [सं०] दास । सेवक (को०)। | जिमका जप या पाठ पवित्र करनेवाला होता है । आज्ञाकारी-वि० [ म० शाज्ञाकारिन् [ जी० आज्ञाकारिणी ] १. श्राज्यधन्वा- संज्ञा पु० [सं० श्राज्यवन्वन्] वह जिसके धनुप में घृत अाज्ञा माननेवाला। हुक्म माननेवाला । आज्ञापालक । उ० की मालिश की गई हो [को०] । लोकपाल, जम, काले, पवन, रवि, ससि सव आज्ञाकारी । श्राज्यपा | संज्ञा पुं० [सं०] सात पितरो मे से एक । मनु के अनुसार ये तुलमिदास प्रभु उग्रसेन के द्वार वैत कर धारी ।---तुलसी ग्र०, वैश्यो के पितर हैं जो पुलस्त्य ऋषि के लड़के थे । पृ० ५०८ । २. सेवक । दास । टहलुश्रा। श्राज्यभाग--सज्ञा पुं० [सं०] घृत की दो आहुतियाँ जो अग्नि और शाज्ञाचक्र--संज्ञा पुं॰ [सं०] योग और तत्र में माने हुए शरीर के भीतर सोमदेवताओं को उतर और दक्षिण भागो मे अाधार के पीछे के छह चक्रों में से छठा, जो सुपुम्ना नाडी के बीचोबीच दोनो दी जाती हैं। भों के बीच दो दल के कमल के प्रकार का माना गया है। विशेष- इनके अविच्छिन्न होने का नियम नही है । ऋग्वेदी अज्ञाता—वि० [सं० अज्ञातृ ] अाज्ञा देने या करनेवाला (को॰] । लोग अग्नये स्वाहा' से उत्तर शोर और ‘सोयाम स्वाहा' से श्राज्ञादीन-संज्ञा पुं० [सं० 1 अज्ञा करना या देना [को०] । दक्षिण अोर आहुति देते हैं, पर यजुर्वेदी लोग उतर शौर अाज्ञाधि--सुज्ञा स्त्री० [सं०] वह गिरवी जो राजा की आज्ञा से रखी दक्षिण दिशाओं में भी पूर्वाधं और पश्चिमाई का बिभाग करके | या रखाई गई हो । उत्तर और दक्षिण दोनो के पूर्वार्द्ध भाग ही में देते हैं । ज्ञान- सच्चा पु० [ स० ] अवगम । ज्ञान । बोध (को॰] । आधार और अज्यमाग आहुति के बिना हवि से आहुति अज्ञापक--वि० [स० [वि० सी० आज्ञापिका ] १ आज्ञा देनेवाला। नहीं दी जाती । प्रज्ञा करनेवाला । २ प्रम् । स्वामी । ज्यिभुक्, ज्यभुज-सज्ञा पुं० [सं०] अग्नि । आज्ञापत्र--संज्ञा पुं० [सं०] वह लेख जिसके अनुसार किसी प्रज्ञा का । अज्यलेप-सझा पुं० [सं०] घी का मलहम (को०] । प्रचार किया जाय । हुक्मन मा । प्राज्यवारि---सच्चा पुं० [सं०] घृतसमुद्र । मात पौराणिक समुद्रो में आज्ञापन–सल्ला पु० [सं० 1 [ वि० ज्ञापित ] सूचना । जताना। से एक [को०] ।। आज्ञापरिग्रह-–मझा पु० [सं०] प्रज्ञा प्राप्त करना या स्वीकार करना प्राज्यविलापिनो---संज्ञा स्त्री० [सं०] घृतपात्र [को०] । [को०] । ज्यस्थाली--संज्ञा स्त्री० [सं०] एक यज्ञपात्र जो बटली के प्रकार अज्ञापालक---वि० [सं०] [वि०जी० अज्ञापालिका] १ आज्ञा पालन | का होता है और जिसमे हवन के लिये घी रखा जाता है। करनेवाला । आज्ञाकारी 1 श्रीज्ञा के अनुसार चलनेवाला। आज्यहोम, भाज्याहुति--सज्ञा पुं० [सं०] घी का होम [को०] । फरमवरदार । २ दास । टहलुअा। श्राझा-- मझा बी० [सं० आकाक्षा] इच्छा। उ०-प्राणहारा जादव अज्ञापालन-सज्ञा पु० [सं०] प्रज्ञा के अनुसार काम करना । खग प्राजा, अमरौ खान पुरवण माझा 1--रा० रू०, फरमवरदारी ।। पृ० २६७ ।