पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४८२

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माक्सीजन अाखु विशेष-भिन्न भिन्न तत्वों के मयोग से भिन्न प्रकार के प्राक्माइड जायसी ग्र०, पृ० ८४ । (ख) कविहि प्ररथ अाखर बलु माँ चा ।। बनते हैं, जैसे पारे से शवसाइड ग्राफ मर्करी, जस्ते से अक्सिाइड अनुहरि ताल गतिहि न नचा।--मानम, २॥२४० । श्राफ जिक, लोहे से ग्रामाइड अफ आइरन इत्यादि ।। क्रि० प्र०----देना = बात देना । प्रतिज्ञा करना । प्राक्सीजन - सज्ञा पुं० [अ०] एक गैस या सूक्ष्म वायु । अम्लङ । आखर--संज्ञा पुं० [सं०] १ फावडा । कुदाल । २ खनक । ३ अम्ज न । प्राणद । प्राणप्रद । श्रोपजन ।। | जानवर की माँद । विवर । ४ अग्नि का एक नाम (को०] । विशेप--ह रूप, रम, गधर हित पदार्थ है और वायुमडलगत अाखा'-सज्ञा पुं॰ [स० अक्षरण = छानना] झीने कपड़े से मढ़ा हू ।। वायु से कुछ ना होता है तथा पानी में घुल जाता है। यह एक मेडरेदार बरतन जिसमे मोटे अाटे को रखकर चानने से । जन में ८९ फी मदी होता है। वातु में लगकर यह मोरचा मैदा निवल है । एक प्रकार वी चननी । अषी। उत्पन्न करना है । प्राणियों के जीवन के लिये यह बहुत अवि- शाखा-सचा पुं० [देश॰] खुरजी । गठिया ।। श्यक है । यह बहुत से पदार्थों मे सयुक्त रूप में मिलती है। आखा--वि० [सं० अक्षय, प्रा० अर्यखय] १ कुन । पूरा । समूचा। आखडल-संज्ञा पुं० [म० ग्राखण्डन] इद्र ।। समस्त । उ०--कहिये जिय ने कछु म के राखौ । लवी मेलि शाख---संज्ञा पुं० [सं०] व्रता । बुती । रमा । दई हैं तुमको, वकत रहौ दिन अखौ !--सूर0, १ ।३५४० । अरूण-- वि० [म०] (खोदने या खनने में) व डा। जैसे,-पत्थर क्नेि] जैसे,—उसे अाज अाखा दिन विना ख ए वीता । २ ग्रनगढा।। आ खत -मज्ञा पुं० [ सं ० अक्षत, प्रा० अवखत ] १ अक्षत । समूचा । जैसे,-- अखि लकडी (लकरी) ।। ३०--मेवा सुमिरन पूजिवो पात ग्राखत योरे ।- तुलसी ग्र०, आखातीज –सझा झी [स० अक्षय तृतीया] वंशाख मुदी तीज ।। पृ० ४५७ । २ चदन या के सर में रंगा हुआ चावन जो मूति अक्षयतृतीया ।। के मस्तक पर स्थापना के समय और दूल्हा दुलहिन के माथे पर । विशेप--इस दिन हिंदुप्रो के यहाँ बट का पूजन होता है और विवाहू के समय इन गाया जाता है । ३ वह अन्न जो गृहस्थ ब्राह्मणों को पखे,मुर।