पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४९०

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माग्नैयो' ४२३ धो थी । २ अग्निविस्फोट अस्त्र या वह अस्त्र जो अग्नि उत्पन्न हारिक लोग मग त के लिये ग्राममहत्तों के हाथ में जनकु में होने या विस्फोट होने से चने । जैसे,—वदूक, पिस्तौल श्रादि । उठाए हुए आ रहे थे ।-हर्ष ०, पृ० १६२ । २ अग्रहार का आग्नेयी----वि० श्रीस०] १ अग्नि को दीपन करनेवाली (ौपध) । | हरण करनेवाला (को०)। ३ अग्रहर की देखभाल २ पूर्व और दक्षिण के बीच की ( दिशा )। करनेवाला [को०] । आग्नेयी-सक्षा त्री० [२] १ अग्नि की पत्नी । स्वाहा । २ अग्नि आग्रहिका--मज्ञा स्त्री॰ [ सं ० ] सहायतः । अनुग्रह (को॰] । की पू जो उह की पत्नी थी किो०)। ३ प्रतिपदा तिथि । अाग्रही---वि० [सं० प्रहिन् ] हठी । जिद्दी । परिवा कि०] ।। ग्रायण-- सज्ञा पुं॰ [ स०] दे० 'ग्रयण' । श्रोग्या+--- सच्चा स्त्री॰ [स० प्रज्ञा ]दे० 'आज्ञा'--१ । उ०—ज्यौं गुरु १०-ज्या गुरु ॥ घि -सज्ञा पु०[स० अर्ध, प्रा० अग्घ = मूल्य] १ मूल्य । कीमत । प्रग्या सुनि चटमार । चट पढि उठत एक ही बार ।--नद० २ दर । मान । उ०- विदर मूछ जाणे वृथा इधक पटारो ग्र०, पृ० २८६ । अाघ ।--बक्री० ग्र०, T० २ पृ० ८६ ।। अग्यौ - वि० [स० अग्र] भविष्य । उ०--तो तुम कोऊ तारयो आघट्टक––सल्ला पु० [सं०] रक्त अपामार्ग । २rल चिचडी। नहिं, जो मोम पतित न दाग्यौं । हौं स्रवननि सुनि कहत न । श्रघट्टक-वि० [सं०] घर्पण उत्पन्न करनेवाचा । रगडनेवाला(को०] एको, भूर सृधा अग्यौ ।- सूर०, १/७३ । आघट्टन--सज्ञा पुं॰ [ स० ] [ मी० घट्टना ] १ रगड | घर्पण । अग्नि जाणिक -सज्ञा पुं० [म० अग्र+ज्ञानीक] आगे की बात जानने ३ सपर्क को०] । वाला व्यक्ति । ज्योतिपी।--वर्ण, पृ० ६ । आधट्टित--वि० [सं०] रगडा इम्रा । मदिन [को०] । अग्रभोजनिक - मज्ञा पुं० [१०] वह ब्राह्मण जो भोजन में अग्रस्थान । आघण--सज्ञा पुं० [सं० अग्रहायण] अगहन उ०—प्रापण कर | की अधिकारी हो (को०] ।। दिन छोटा होई ।--वीमल० रा०, पृ० ६७ ।। अग्रमास---सज्ञा पुं० [म०] चिपक वृक्ष । चीते का पेड (को०] । घर्ष,घर्पण--सझा पु० [स०] रगड 1 घर्पण [को०] । ग्रयण- संज्ञा पुं० [सं०] १ अहिताग्नियो का नवशस्येष्टि । नवान्न ग्रावर्पणी--संज्ञा स्त्री० [म०] घर्पण या रग इने में प्रयुक्त होने वाली विधान । नए अन्न से यज्ञ या अग्निहोत्र । कूची, ब्रश ग्रादि [को०] । विशेप---इसका विधान श्रौतसूत्रानुसार होता है । यह तीन अन्नो । ग्राघाट--संज्ञा पुं० [सं०]१ गाँव की सीमा 1 गाँव की हद । सिवान । मे ने तीन फसलो में किया जाता है। सर्वे में वर्षा ऋतु में, विशेष--इम अर्थ में इस शब्द का प्रयो। प्राचीन शिनालखी मै नीहि या चावल मे हुमत ऋतु में अौर जी से वसत ऋतु