पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४९१

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'अघि ४२४ प्रांत स्थान में देता हैं । २ वह अन्न जो इम नेन देन में व्याजाचमनीय, प्राचमनीयक--वि० [ न० 1 1 ग्रानमन है योग्य । के हवा में दिया जाये । पीने योग्य । २ गुना ग्न यो । क्रि० प्र०--पर लेना ।— पर देना |--देना ।--लेना । अचमित--वि० [म ०] fरया ।। अघुि -- सज्ञा स्त्री० [हिं०] १० अध'। उ०—-ढरचना, बरुनी प्राचय-ज्ञा पुं॰ [म०] १ सुनने का राम् । ॐ नि सा है: (०] । । अलक चितवन भौह कमान । प्राघु बकाई ही चढे, तरनि चिय-वि० [म ०] १ नयेन या पनि गर्न पाउ ।” एन रिने तुरगम तान -विहारी र०, दो० ३१६ । में कुशन । ३ फूत्र प्रादि यT करनार १०१ ।। अघूिर्ण-वि० [सं०] १ घूमता हुआ । फिर्ता हुप्रा । २ हिलता ग्राचर ---रज्ञा पुं० [f ०] ४० 'पावर'। उ०----{म भने । हुआ। अनुरागरः गुर धान में प्रान गो: ।-विनि, पृ०३:। आघूर्णन--सच्चा पु० [सं०] १ चक्कर । घुमाव । २ इधर उपर अचरज -मज्ञा १० [म० प्राश्चर्य] २० 'अनरन' । ३० --मु डोलना। दो नन [३०] । मन मोह आवरज नारी ।--गान, १।१२।। आधूणित-वि० [सं०] इधर उधर फिरत हुआ। । भटकता हुग्री । अाचरजित-वि० [सं० प्रार्चायन] प्रापfaग । गरिन । विभिन्। चकराया हुआ । शाचरण-मा !j० [२०] [वि० ग्रावरणीय प्रवरित] १ रन । यौ०-- घूणत लोवन = जिसकी ग्रोये चढी हो । २ व्यवहार । च । चीन नन । 31,--उन प्राण घृणि- संज्ञा पुं० [ म० ] सूर्य (को०] । अच्छा नहीं है। प्राचन्द्र । मफाई।४ । । । अघोप-सज्ञा पुं० [स०]चारो ओर प्रचार केने के निये किसी बात || चिह्न । २ । १ बौद्ध। १. प्रनुसार ३ १५, /गर जो को ऊँचे स्वर से कहना [को०)। गदावार माने जाते हैं। अघोपण---सज्ञा पुं० [म ०] [ पी० श्राघोषणा ] घोपणा [को०] । विशेप-ये म प्रार। -(१) र । (३) :ट्टियन पर। (:) अघोपणापटह-सज्ञा पुं० [म० घोषणा+पटह] जनमाधारण को मात्राशि । (२) नागरगनग । ५ भदा । (६) है । | सूचित करने के ये या उनके आवाहन के नियै प्रयुक्त नगाडा। (७) बहुत। (८) उत्ता, अपन छपनः । (६) "क्रिम् । अघोपित--वि० [सं०] घोपिन । (१०) स्मृति । (११) मनि। (२) प्रधम नि । (१३) माघ्राण---संज्ञा पुं॰ [म० वि० ग्राघात, अघ्रय] १ माघना । बास द्वितीय ध्यान । (१४) नृनौय पान । (१) नाई न । लेना । २ नोनी । ग्रामूदगी । नृप्ति ।। ५ करना (को०] १ = अनुग । अनुगमन ।। अघ्रिात-वि० [सं०] १ ८ धा हुमा । २ तृप्त । अपाय हुप्रा । ३. शाचरण्य-- वि० [०] १ अनुग्न श्रा ने दाव । २ । सुगंधित । सुवानित [को०] ।। पग्ने योग्य । बनत करने पर । करने योग्य ।। घात-सज्ञा पुं० [स०] ग्रहण के दम भेदो मे में एक जिममे चद्रमा चरन-या पुं० [सं० माचरण] ६० 'प्रोग्ण । ३०---नगुन | या सूर्यमड ने एक ग्रोर मलिन देग पड़ता है। फलित ज्योतिष समय गुमिरन गुपद भरत माग्नु चार 1-1 १०, पृ०६२। | के अनुसार ऐसे ग्रहण में अच्छी वर्षा होती है। | श्रीचरना-त्रि० स० [न० प्राचरण में नाम०] ।ग करना । आग्नेय--वि० [म०] मूघा जाने योग्य को०] । व्यवहार गरन । उ० -इ भनि वैराग्य ज्ञान प? - तोषने शाचचले–वि० [सं०+ चञ्चल] अस्थिर । चचन । ३०-वद्रोदय यह तुम व्रत प्राव । ननिदाउ नि जम्ने माग र चुलत प्रारभकाल मे चचल सागर में |--पार्वती, पृ० १२३ । मदा सपनेहु नाहिन ।--17गी (शब्द॰) । अचिभ--वि० [हिं०] ६० 'अचमा'। उ० --प्राचभे रूप इच्छिनि चरित'–वि० [सं०] १ किया टूमा । अनुठान किया है। । ३ सुनी जन जन वत्त बानियाँ ।-- पृ० रा०, १२।१०। नित्य का । रोजमर का । नियमित कि०]। ! पवन, प्राच-सज्ञा पुं० [ सं ० सर्च = सधान करना ] हाये । उ०--जिक जैने-स्थान [2] । | मल घन जोडियौ, ऊमियी निज प्राच ।-नकी ० ग्र०, भा० | प्राचरित'-माझा पुं० [सं०] १ धर्म के अनुसार पुगी । धन | १, पृ० ४८ । (डि०) लेने के पाँच प्रकार के उपाय में से एक । ऋगी के मंत्री, यौ०-चप्रभव = क्षनिये ।। पुग्न, पशु प्रादि को नेगर या उसके द्वार पर धरना देर प्राचमन--संज्ञा पुं० [स०] [ वि० आचमनीय, प्राचमित ] १ जन । ऋण को चुका नेना। २. नरिन । देउवहार ]ि । पीना । २ शुद्धि के लिये मुह में जल लेना। ३ किसी धर्म | प्राचरितदाबन-मज्ञा पुं० [म ०] गुण का वह चुना जो नी, पुन वो बोध ने या दरवाजे पर धरना देने में हः । । संवधी कर्म के प्रारम में दाहिने हाय में थोडा सा जल लेकर ग्रानाfr_f० [.1

  • प्रचारितदप-वि० [म०1 प्रा चरा ने योग्य [] । मत्रपूर्वक पीना यह पूजा के पोडशोपचार मे ने एक है। ४ आचर्ज–नज्ञा पुं० [न० प्राचर्य] ६० 'प्राचर्य' ३०-गगन की सुगधवाना । नेत्रवाना ।

| ठोरि एह गुरति छूटे नहीं अजय प्रार्ज मभ दरम वानी - प्राचमनक-=-मल्ला पु० [सं०] १ आचमन सा पाये । २ मा वमन का सं० दरिया, पृ० ८५ ।। जल । ३ पीकदान [को॰] । आचार्य---वि० [सं०] [मज्ञा चियं] १ प्राचरण करने योग्य । अचिमनी-संज्ञा स्त्री॰ [भ० आचमनीय] एक छोटा चम्मच जो कनछी | के ग्राकार का होता है। इसे पचपात्र में रखते हैं और इसमे २ जाने योग्य फिौ०] । चातवि० [सं० आचान्त] १ आचमन किया हुम्रा । २ चमन • अचमन करते और चरणामृत आदि देते हैं। करने योग्य [को०)।। । ६२ ।। =