हियाँ, ककडी, अादि ठळक पहुँचाने वाली नोग नेगी पर जो का विवाहादि अवसरों पर क्रिमी विशेप कृत्य चीजें दी जाती हैं । के उपलक्ष मे देते हैं। अखिन्वमी--सज्ञा स्त्री० [सं० अक्षयनवमी] कार्तिक शुक्ल नवमी ।। आखता–वि० [ला० अाखता]जिसके अंडकोश चीरकर निकाल लिए । दे० 'क्षय नवमी' । | गए हो । बधिया ।। अाखिर - वि० [फा० आखिर] अतिम । पीछे की। छ।। विगेप-- शब्द प्राय घोडे के लिये प्रयुक्त होता है, पर कोई यौ०-आखिर जमाना । आखिर दम । | वोई इस शब्द का कुत्ते और वारे के लिये भी प्रयोग करते हैं। अविर- सज्ञा पुं० १ अत । जैसे,---लखिर को वह ले के टला । ३ । शाखन --कि० वि० [सं० अ + क्षण] प्रति क्षण । हर घडी। परिणाम । फल । नतीजा। जैसे,—इस काम का आखिर अखिन -मज्ञा पुं० [म ०] दे० 'अ' [को॰] । अच्छा नही । खना -क्रि० स० [T० श्राख्यान, प्रा० शायखान, पाखना] अाखिर-वि० समाप्त । खत म । उ०--उपजे श्री पाले अनुमरे ।। उ०—कहना । धोलना। उ०—(क) वर वार का आखिये, | वावन अक्षर अखिर करे --कवीर (शब्द०)। मेरे मन की मोय । कलि तो ऊखल होयगी, साई और न आखिर-क्रि० वि० १ अत में। अत को। जैसे,---(क) याखिर । होय ।- ववीर (शब्द॰) । (ख) सत्यसंध साँचे सदा, जे उसे यहाँ से चला ही जाना पड़ा । (ख) वह कितना ही क्यों न अाखर अखें। प्रनतपाल पाए मही, जे फल अभिलाखे :-- बढ़ जाय, अाखिर है तो नीच ही । २ हारकर । हार मानकर तुलसी (शब्द॰) । थककर । लाचार होकर । जैसे,---जव उमने किसी तरह नहीं | आखना.-क्रि० स० [सं० श्राकक्षिा] चाहना । इच्छा करना । उ0--- माना, तब अाखिर उसके पैर पड II पड़।। ३ अवश्य। जरूर । ताहि मेवा विठुरन नहि शाख । पीजर हिये घाद्धि के राखौं । जैसे,—आपका काम तो निकल गया, अाखिर हमें भी तो कुछ --जायमी ग्र०, पृ० २२।। मिलना चाहिए 1 ४ भला। अच्छा । खैर । तो । जैसे -7च्छा खना--क्रि० स० [म० अक्षि, प्रा० अखि = अप] देखना । अाज बच गए, जाग्रो, अाखिर कभी तो भेंट होगी । ताकना । उ०—-अलक, भुगिन अधरहि आखा। गहै जो अाखिरकार--क्रि० वि० [फा० अाखिरकार] अन में । अजाम को । नागिन सो रस चाखा ---जायसी - (शब्द०)। (छ) अत को । जैसे -सुनते सुनते अाखिरकार उममे नही रहा गया आत्म और विपे को मुख वाच्य पद अनद को । विप सुख और वह वोल उठा। त्यागि अात्म मुख लक्ष्य प्राखिये ।--निश्चल (शब्द०)। आखिरत--संज्ञा स्त्री० [अ० अाखिरत] १ परलोक । २ । । ३ श्राखना--क्रि० स० [हिं० ग्वा] मोटे झाटे को प्रो मे डालकर | पल ! (को०] । चानना । छानना । अाखिरी-वि० [फा०अाखिरी] अतिम । सबने । पिछवा । ३०--केशव खनिक---संज्ञा पुं० [म०] १ खनक । २ चूहा । ३ शूकर । ४ । को लगना, स्यात्, अाखिरी धात्र अभी तक व १ है। -माम० | चो: ।५ कुदाल [को०)। पृ० ३१ ।। श्रा खर° - सच्चा पुं० [म० अक्षर, प्रा० अवखर] अक्षर । ३०—(क) श्राखु-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं॰] १ मूसा । चूहा। तब चदन आखिर हिय लिखें । भीख लेइ दुइ जोग न सिखें - यौ०.--श्राखुकर्णपण का, अखकर्णी, प्राणुपणका, आखपण =