मे । गृह्यसूत्रानुसार जवे इनका अनुष्ठान होता है, तब इन्हें नव मिलता है । अाधाटक' या 'घाटन' शब्द भी इमी अर्थ में शस्येष्टि कहते हैं । अाया है । २ अग्नि का एक भेद (को०] । ३ यज्ञ का समय [को०] । २ अपामार्ग । चिचडी [को०] । ३ एक तरह का बाजा [को०]। अाग्रस्त-वि० [सं०] १ विधा हुआ । २ छिदा हुग्रा । छेदयुक्त [को०)। श्रीवात--संज्ञा पुं॰ [सं०] १ धक्का । ठोकर । २ मार । प्रहार। अाग्रह---सज्ञा पुं० [सं०] १. अनुरोध । हो! जिद । जैसे,—वह बार चोट । अाक्रमण । जैसे,—निरपराधों पर प्राघात करना अच्छा नही । ३ वधस्थान । बूचडख़ाना । ४ प्रतिध्वनि । उ०-=वार मुझमे अपने साथ चलने का आग्रह कर रहा है । नियो तंबोल माथ धरि हनुमत, कियौ चतुरगुन गात । चढि २ तत्परता। परायणता । दृढ निश्चय । उ०--राक्षस fगरि मिखर शव्दै इक उफचरयौ, गनन उठ्यो अधात ।-सूर० बड़े अाग्रह और सावधानी से चद्रगुप्त और चाणक्य के अनिष्ट ६।७४ । ५ बघ । मारण (को०)। ६ वध करन१ ।। साधन में प्रवृत्त हुए ।--हरिश्चद्र ( शब्द०)। ३. बेन । व्यक्ति [को०)। ७ विपत्ति । दुर्भाग्य [को०]। ८ भूत! जोर । अावेश । उ ०-ौर अाप अपने मुख से अपने इस वाक्ये रोग को । । की अाग्रह दिखाते हैं ‘सर्व गुह्यनम मूय शृणु मे परम वच'। श्राघातज्वर--सज्ञा पुं० [सं०] किमी चोट या अघान से होने वा न -हरिश्चंद्र (नन्द०)।४ अाक्रमण को । ५ हरण। ग्रहण भावा ज्बर [को०] ।। (को०]। ६ अनुग्रह् । कृपा [को०)। ७ धैर्य । नैतिक बल (को०] । श्राघातन--संज्ञा पुं० [मा०] वधस्यान । २ वध । हनन [को॰] । अग्रहायण--सज्ञा पु० [सं०] १ अगहन मास । मार्गशीर्ष मास । २ मृगशिरा नक्षत्र । प्रचार--संज्ञा पुं० [स०] १. यज्ञ और होम आदि में वे अहुतियाँ । आग्रहायणक--सज्ञा पुं० [१०] दे॰ 'अाग्रहायण' । अदि में प्रजापनि अौर इद्र देवता को घी की अविच्छिन्न धा• आग्रहायणिक - संज्ञा पुं० [१०] १. अगहन की पूर्णमासी । २ से ‘प्रजापतये स्वाहा' और 'इद्रीय स्वाहा' कहकर वायः मृगशिरा नक्षत्र [को॰] । कोण से अग्नि कोण तक और फिर नैऋत्य से ईमान तक ६ शाग्रहायणी'--सच्चा झी० [ सं . ] १ अगहन मास । २ मृगशिरा जाती हैं । ऋग्वेदी इमे मौन होकर करते हैं और यजुर्वेदी जे । नक्षत्र । ३ पाक यज्ञ विशेष (को०] । से मंत्र का उच्चारण करके करते हैं । ३ घ (को०] । ३ प्राग्रहायणी---वि० [म ०] १ प्रगहन की पूर्णिमा को दिया जाने सिंचन । मींचना [को०] । वाला ! २ अगहन की पूणिमा मे युक्त [को॰] । प्राची-सज्ञा स्त्री॰ [ मं० अर्घ, प्रा०प्रग्ध = मून्य ] १ रुपये की व आग्रहारिक--वि० [स]१ दान के रूप में गाँव या भूमि लेनेवाना। लेन देन जिसमे उधार लेनेचा १ महानने को प्राने वा । ३०---मार्ग में जो अन्नहार गाँव पडते थे उनके अनपढ़ अग्र फसल की उपज मे से फी रुपए की दर से अन्न आदि प्राज